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कांग्रेस और राहुल गांधी की चुनाव-मुक्त मनःस्थिति विस्मयकारी और दिलचस्प है

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प्रफुल्ल कोलख्यान 

राहुल गांधी भारत जोड़ो न्याय यात्रा पर हैं। लोग जुट रहे हैं। पत्रकार चिंता में हैं। देश में आम चुनाव सिर पर है, और राहुल गांधी यात्रा में जनजुटाव से उल्लसित हैं। जन-जुड़ाव का आनंद मन को मोह लेता है। इस सकारात्मक मोह में आदमी जन-हित के लिए कुछ भी, कुछ भी करने के लिए तैयार हो जाता है।

राहुल गांधी का अंतर्मन चुनावी चिंता से मुक्त हो गया लगता है। आम चुनाव का सामना करने की तैयारी में लगी किसी राजनीतिक पार्टी के महत्वपूर्ण नेता की चुनाव-मुक्त मनःस्थिति विस्मयकारी और दिलचस्प है। कांग्रेस और राहुल गांधी की राजनीति के मर्म और उसके फलितार्थ को समझने की कोशिश की जानी चाहिए। इस कोशिश के पहले आज की परिस्थिति को देखना जरूरी है।

किसान आंदोलन के सामने कील-कांटे बिछे हुए हैं। चिंतन-मनन और मंथन चल रहा है। रास्ता निकल जाने की उम्मीद से हर कोई है। सत्ता और उदारता में संबंध अक्सर धूर्तताओं से तय होता है। संवाद से समाधान जैसे सुनहरे सूत्र हवा में लहराये जा रहे हैं। जी, बातचीत से किसी भी समस्या का समाधान हो सकता है, लेकिन यह निश्चित है कि शोषण का समापन नहीं हो सकता है। इसके बावजूद लोकतंत्र में बात-चीत के अलावा कोई अन्य निरापद रास्ता नहीं है। यह निरापद रास्ता तब निरर्थक होकर अंधी गली बन जाता है जब बातचीत में टालने और टरकाने की धूर्तता शामिल हो जाती है।

टरकाव से टकराव बढ़ता है। बहलाने, फुसलाने, रिझाने, लुभाने के कपट से विश्वसनीयता घटती है। आज-कल धार्मिक कथाओं के मिथ प्रसंगों का इस्तेमाल बहुत चतुराई से हो रहा है-जैसे कृष्ण और सुदामा की दोस्ती का प्रसंग। आमंत्रित कर गले लगने का पवित्र प्रस्ताव तो चाचा धृतराष्ट्र ने भतीजे भीम को भी दिया था। कृष्ण की चतुराई न होती तो भीम बच पाते!

किसान आंदोलन की मांगों को पंजाब-हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों के हित से सीमित कर देश के अन्य राज्य के किसानों के हितों के विरुद्ध बताया जा रहा है। किसानों के बीच हित-विरुद्धता का माहौल बनाकर किसान आंदोलन की बुनियादी नैतिकता पर सवाल उठाने की कोशिश की जा रही है। ऐसी कोई रणनीति बन रही है क्या कि पंजाब-हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चुनावी जीत को दांव पर लगाकर बाकी जगह चुनावी लाभ बटोर लिया जाये। आम नागरिकों के बीच हित-विरुद्धता के टकराव का खेल देश को बहुत महंगा पड़ेगा, क्षेत्रवाद की तिक्ष्णताओं को ही बढ़ावा नहीं मिलेगा, बल्कि भारत के संविधान सम्मत संघात्मक ढांचा को भी हिलायेगा।

क्या आपने सुनी वह आवाज जो किसान आंदोलन से निकल रही थी! पंजाब की सीमा में रुके हुए आंदोलनकारियों पर हरियाणा की पुलिस हमला करने का मतलब भारत की संवैधानिक संघात्मकता की अवमानना है। संदेह धीरे-धीरे विश्वास में बदल रहा है। संदेह यह कि हम संसदीय लोकतंत्र में रहते हैं फिर भी युयुत्स (Warmonger) और गली मुहल्लों में फेरी लगाकर युद्ध बेचने वाले (War Hawkers) ने हमें नागरिक युद्ध के मैदान में झोंकने में कहीं सफल तो नहीं हो जायेंगे!

