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नफरत के खिलाफ लड़ाई हमें खुद ही लड़नी होगी

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योगेंद्र यादव

मेरे दोस्त जैसे गिनती करने में लगे हैं, सोशल मीडिया पर वे एक-एक करके गिन रहे हैं—कतर, सऊदी अरब, जॉर्डन, इंडोनेशिया, लीबिया…

साफ दिख रहा है कि मेरे दोस्त राहत की सांस ले रहे हैं(बल्कि यों कहें कि उन्हें एक हद तक खुशी हो रही है) कि नरेन्द्र मोदी सरकार की `ईशनिन्दा` के लिए अंतर्राष्ट्रीय मंच पर किरकिरी हो रही है और इसकी वजह बने हैं पार्टी के वे प्रवक्ता जिन्हें अब पार्टी ने खुद ही `गोबर गणेश` का नाम देकर पिण्ड छुड़ा लिया है. दोस्त को इस दशा में देख मैंने सोचाः चलो, डूबते को तिनके का सहारा तो मिला! लेकिन ऐसा सोचते हुए मन में शक का कांटा गड़ा रहा कि इस तरह तिनके को सहारा मान लेना भी ठीक नहीं.

जहां तक अंदरुनी झगड़ों पर बाहर से समर्थन जुटाने या फिर ऐसे समर्थन के लिए स्वागत-सत्कार का भाव पालने की बात है— मुझे इसमें हमेशा ही उलझन होती है. मोदी को अमेरिकी वीजा देने से इनकार का मामला रहा हो अथवा हमारी सरकार के मानवाधिकार के रिकार्ड पर यूरोपियन यूनियन का अंगुली उठाना या फिर ब्रिटेन की संसद का किसान-आंदोलन पर चर्चा करना — मुझे इन बातों से कोई खुशी नहीं होती. पिछले साल दिसंबर में वाशिंग्टन डीसी स्थित एक प्रकाशन ने मुझसे संपर्क साधा कि आपको अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन के डेमोक्रेसी समिट (लोकतंत्र का महासम्मेलन) के इस सवाल पर अपनी राय जाहिर करनी है: आपके देश के लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए अमेरिका मदद में कौन-से ठोस कदम उठाये? ई-मेल का जवाब देने में यों तो मैं बहुत आलसी हूं लेकिन वाशिंग्टन डीसी के प्रकाशन की तरफ से आये ईमेल का जवाब देने में जरा सी भी देर ना करते हुए मैंने लिखा कि:  ‘मेरे पास आपके सवाल का बस इतना सा ही जवाब है कि `अपने काम से काम` रखिए.’

जाहिर सी बात है कि पश्चिम एशिया के स्वेच्छाचारी शासक गोरी नस्ल की महाप्रभुताई के हामी नहीं और ना ही इन स्वेच्छाचारी शासकों को साम्राज्यवादी आकाओं की श्रेणी में रखा जा सकता है. इसमें भी कोई शक नहीं कि नफरत के जारी अटूट अभियान के बीच अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जो हमें जो लानत-मलानत उठानी पड़ी है, उससे घड़ी भर को राहत के लम्हे नसीब हुए हैं. मोदी सरकार अगर अपने घुटने पर नजर आ रही है तो यह मोहम्मद जुबैर जैसे नौजवान पत्रकारों के अथक प्रयासों का ही परिणाम है कि उन्होंने नफरत के बोल बोलने वालों को अनुकरणीय साहस के साथ बेनकाब किया. हर दो-चार दिन पर इस देश में कहीं कोई दफन मंदिर या शिवलिंग ना निकल आये तो इस मंजर पर निश्चित ही आप राहत की सांस लेंगे. बागड़ बिल्ला अगर चूहा बना नजर आये और बीजेपी सर्व-धर्म सद्भाव की दुहाइयां देने लगे तो जाहिर सी बात है कि दिल को करार आयेगा ही आयेगा. सच कहूं तो मसले पर बने कुछ कार्टून, मीम और सोशल मीडिया पोस्ट को देख-पढ़कर मुझे भी मजा आया.

