लिबरल डेमोक्रेसी का सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव होते हैँ।इसलिए अब यह जरूरी हो गया है कि गहराते जा रहे संदेह के साये को जल्द से जल्द हटाया जाए। वरना, एक जीवंत लोकतंत्र के रूप में भारत की साख क्षीण होने लगेगी। विपक्षी राजनीतिक दलों में इस सवाल पर जिस तेजी से असंतोष बढ़ रहा है, उसे देखते हुए वह दिन बहुत दूर नहीं है, जब उनमें से कुछ की तरफ से चुनावों के दौरान अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षक बुलाने की मांग की जाने लगेगी। इसलिए समय रहते इस मसले की गंभीरता को समझना और सुधार के उपाय करना अनिवार्य हो गया है।
सत्येंद्र रंजन
चुनावों की निष्पक्षता और पवित्रता पर जितने गंभीर प्रश्न अब उठ रहे हैं, वैसा आजाद भारत के इतिहास में कभी नहीं हुआ। चर्चा सोशल मीडिया से फैलते हुए अब राजनेताओं और विशेषज्ञों तक पहुंच चुकी है। सिर्फ हाल के महीनों की घटनाओं पर गौर करें-
- दिसंबर में मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव का नतीजा आने के बाद कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं दिग्विजय सिंह और कमलनाथ ने इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों (ईवीएम) से चुनाव नतीजा तय किए जाने का शक खुलेआम जताया।
- कमलनाथ ने कुछ गांवों और क्षेत्रों में दिखे वोटिंग पैटर्न की मिसाल देकर कहा कि जैसा परिणाम आया, वह विश्वसनीय नहीं है।
- दिग्विजय सिंह ने दो टूक कहा कि उन्हें ईवीएम पर भरोसा नहीं है। इस हफ्ते राज्यसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चर्चा में हिस्सा लेते हुए भी उन्होंने यह मुद्दा उठाया। सिंह ने उस सॉफ्टवेयर (यानी प्रोग्रामिंग) को सार्वजनिक करने की मांग की, जिसके जरिए वोटिंग मशीनें डाले गए वोट को दर्ज करती हैं।
- दिसंबर में आए विधानसभा चुनाव नतीजों के बाद इंडिया गठबंधन में शामिल सभी दलों ने ईवीएम पर अपनी आपत्तियां बताने के लिए निर्वाचन आयोग से समय मांगा। लेकिन निर्वाचन आयोग ने समय देने से यह कहते हुए इनकार कर दिया कि जो प्रश्न इस गठबंधन ने उठाए हैं, उनके जवाब आयोग की वेबसाइट पर प्रश्नोत्तरी खंड में मौजूद हैं।
- सॉफ्टवेयर विशेषज्ञ, अमेरिकी कंपनी तुलिप सॉफ्टवेयर के पूर्व सीईओ, और अमेरिका में पूर्व ओबामा प्रशासन में सलाहकार रहे माधव देशपांडे ने एक मीडिया इंटरव्यू में यह बात आसान भाषा में समझाई कि भारतीय ईवीएम को हैक तो नहीं किया जा सकता, लेकिन उनमें छेड़छाड़ की जा सकती है। प्रोग्रामिंग में हलकी हेरफेर से उनमें वोट दर्ज करने की प्रक्रिया बदली जा सकती है, जिससे वीवीपैट में जो वोट दिखेगा, संभव है कि सेंट्रल यूनिट में उससे अलग वोट दर्ज हो। यानी वीवीपैट में जिस पार्टी को वोट जाते दिखा, सेंट्रल यूनिट में उससे अलग किसी पार्टी के नाम पर वह दर्ज हो जाएगा। (Watch | EVMs Can Be Manipulated, Not Hacked But Remedy is Simple and Inexpensive: Expert)
- इसी बीच यह खबर बहुचर्चित हुई कि ईवीएम बनाने वाली सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड (बीईएल) के निदेशक मंडल में भारत सरकार ने चार ऐसे व्यक्तियों की नियुक्ति कर दी है, जो अभी भी सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी के पदाधिकारी हैं। इस तरह बीईएल में लिए जाने वाले निर्णयों में उन व्यक्तियों की निर्णायक भूमिका बन गई है।
- सामाजिक मुद्दों पर अपनी सक्रियता के लिए मशहूर पूर्व सिविल सर्वेंट ईएएस सरमा ने इस मुद्दे से संबंधित मुद्दों को लेकर निर्वाचन आयुक्तों को एक पत्र लिखा। इसमें उन्होंने ईवीएम से संबंधित सुरक्षा उपायों के मसले को भी उठाया। (Take Expert Opinion on EVMs’ Safety, Implement Safeguards: E.A.S. Sarma to Election Commission)
- ईवीएम पर उठे प्रश्नों के साथ-साथ निर्वाचन आयोग में आयुक्तों की नियुक्ति संबंधी प्रक्रिया बदलने के सरकार के निर्णय ने भी संदेह को बढ़ाया है। पिछले साल के आरंभ में सुप्रीम कोर्ट ने आयुक्तों की नियुक्ति के लिए तीन सदस्यीय समिति का ढांचा तय किया था। इसके तहत प्रधानमंत्री एवं लोकसभा में विपक्ष (या सबसे बड़े दल) के नेता के अलावा भारत के प्रधान न्यायाधीश को समिति का सदस्य बनाया गया था। लेकिन नरेंद्र मोदी सरकार ने संसद से बिल पारित करवा कर सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को पलट दिया। नई व्यवस्था के तहत अब प्रधानमंत्री, एक केंद्रीय मंत्री और विपक्ष के नेता समिति के सदस्य होंगे। यानी समिति में सरकार का बहुमत हो गया है और इस तरह वह अपने मन-माफिक व्यक्तियों को निर्वाचन आयोग में नियुक्त करने की स्थिति में आ गई है। तो प्रश्न उठा है कि अगर सरकार की मंशा साफ है, तो उसे एक निष्पक्ष समिति से क्या दिक्कत थी?