विडंबना है कि संसदीय लोकतंत्र में संवाद के सबसे बड़े और पवित्र सदन को संवाद की संभावनाओं से रहित कर देने में अपने जानते कोई कसर नहीं छोड़ने वालों के साथ खड़े दिखने वाले, आज किसान आंदोलन की मांगों के संदर्भ में संवाद से समाधान की बात कर रहे हैं। लोकतंत्र में कोई भी औपचारिक संवाद संविधान के दायरे में ही हो सकता है। यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि सरकार और नागरिक दोनों का दायित्व ही नहीं ताकत भी संविधान ही है। ऐसा नहीं हो सकता कि कोई भी सरकार जनता के खिलाफ संविधान को अपना हथियार बना ले। संविधान जनता के सिर का बोझ नहीं होता है; संविधान चिंता, निराशा और अभाव से आहत नागरिकों की आत्मा के आनंद का आधार है।

नागरिक जमात को परिस्थिति की जटिलताओं पर ध्यान देना ही होगा। सत्ता की हवस में राजनीतिक जटिलताओं ने सामाजिक अंतर्विरोधों की चोटिलताओं को बहुत तीखा बना दिया है। पारस्परिक समझदारी, सहिष्णुता, सह-अस्तित्व, साहचर्य और सहानुभूति की भावनाओं का समाप्त होते जाना भयावह है। समाज में ही नहीं, परिवार में भी अपने हिस्से-बखरे के लिए लोग लड़ते हैं, इस से कोई दुश्मनी नहीं हो जाती है। लेकिन कुछ लोग हिस्से-बखरे की इस लड़ाई में दुश्मनी का खोंच लगाते रहते हैं।

सामाजिक समरसता और संसाधनिक संतुलन में सीधा संबंध होता है। संसाधनिक असंतुलन के कारण अवसर की असमानता तेजी से बढ़ रही है। चारो तरफ विकास की बयार बहाई जा रही है। इस विकास से होनेवाले लाभ में कमजोर लोगों की हिस्सेदारी बहुत कम है। ताकतवर लोगों को यह विकास सत्ता-समर्थित लूट और निर्द्वंद्व विलास का भरपूर अवसर देता है! कर्तव्य, धर्म और समाज कि चिंताओं को पास फटकने देने से रोकने की निष्ठुर अनैतिकता का समावेश इस विकास के चरित्र में है।

विभ्रमित करने के लिए खबरों के नाम पर तरह-तरह के इपीसोडों, नैरेटिवों नाटकों का जाल पसर रहा है। याद किया जा सकता है, प्रेमचंद और डॉ. आंबेडकर को -गोदान में मिस्टर तंखा कहते हैं कि नाटक कोई भी अच्छा हो सकता है, अगर उसके अभिनेता अच्छे हों। अच्छा-से-अच्छा नाटक बुरे अभिनेताओं के हाथ में पड़ कर बुरा हो सकता है; और संविधान के बारे में डॉ आंबेडकर कहते हैं कि अच्छा-से-अच्छा संविधान भी बुरे हाथों पर कर बुरा हो सकता है। आज नाटक अच्छे अभिनेताओं के हाथ में है। और संविधान! कहना न होगा!

कांग्रेस और राहुल की राजनीति का मर्म एक नहीं है। दोनों के राजनीतिक संघर्ष का लक्ष्य एक नहीं है। दोनों के राजनीतिक संघर्ष के मर्म और लक्ष्य में बुनियादी अंतर है। इस अंतर को समझना होगा। कांग्रेस पार्टी संसदीय राजनीति की परिधि में सत्ता हासिल करने का लक्ष्य सामने रखकर अपनी रणनीति बनाकर आगे बढ़ रही है। राहुल गांधी गैरसंसदीय राजनीति के रास्तेजनचेतना से खुद को जोड़ने और खुद की चेतना से जनता को जोड़ने की अपनी कार्यनीति पर चल रहे हैं। इस तरह की द्वि-आयामी राजनीतिक संरचना अन्य दलों में भी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष ढंग से काम करती है।