लेकिन अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हुई प्रतिक्रिया की हां में हां मिलाने और उसके लिए पलक पांवड़े बिछाने के लालच से हमें हर हाल में बचना चाहिए. हम भारतीय हैं तो हम वैश्विक मंच पर भारत की छवि मलिन होता नहीं देख सकते. विश्व-नागरिक के रुप में हमसे बेहतर भला कौन जानेगा कि अंतर्राष्ट्रीय मुस्लिम बिरादरी से हम उम्मीदें नहीं बांध सकते. मुश्किलों के भंवर में फंसे हिन्दुस्तानी मुसलमानों के हितैषी के रुप में हम इस बात की अनेदेखी नहीं कर सकते कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मिल रहे इस समर्थन की एक दीर्घकालिक कीमत भी चुकानी पड़ सकती है.

भारतीय जन-गण के मुहाफिज के तौर पर हमें ये चीज दिख जानी चाहिए कि नफरत की राजनीति से निपटने में यह हस्तक्षेप कोई बहुत मददगार नहीं. हमें यह कहना सीखना ही होगा किः `वैसे तो आपका शुक्रिया जनाब! मगर शुक्रिया कहना बनता नहीं है.`

पाखंड की बुनियाद पर बावेला

सबसे पहली बात तो ये याद रखें कि ईशनिन्दा कहकर सामूहिक रुप से यह जो बावेला मचाया जा रहा है वो बस इसलिए कि बात सीधे-सीधे पैगंबर मोहम्मद साहब से जुड़ती है, उनके लिए प्रत्यक्ष तौर पर और जानते-बूझते अपमानजनक बातें कही गयी हैं. यही वजह रही जो इस्लामी-जगत ने ठीक वैसी ही प्रतिक्रिया जाहिर की जैसा कि उसने शार्ली एब्दो कार्टून मामले में किया था. एक बार यह मसला अपने समाधान को पहुंच गया, दब गया या फिर भुला दिया गया तो प्रतिक्रिया पर उतारु इन देशों में से ज्यादातर को पहले की तरह अपनी पुरानी लीक पर लौट जाने में कोई मुश्किल नहीं होगी.

हमारी चुनौती कहीं ज्यादा गहरी और अलहदा किस्म की है. भारत में ईशनिन्दा का कोई कानून नहीं है. और, ना ही हमें ईशनिन्दा का कानून बनाने की जरुरत है. धारा 295 ए के तहत कहा गया है कि किसी धर्म या किसी वर्ग विशेष के नागरिकों के धार्मिक विश्वास को जानते-बूझते तथा बदनीयती से चोट पहुंचाने वाला व्यक्ति दंड का भागी होगा. यह कानून हमारी जरुरत भर को काफी है. सेंत-मेंत में ये मान लेने की जरुरत नहीं कि ईशनिन्दा कोई सबसे बड़ा अपराध है. ध्यान इस मुख्य बात से भटकना नहीं चाहिए कि: असल मसला नफरत के बोल और हिंसा का है और इसका निशाना मुस्लिम समुदाय को बनाया जा रहा है.

एक बात यह भी है कि अभी जो बावेला मचा है उसकी ऐसी कोई ऐसी पुख्ता नैतिक जमीन भी नहीं. बावेला मचा रहे ज्यादातर मुस्लिम देशों का अपने अल्पसंख्यकों के प्रति धार्मिक स्वतंत्रता के मामले में रिकार्ड खराब रहा है. भारत को अगर ये देश इस मुद्दे पर प्रवचन सुना रहे हैं तो यह उनकी ढ़िठाई कही जायेगी भले ही वे जो कह रहे हों उसमें सच्चाई हो. सच बात तो ये है कि अपने देश के बाहर के मुसलमानों के समर्थन की बात हो तो इनमें से ज्यादातर देश मुंह खोलना गवारा नहीं करते. चीन में उग्युर मुसलमानों के साथ जो बरताव हो रहा है, उसे लेकर क्या आपने पाकिस्तान को कभी कुछ कहते सुना? आम हिन्दुस्तानी मुसलमान के दुख-दर्द के साथ सहानुभूति जताने के मामले में भी पाकिस्तान का ट्रैक रिकार्ड फिसड्डी रहा है. सच कहें तो ये देश भारतीय मुसलमानों की उतनी ही परवाह करते हैं जितना कि बीजेपी कश्मीरी हिन्दुओं की.