- यह गौरतलब है कि ईवीएम से संबंधित संदेह का मसला नया नहीं है। पिछले कई वर्षों से विभिन्न राजनीतिक दलों के नेता इसे उठाते रहे हैं। 2022 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के बाद समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने भी विभिन्न चुनाव क्षेत्रों के परिणामों को लेकर अपना शक जताया था।
- बहुजन समाज पार्टी की तरफ से तो तब ईवीएम से चुनाव बंद कराने के मुद्दे को लेकर कई जगह जन प्रदर्शन आयोजित किए जा चुके हैं।
- सिविल सोसायटी के कई संगठन भी यह प्रश्न उठाते रहे हैं और कुछ संगठनों ने तो इसको लेकर विरोध प्रदर्शन और धरनों का भी आयोजन किया है।
उपरोक्त मुद्दे सीधे तौर पर चुनाव की निष्पक्षता एवं पवित्रता से जुड़े हुए हैं। जबकि कुछ अन्य स्थितियां ऐसी बनी हैं, जिनकी वजह से यह धारणा मजबूत होती चली गई है कि अब भारत में चुनावी मुकाबले का धरातल सबके लिए समान नहीं रह गया है। यह मैदान कुछ ऐसा बन गया है, जिसमें सत्ताधारी भाजपा हमेशा ही फायदे में रहती है। यह धारणा इन कारणों से बनी है–
- इलेक्ट्रॉल बॉन्ड्स के सिस्टम ने कॉरपोरेट चुनावी चंदे को लगभग एकतरफा बना दिया है। सार्वजनिक दायरे में उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक इलेक्ट्रॉल बॉन्ड्स के जरिए जो चंदा दिया जाता है, उसका 80 फीसदी से भी ज्यादा हिस्सा सिर्फ भाजपा को जाता है।
- ऐसी समझ बनी है कि देश का कॉरपोरेट सेक्टर- खासकर मोनोपॉली कॉरपोरेट घराने पूरी तरह से आज की सत्ताधारी पार्टी के पीछे लामबंद हैं। दूसरी तरफ चूंकि इलेक्ट्रॉल बॉन्ड्स के जरिए दिए जाने वाले चंदे की सूचना सरकार के पास रहती है, इसलिए कारोबारी घराने विपक्ष को इस माध्यम से चंदा देने से डरते हैं। इस वजह से जहां भाजपा के पास आज अकूत संसाधन हैं, वहीं बाकी दलों के पास संसाधनों का टोटा हो गया है।
- चूंकि तमाम मेनस्ट्रीम मीडिया का स्वामित्व कॉरपोरेट घरानों के पास है, इसलिए इनके जरिए भाजपा के पक्ष में लगातार प्रचार किया जाता है। इनसे ऐसे कथानकों पर चर्चा हमेशा गर्म रखी जाती है, जिससे भाजपा को लाभ पहुंचाने वाले मुद्दों पर तीखा सामाजिक ध्रुवीकरण बना रहता है।
- निर्वाचन आयोग जैसी संस्थाओं और चुनाव संपन्न कराने में लगे प्रशासन की भूमिका भी लगातार संदिग्ध होती गई है। समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल जैसी पार्टियां खुलकर आरोप लगा चुकी हैं कि उप्र एवं बिहार के विधानसभा चुनावों के समय प्रशासनिक हेरफेर के जरिए कई चुनाव क्षेत्रों के नतीजों को प्रभावित किया गया।
- अखिलेश यादव ने यह आरोप लगाया था और हाल में फिर से दोहराया है कि उत्तर प्रदेश में बड़ी संख्या में ऐसे मतदाताओं के नाम मतदाता सूची से हटा दिए गए हैं, जिनके बारे में समझा जाता था कि वे भाजपा को वोट नहीं देंगे। इस प्रक्रिया का खास निशाना मुस्लिम समुदाय के लोग बने हैं।
ये तमाम आरोप सही हैं या नहीं, इस बारे में यह स्तंभकार यहां कोई राय नहीं व्यक्त नहीं कर रहा है। इस बारे में अंदाजा लगाने का कोई जरिया हमारे पास नहीं है कि उपरोक्त बताए गए कारणों से हाल के वर्षों में चुनाव परिणाम सचमुच प्रभावित हुए हैँ या नहीं। ईवीएम में सचमुच हेरफेर हुई है या नहीं, इस बारे में भी कोई साक्ष्य मौजूद नहीं है- यानी तमाम कही गई बातें संदेह हैं। उन्हें अधिक से अधिक आरोप ही माना जा सकता है।