उदाहरण के लिए, गैर-संसदीय राजनीति राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी संसदीय राजनीति एक ही संरचना के दो आयाम हैं। असल में संसदीय बहुमत को अराजक बहुसंख्यकवाद बदल देने की शासकीय प्रवृत्ति के कारण संसदीय लोकतंत्र में भी ‘संसदवाद’ का खतरा कम नहीं होता है। इस खतरे से निबटने के लिए संसदीय राजनीति के ऊपर जनपक्षधर गैरसंसदीय राजनीति की नैतिक नजरदारी या निगरानी (Ethical Surveillance) की जरूरत होती है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ इस नैतिक नजरदारी या निगरानी (Ethical Surveillance) को निभा नहीं पाई है। सुख और सुविधा का घटाटोप नैतिक नजरदारी को खामोश दर्शक में बदल देती है।

अब लगभग तय है कि 2024 केआम चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्ववाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधनके मुकाबले विपक्षी गठबंधन का कोई साझा उम्मीदवार उस तरह सेनहीं खड़ा होगा, इं.ड.इ.आ (I.N.D.I.A – इंडियन नेशनल डेवलेपमेंटल इनक्लुसिव अलायंस) बनाते समय सोचा गया होगा। इसके कई कारण हैं।

इंडिया गठबंधन बनने के पहले ही लगभग बिखर चुका है। इस बिखराव के कई कारण हैं। कारणों का विश्लेषण अलग से और पर्याप्त विस्तार से किया जाता रहेगा। यहां कुछ कारणों पर विचार किया जा सकता है। अभी तो बस इतना ही उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस नेताओं के बीच सीटों के बंटवारे को लेकर कई दौर की बैठकों के बाद अंततः दोनों पार्टियों के बीच समझौता तो हो गया है। उनके समर्थक मतदाताओं का के मत समझौता के अनुसार उम्मीदवारों के खाते में अंतरित होंगे या नहीं, यह कहना मुश्किल है। मतों का अंतरण होगा या मतांतर का संकट बना रह जायेगा, कहना मुश्किल है।

समाजवादी पार्टी नेता अखिलेश यादव का बयान आ गया है-‘अंत भला, तो सब भाला।’ निश्चित ही यह एक सिलसिलेका अंत है, लेकिन अधिक महत्वपूर्ण यह है कि यह एक सिलसिले की शुरुआत है। किसी पत्रकार ने अंत भला, तो सब भाला’ का मतलब पूछा तो अखिलेश यादव ने कहा इसका मतलब आप निकालिए। इशारों में शायद, यह कहा गया है कि सीटों के बँटवारे पर समझौता हो गया है, अब इससे सतरू (सत्तारूढ़) पक्ष के वर्चस्व का अंत हो तो भला।

नीतीश कुमार के नेतृत्व में जनता दल (यू) के भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्ववाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में शामिल हो जाने के बावजूद बिहार में ‘महा गठबंधन’ में कांग्रेस की स्थिति में कोई बदलाव नहीं हुआ है। ऐसे संकेत हैं कि नीतीश कुमार का मन अभी फिर डगमगा रहा है, पता नहीं कितना सच कितना झूठ! कितनी राजनीतिक भिनभिनाहट या भिन्न-भिन्नाहट!

महाराष्ट्र में अजीत पवार और एकनाथ शिंदे के भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्ववाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में शामिल हो जाने के बाद शरद पवार और उद्धव ठाकरे की स्थिति कमजोर हुई है या बेहतर हुई है, कहना मुश्किल है। अन्य गठबंधनों में समझ और समझौता बना रहेगा और कांग्रेस की स्थिति में कोई बदलाव नहीं होगा। पश्चिम बंगाल में गठबंधन की स्थिति अभी पूरी तरह साफ नहीं है।

