मुनेश त्यागी
हमारा देश इस वक्त संसद के चुनावों के दौर से गुजर रहा है। चुनाव को लेकर देश में तरह-तरह के मत जाहिर किया जा रहे हैं। कोई इंडिया गठबंधन को जिता रहा है, कोई एनडीए को जिता रहा है। सबके अपने-अपने दावे हैं। मगर यहां पर एक सबसे बड़ा सवाल उभर कर आ रहा है, वह यह कि इन चुनावों में भारत के चुनाव आयोग पर तरह-तरह के सवाल उठाए जा रहे हैं, उसकी स्वतंत्रता, निष्पक्षता, पारदर्शिता और ईमानदारी पर बहुत तरह के सवाल उठाए जा रहे हैं।
अधिकांश विपक्षी दलों का कहना है कि अब भारत का चुनाव आयोग पारदर्शी, निष्पक्ष, स्वतंत्र और ईमानदार नहीं रह गया है, बल्कि वह सरकार के इशारों पर, उसके एक मंत्रालय की तरह काम कर रहा है। वैसे पिछले दो महीना से भारत के अधिकांश मतदाता भी देख रहे हैं कि भारत का चुनाव आयोग एक आजाद, ईमानदार और पारदर्शी चुनाव आयोग की तरह काम नहीं कर रहा है।
इन चुनावों के दौरान भाजपा के अधिकांश वक्ता जिस तरह से मॉडल कोड आफ कंडक्ट की धज्जियां उड़ा रहे हैं और चुनाव आयोग इस सबसे आंखें मूंदे हुए हैं, वह बहुत अफसोसजनक और परेशान करने वाला है। इन चुनावों में हम देख रहे हैं कि चुनाव आयोग भारत के मतदाताओं के सवालों का जवाब नहीं दे रहा है। वह जैसे उनसे भाग रहा है। चुनाव आयोग की मतदाता परसेंटेज में भिन्नता है। वह दस दिन बाद चुनाव मतदान की परसेंटेज बता रहा है। जबकि पहले चुनावों में डाले गए मतों की संख्या मतदान के दिन ही सार्वजनिक रूप से बता दी जाती थी। पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी के अनुसार मतदान खत्म होने के चार घंटे के अंदर ही डाले गए मतों की संख्या बता दी जाती थी।
यहां पर सबसे बड़ा मुद्दा यह है कि भारत का चुनाव आयोग डाले गए मतों की संख्या नहीं बता रहा है? जैसे वह इसे जान पूछ कर छुपा रहा है। जबकि विपक्ष की अधिकांश पार्टियां उसको पत्र लिख चुकी है। जबकि इस विषय में भारत के कई वकील, विपक्षी पार्टियों और सामाजिक संगठनों के कार्यकर्ता चुनाव आयोग से मांग कर चुके हैं कि वह डाले गए मतों की संख्या बताएं, परसेंटेज नहीं। मगर इस सबके बावजूद भी भारत का चुनाव आयोग चुप्पी साधे हुए हैं, आंख और कान बंद किए हुए हैं, जैसे उसे कुछ दिखाई नहीं दे रहा है, कुछ सुनाई नहीं दे रहा है। सोशल मीडिया के लोग भी इस पर लगातार सवाल उठाते आ रहे हैं, फिर भी चुनाव आयोग कुछ बोलने बताने को तैयार नहीं है।
यहीं पर एक बहुत बड़ा सवाल खड़ा हो रहा है कि जब चुनाव आयोग डाले गए मतों का परसेंटेज बता सकता है, तो वह डाले गए मतों की संख्या क्यों नहीं बता रहा है? यह सबसे बड़ा सवाल है जो भारत के चुनाव आयोग की स्वतंत्रता, ईमानदारी, निष्पक्षता और पारदर्शिता पर सबसे गंभीर सवाल उठा रहा है और चुनाव आयोग की यह भूमिका, भारत के चुनावी जनतंत्र पर सबसे बड़े अचम्भित और परेशान करने वाले सवाल उठा रही है। चुनाव आयोग के इस रूप को भारत के अधिकांश मतदाता इसे बहुत संदेह की दृष्टि से देख रहे हैं।
हमने अपने जीवन में देखा है कि जहां-जहां चुनाव आयोग ईमानदार, पारदर्शी और स्वतंत्र होता है, वहां के मतदाता चुनाव आयोग पर कोई सवाल नहीं उठाते। हमने अपनी कचहरी में देखा है कि जब-जब चुनाव आयोग चुनाव अधिकारी गलत काम करता था, बेईमानी करता था, वोटर लिस्ट ढंग से नहीं बनाता था, वोट डालने में बेईमानी होती थी और फिर मतगणना में बेईमानी होती थी, तो लगातार झगड़ा बना रहता था। मगर जब एक स्वतंत्र, निष्पक्ष, ईमानदार और पारदर्शी चुनाव समिति का गठन किया गया, चुनाव समिति में ईमानदार वकीलों को शामिल किया गया तो उसके बाद पच्चीस साल तक किसी भी मतदाता वकील को चुनाव समिति को लेकर कोई संदेह नहीं हुआ। उन्होंने कभी उसकी गरिमा, उसकी इमानदारी, उसकी आजादी और पारदर्शिता पर सवाल नहीं उठाये और चुनाव बड़ी आसानी से गरिमा पूर्ण तरीके से संपन्न होते रहे।