लेकिन अब जो परिस्थितियां बनी हैं, उनके बीच असल मुद्दा यह नहीं रह गया है कि चुनावों में सचमुच हेरफेर हो रही है या नहीं। मुद्दा यह है कि भारत में चुनाव परिणामों को लेकर अनेक हित-धारकों (stakeholders) के मन में अविश्वास पैदा हो गया है।
अगर वर्तमान सरकार के कर्ताधर्ता ईमानदारी से आत्म-निरीक्षण करें, तो संभवतः वे इस निष्कर्ष पर पहुंचेंगे कि यह स्थिति पैदा करने की जिम्मेदारी काफी हद तक उन पर जाती है। साथ ही अनेक संवैधानिक संस्थाओं और यहां तक कि न्यायपालिका के कर्ताधर्ता भी अगर अपनी संस्थाओं की भूमिका पर ध्यान दें, तो वे भी ऐसे ही निष्कर्ष पर पहुंचेंगे।
इसलिए अब यह जरूरी हो गया है कि गहराते जा रहे संदेह के साये को जल्द से जल्द हटाया जाए। वरना, एक जीवंत लोकतंत्र के रूप में भारत की साख क्षीण होने लगेगी। विपक्षी राजनीतिक दलों में इस सवाल पर जिस तेजी से असंतोष बढ़ रहा है, उसे देखते हुए वह दिन बहुत दूर नहीं है, जब उनमें से कुछ की तरफ से चुनावों के दौरान अंतरराष्ट्रीय पर्यवेक्षक बुलाने की मांग की जाने लगेगी। इसलिए समय रहते इस मसले की गंभीरता को समझना और सुधार के उपाय करना अनिवार्य हो गया है।
यहां इस बात का जिक्र जरूरी है कि लिबरल डेमोक्रेसी का सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव होते हैँ। राज्य की शक्तियों का पृथक्करण (separation or division of powers), स्वतंत्र न्यायपालिका, अवरोध एवं संतुलन (check and balance) सुनिश्चित करने वाली संवैधानिक संस्थाएं, आजाद प्रेस और पहरेदार की भूमिका निभाने वाले सिविल सोसायटी के संगठन लिबरल डेमोक्रेसी के अन्य महत्त्वपूर्ण पहलू हैं।
दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इनमें से सभी पहलुओं की अपेक्षित भूमिका हाल के वर्षों में संदिग्ध होती गई है। आरोप है कि कुछ मामलों में ऐसे प्रतिकूल हालात बना दिए गए हैं, जिनकी वजह से उपरोक्त कुछ पहलू आज कारगर नजर नहीं आते।
इसी बीच विपक्षी नेताओं, जागरूक सामाजिक कार्यकर्ताओं, और प्रेस कर्मियों पर केंद्रीय एजेंसियों की तेज होती गई संदिग्ध कार्रवाई ने राजनीतिक प्रतिस्पर्धा की जमीन को और भी प्रतिकूल बना दिया है।
इन गंभीर हालात के बीच अगर चुनाव परिणामों की भी साख नहीं रही, तो देश में ऐसे गतिरोध की हालत बन सकती है, जिससे संवैधानिक व्यवस्था में लोगों का यकीन चूकने लगे। चुनाव नतीजों में संदेह अनेक देशों में सामाजिक अशांति का कारण बन चुका है। लोकतंत्र तभी स्वस्थ बना रहता है, जब चुनाव परिणाम को सभी हित-धारक सहजता से स्वीकार लें।
चुनाव प्रक्रिया विश्वसनीय बनी रहती है, तो उस हाल में पराजित दल यह मानकर उसे बिना किसी हिचक के नतीजे को स्वीकार कर लेते हैं कि इस बार वे मतदाताओं का पर्याप्त समर्थन जुटाने में विफल रहे। उसके बाद वे अगले चुनाव के लिए समर्थन जुटाने में लग जाते हैं।