तर्क-वितर्क के बाद अधिकतर लोग 2024 के आम चुनाव में विपक्षी दलों की अस्त-व्यस्त स्थिति के लिए कांग्रेस और खासकर राहुल गांधी को जिम्मेवार मानते है। मुख्य मीडिया घरानों के राजनीतिक कार्यकर्ता पत्रकार के रूप में अपना फर्ज निभा रहे हैं। राजनीतिक विश्लेषण के लिए जिन स्वतंत्र विशेषज्ञों को विमर्श के लिए आमंत्रित किया जाता है वे ‘आमंत्रण की भावना’ की रक्षा के लिए तत्परता से पूरी तैयारी करके आते हैं। उनके स्वतंत्र होने, रहने पर शक इसलिए होता है कि हर विचार-विमर्श में, हर कार्यक्रम में उनका रुझान सरकार की तरफ ही रहता है। निश्चित रूप से अपना राजनीतिक रुझान तय करने का अधिकार हर किसी को है। एतराज रुझान के उनके अधिकार को लेकर नहीं हो सकता है। एतराज रुझान में निहित उनकी अप्रकट राजनीति और कपटी हितैषिता को लेकर हो ही सकता है।

संसदीय लोकतंत्र की राजनीति में राजनीतिक दलों और उनके गठबंधनों के बीच चुनावी संघर्ष होता रहता है, जीत-हार होती रहती है। लोकतंत्र की चुनावी राजनीति दलों के बीच की एक नागरिक प्रक्रिया है। किसी भी नागरिक प्रक्रिया को सामरिक प्रक्रिया बना देना या बनने देना लोकतंत्र को जहरीला बना देता है।

एक बात समझने की जरूरत है कि जीवन का कोई भी क्षेत्र राजनीति से अप्रभावित नहीं होता है, लेकिन हर सामाजिक व्यवहार में राजनीति घुसी रहे और सामाजिक संबंधों में नाजायज सांठ-गांठ बनाती रहे, यह शुभ नहीं हो सकता है। मजे की बात है कि राजनीतिक दल किसी मुद्दे पर तर्कविहीन होते ही, दूसरों को उस पर राजनीति न करने की सलाह देते हैं, उस मुद्दे पर राजनीति करने का दोष मढ़ते हैं।

सभ्य और बेहतर नागरिक जीवन के लिए जरूरी हो जाता है कि जीवन की गुणवत्ता में सुधार की गैरसंसदीय राजनीति और राजनीतिक सत्ता पर दखल की संसदीय राजनीति के फर्क को आम नागरिक समझे। मनुष्य की प्रकृति में विन्यस्त राजनीति और सत्ता की राजनीति में अंतर करना चाहिए। इस अंतर को समझ लेने के बावजूद, जीवन की गुणवत्ता में सुधार की राजनीति और राजनीतिक सत्ता पर दखल की राजनीति के बीच आवाजाही से इनकार नहीं किया जा सकता है।

इस आवाजाही में अपनी जटिलताएं होती हैं जिसे सामाजिक अंतर्विरोधों की चोटिलताओं के कारण सुलझा पाना आसान नहीं होता है। चूंकि राजनीति मनुष्य की प्रकृति में विन्यस्त रहती है, इसलिए उस का मन बार-बार लपक के सत्ता की राजनीति की डोर पकड़कर झूलने का मजा लेने लगता है। मजा के चक्कर में पड़ने से बचते हुए, सामाजिक अंतर्विरोधों की चोटिलताओं के कारण ‘व्यक्ति’ के वर्ग-चरित्र को समझना जरूरी है। लगभग सभी महत्वपूर्ण सत्ता-केंद्रों पर उन्हीं लोगों का वर्चस्व है, जिनका वर्चस्व जन्म आधारित अपरिवर्तनीय श्रेष्ठ-हीन के पूर्वाग्रहग्र्सत पदानुक्रमिक जातिवाद के कारण वृहत्तर समाज में है।

मानकर चलना चाहिए कि 2024 के आम चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्ववाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को सत्ता से बेदखल करना बहुत मुश्किल है, अधिक-से-अधिक कुछ अंकुश लग सकता है। अभी तो उनका कथन बेकाम का नहीं हो गया है कि चुनाव जीतने पर तो वे सरकार बनाते ही है, हारने पर भी बना ही लेते हैं। सत्ता से बेदखल हो जाने या थोड़ा-बहुत अंकुश का इंतजाम हो जाने के बाद भी उसका कोहराम जारी रह सकता है। ध्यान रहे, लोकतंत्र में अराजकीय कारक और कारण (Non State Actor And Factor)के सक्रिय रहने की गुंजाइश भी कम नहीं रहती है।