मगर जब चुनाव अधिकारी बेईमान, पक्षपाती और गुलाम हो जाता है, सरकार या निहित स्वार्थों के का दलाल और पिछलगू बन जाता है, उनकी हां में हां मिलाने लगता है और चुनाव आयोग की गरिमा के खिलाफ काम करने लगता है, तब चुनाव आयोग की विश्वसनीयता ख़त्म होती चली जाती है, लोग उस पर सवाल उठाने लगते हैं। आज भारत के चुनाव आयोग और चुनाव आयुक्त पर भी ऐसे ही सवाल उठ रहे हैं। अधिकांश मतदाता परेशान हैं और उन्हें समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर भारत का चुनाव आयोग क्या कर रहा है? चौथे चरण के चुनाव के बाद चुनाव आयोग द्वारा डाले गए मतों में एक करोड़ 7 लाख मतों का इजाफा, एक बहुत बड़ी चालाकी और चालबाजी की तरफ इशारा कर रहा है। यह संख्या अभी तक चुनाव हुई कुल सीटों के मतों में प्रत्येक सीट के मतों में 28-29,000 मतों का इजाफा कर रहा है। यह तथ्य बहुत विचलित करने वाला है और इसका चुनाव आयोग के पास कोई जवाब नहीं है। इसे लेकर विपक्षी पार्टियों, जागरूक वकीलों और संविधान और जनतंत्र से प्रतिबद्ध सामाजिक कार्यकर्ताओं और बहुत सारे मतदाताओं में बहुत बड़ी बेचैनी पैदा हो गई है।
जैसा कि पहले संदेह हो रहा था, अब भारत का चुनाव आयोग एक स्वतंत्र, पारदर्शी, निष्पक्ष और ईमानदार संस्था नहीं रह गई है। इस चुनाव आयोग को सरकार ने अपने मन मुताबिक बनाया है। इसी कारण चुनाव की स्वतंत्रता पर बहुत सवाल खड़े हो रहे हैं। इसी वजह से जो सरकारी मंत्री गण अपने चुनावी भाषणों में मॉडल कोड आफ कंडक्ट का उल्लंघन कर रहे हैं, जनता को धर्म और समुदाय और जाति के नाम पर बांट रहे हैं और इसी आधार पर नफरत फैला रहे हैं और मुसलमान को ज्यादा बच्चे पैदा करने वाले, घुसपैठिये और उन पर तरह-तरह के गुमराह करने वाले और मनमाने आरोप लगा रहे हैं, इसके बावजूद भी चुनाव आयोग ऐसे आदर्श चुनाव संहिता भंग करने वाले लोगों के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं कर रहा है, तो यह चुनाव आयोग की छवि के लिए बहुत खतरनाक मामला है। इससे चुनाव आयोग की इस गरिमा विहीन कार्य प्रणाली से भारत के चुनावों पर और भारतीय जनतंत्र पर बहुत बड़े सवाल खड़े हो गए हैं।
अब तो ऐसे लगता है कि जैसे अपना मन माफिक चुनाव आयोग गठित करो और उससे अपने मन माफिक काम कराओ। इस सबने भारत के चुनावी जनतंत्र पर गंभीर सवाल उठा दिए हैं और अब चुनाव आयोग की इन गतिविधियों से लग रहा है कि वह भारत के संविधान और जनतंत्र को बचाने के लिए नहीं, चुनाव आयोग की गरिमा को बचाने के लिए नहीं, बल्कि वह सरकार की मान माफिक नीतियों के हिसाब से काम कर रहा है और वह सरकार की सत्ता में बने रहने की मुहिम में शामिल हो गया है और भारत के चुनावी इतिहास में ईवीएम के माध्यम से एक बहुत बड़ी चुनावी धांधली होने की आशंकाएं पैदा हो रही है। इस सब से भारत के चुनाव आयोग की छवि धूमिल हो गई है और लोग उस पर तरह-तरह के सवाल उठा रहे हैं, जो भारतीय जनतंत्र और चुनाव आयोग की आजादी, निष्पक्षता, पार्दर्शिता और ईमानदारी के लिए बेहद खतरनाक है।
चुनाव आयोग की इस गरिमा विहीन कार्य प्रणाली से भारतीय चुनावों पर पूरी दुनिया में तरह-तरह के सवाल उठेंगे, उन पर तरह-तरह की विपरीत चर्चाएं होंगी और इससे भारत की पूरी दुनिया में छवि खराब होगी और इसका सबसे बड़ा प्रभाव यह होगा कि चुनावों से भारत के लोगों का विश्वास ही उठ जाएगा। भारतीय चुनाव आयोग द्वारा चुनाव में डाले गए मतों की संख्या, देश की जनता को समय से न बताना, एक बहुत बड़ा अपराध है। यह इन चुनावों की सबसे बड़ी खामी है। चुनाव आयोग की इस कमी से उसकी स्वतंत्रता, निष्पक्षता, पारदर्शिता और ईमानदारी पर गंभीर सवाल खड़े हो गए हैं और इससे जनतंत्र में चुनावों की वैधता और विश्वसनीयता पर गंभीर काले बादल मंडराने लगे हैं।