जबकि अगर उन्हें यह महसूस हो कि उन्होंने पर्याप्त समर्थन जुटाया था, लेकिन अनुचित ढंग से उन्हें जीत से वंचित कर दिया गया, तो फिर अनेक देशों में ऐसी परिस्थितियां आई हैं, जब संबंधित दल या नेता ने चुनान परिणाम को स्वीकार करने से इनकार कर दिया। इस हाल में पूरी राजनीतिक व्यवस्था की वैधता (legitimacy) ही संदिग्ध होने लगती है।
भारत अभी ऐसे मुकाम पर नहीं पहुंचा है। लेकिन सार्वजनिक चर्चा जो रूप ले रही है, उसमें ऐसी आशंका को सिरे से ठुकराया नहीं जा सकता। इसलिए यह सही वक्त है, जब चुनावों को विश्वसनीय बनाए रखने की पहल पूरी गंभीरता से की जाए। इसके लिए शुरुआती तौर पर निम्नलिखित कदम उठाए जा सकते है–
- निर्वाचन आयोग उठाए जा रहे सवालों को दरकिनार करने का नजरिया छोड़े। उसे तुरंत सर्वदलीय बैठक बुलाकर ईवीएम एवं विपक्ष की अन्य शिकायतों पर पूरी चर्चा करनी चाहिए। उसे यह समझना चाहिए कि विपक्षी नेताओं के मन में उठे संदेहों को दूर करना उसकी ही जिम्मेदारी है।
- अगर यह मांग उठी है कि ईवीएम की अंदरूनी प्रोग्रामिंग के सार्वजनिक परीक्षण की इजाजत हो, तो यह मांग ठुकराने का कोई तर्क नहीं है। बल्कि निर्वाचन आयोग को खुद विपक्षी दलों और सिविल सोसायटी से संबंधित विशेषज्ञों को प्रोग्रामिंग की जांच कर लेने के लिए आमंत्रित करना चाहिए।
- अगर यह मांग उठी है कि वीवीपैट की पर्ची हर मतदाता को मिलनी चाहिए, तो यह मांग भी स्वीकार की जानी चाहिए।
- निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति संबंधी प्रक्रिया के लिए पारित कराए गए कानून को तुरंत रद्द कर दिया जाना चाहिए। इसके लिए वह प्रक्रिया बहाल की जानी चाहिए, जिसका प्रावधान सुप्रीम कोर्ट ने किया था।
- मतदाता सूची संबंधी शिकायतों को दूर करने के लिए निर्वाचन आयोग को विशेष अभियान चलाना चाहिए।
- निर्वाचन आयोग को यथासंभव ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए, जिससे राज्य सरकारें प्रशासन के माध्यम से चुनाव नतीजों को प्रभावित ना कर सकें।
- निर्वाचन आयोग को आदर्श चुनाव आचार संहिता लागू कराने में निष्पक्षता का परिचय देना चाहिए। गुजरे वर्षों में यह शिकायत भी गहराई है कि निर्वाचन आयोग सत्ताधारी दल और उसके नेताओं के प्रति इस मामले में अपेक्षाकृत नरम रुख अपनाता है।
न्याय के सिलसिले में अक्सर यह कहा जाता है कि इंसाफ ना सिर्फ होना चाहिए, बल्कि होते हुए दिखना भी चाहिए। यानी इंसाफ इस ढंग होना चाहिए कि संबंधित पक्षों को यह महसूस हो कि न्यायालय ने सभी साक्ष्यों की रोशनी में बिना किसी राग-द्वेष और पूर्वाग्रह या पक्षपात के अपना फैसला दिया है। तब पराजित पक्ष यह मानकर निर्णय को स्वीकार कर लेता है कि सबूत उसके पक्ष में नहीं थे और उसकी दलीले दमदार नहीं थीं।
यही बात चुनाव पर भी लागू होती है। चुनाव ना सिर्फ स्वतंत्र एवं निष्पक्ष ढंग से होना चाहिए, बल्कि उसके आयोजन में ऐसी पारदर्शिता जरूरी है, जिससे उसकी निष्पक्षता में सभी पक्षों का भरोसा बरकरार रहे।
अभी भी मुमकिन है कि चुनावों का आयोजन स्वतंत्र एवं निष्पक्ष ढंग से होता हो- लेकिन हकीकत यह है कि राजनीतिक एवं सामाजिक दायरे में इनकी निष्पक्षता लगातार संदिग्ध होती जा रही है। इसीलिए इसके पहले कि ऐसी धारणाओं को तोड़ना नामुमकिन हो जाए, स्थितियों में पर्याप्त सुधार एक अपरिहार्य जरूरत बन गई है।