2024 के आम चुनाव में किस दल या गठबंधन को जीत है, यह तो महत्वपूर्ण है कि आम नागरिकों को सभ्य और बेहतर जीवन का अवसर मिलता है या जीने का यही मूलमंत्र बना रहेगा कि जैसे इतने दिन बीते हैं, वैसे और भी बीत जायेंगे। अलग-अलग इंतजार में सभी हैं, किसान, बेरोजगार, तिरस्कृत महिला, मणिपुर और देश का आम नागरिक। तब तक, साभार, पढ़िये 20 साल पुराना एक प्रसंग, पढ़िये, भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम की पुस्तक (अनुवाद अशोक गुप्ता) “टर्निंग प्वॉइंट्स चुनौतियों-भरा एक सफ़र” का एक अंश

“मुझे बताया गया कि 18 मई (2014) को, दोपहर 12:15 बजे सोनिया गांधी मुझसे मिलने आ रही हैं। वह समय पर पहुंचीं, लेकिन अकेले आने की बजाय वह अपने साथ डॉ. मनमोहन सिंह को लाईं, और उन्होंने मुझ से बात की। उन्होंने कहा कि उनको पर्याप्त सदस्यों का समर्थन प्राप्त है, लेकिन वह अभी वह पत्र नहीं ला पाई हैं जिस पर उन सदस्यों के, समर्थन में किये गये दस्तखत हैं। वह उस पत्र के साथ सरकार बनने के दावे के लिये 19 मई, (यानी अगले दिन) तक का समय चाहती हैं। मैंने उनसे कहा कि वह देर क्यों कर रही हैं, यह काम शाम तक पूरा हो सकता है। वह वापस चली गईं। बाद में मुझे सूचना मिली कि वह शाम 8:15 पर मुझसे भेंट करने आएंगी।

जब यह बातचीत चल ही रही थी, मेरे पास लोगों, संगठनों और राजनीतिक पार्टियों द्वारा भेजे गये बहुत से ई मेल, और पत्र आये, कि मैं सोनिया गांधी को देश का प्रधानमंत्री न बनने दूं। मैंने वह सारे पत्र वगैरह, बिना अपनी किसी टिप्पणी के, सूचनार्थ, अनेक सरकारी एजेंसियों को भेज दिए। इसी बीच, मेरे पास बहुत से राजनेता इस बात के लिये मिलने आये कि मैं किसी दबाव के आगे कमज़ोर पड़ कर, श्रीमती सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री न बनने दूं। यह निवेदन किसी भी तरह संवैधानिक नहीं था। वह अगर अपने लिये कोई दावा पेश करेंगी तो मेरे पास उसे स्वीकार करने के अतिरिक्त कोई रास्ता नहीं होगा।

तयशुदा समय शाम 8:15 पर श्रीमती गांधी राष्ट्रपति भवन आईं और उनके साथ डॉ. मनमोहन सिंह थे। इस भेंट में, रस्मी खुशनुमा बातचीत के बाद उन्होंने मुझे अपने गठबंधन वाले दलों का समर्थन पत्र दिया। उसके बाद मैंने सरकार बनाने योग्य दल के रूप में उनका स्वागत किया और कहा कि राष्ट्रपति भवन उनके बताए समय पर शपथ ग्रहण समारोह के लिये तैयार है। उसके बाद उन्होंने कहा कि वह प्रधानमंत्री पद के लिये डॉ. मनमोहन सिंह को नामांकित करना चाहती हैं। वह 1991 के आर्थिक सुधार के नायक हैं, कांग्रेस पार्टी के विश्वसनीय कर्णधार हैं तथा प्रधानमंत्री के रूप में निर्मल छवि वाले नेता हैं। यह सचमुच मेरे लिये और राष्ट्रपति भवन के लिये एक अचम्भा था। सचिवालय को डॉ. मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री नियुक्त करते हुए और यथा शीघ्र सरकार बनाने का आमंत्रण देते हुए, दूसरा पत्र बनाना पड़ा।”

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