समर्थन का असर उल्टा भी हो सकता है

नैतिकता की बात को एक किनारे करके जरा व्यावहारिकता की बात सोचें, क्या मुस्लिम देशों का यह रवैया कहीं से कारगर है? मुसलमानों के खिलाफ बीजेपी ने जो अपना दुर्धर्ष महारथ दौड़ा रखा है, उसे रोकने में क्या यह प्रकरण मददगार साबित नहीं होगा ? मुझे नहीं लगता कि ऐसा कुछ होने जा रहा है. हां, ये बात ठीक है कि मोदी सरकार की मुद्दे पर भारी किरकिरी हुई है. बेशक, मोदी की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कद्दावर होती जिस छवि के बड़े-बड़े दावे किये जाते हैं, उन दावों की चमक कुछ फीकी पड़ी है. लेकिन, इससे बीजेपी के समर्थक तबके पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला. जो मतदाता बीजेपी के प्रति निष्ठावान है वह तुरंत ही समझ जायेगा कि पार्टी ने बस अपने तेवर तनिक ढीले किये हैं, रंगत उसकी जस की तस है. पार्टी के आधिकारिक प्रवक्ता अपने बोल-वचन के राजनीतिक सहीपन का कुछ खास ख्याल रखेंगे और पार्टी की दूसरी पंक्ति के नेता मुसलमानों को अपनी कथनी और करनी से हड़काये रखने का काम जारी रखेंगे. ईशनिन्दा के बोल भले रुक जायें लेकिन `बुलडोजर` बाबा चलते रहेंगे.

अगर मुस्लिम बहुसंख्यक कोई देश अपने प्रतिरोध के प्रति गंभीर रवैया अपनाता है तो बीजेपी अपने बंधु-बांधवों के साथ समवेत रुप से खुद को अत्याचार का शिकार बतायेगी. सो, दूरगामी तौर पर देखें तो उम्मत या फिर अंतर्राष्ट्रीय मुस्लिम बिरादरी की भारतीय मुसलमानों की असल मुहाफिज होने की छवि भारत या इसके मुस्लिम नागरिकों के हित में नहीं है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इस प्रकरण को बड़ी आसानी से दूसरा रुख देते हुए दुष्प्रचार के अपने अभियान के तहत कह सकता है कि देखिए, हम कहते ना थे कि भारतीय मुसलमानों की निष्ठा भारत के बाहर के देशों से जुड़ी है. मौजूदा प्रतिक्रिया की काट में प्रतिक्रिया हो सकती है. वैसे भी, इस प्रकरण से पार्टी या फिर प्रधानमंत्री को खास नुकसान नहीं होने वाला.

लेकिन थोड़ी देर को मान लीजिए कि ईशनिन्दा पर मुस्लिम देशों की प्रतिक्रिया से बीजेपी या प्रधानमंत्री को खास नुकसान हो रहा हो तो क्या हमें ऐसे हस्तक्षेप का समर्थन और स्वागत करना चाहिए?

वैश्विक मंच पर भारत सरकार के हो रहे अपमान को क्या इस नाते हम देखते रहें और खुशियां मनायें कि हो सकता है इससे संवैधानिक लोकतंत्र को छार-छार करने की पार्टी (बीजेपी) की कोशिशों पर लगाम लगे ? ना, मुझे नहीं लगता कि हमें ऐसा करना चाहिए. भारत ने अपने सार्वजनिक जीवन के लिए मर्यादा की एक रेखा खींच रखी है: एक लोकतंत्र के नागरिक होने के नाते अपनी सरकार से सवाल करना, उसकी आलोचना करना और जरुरत पड़े तो विरोध में उतरना हमारा हक बनता है लेकिन भारत देश के नागरिक होने के नाते हम कभी भी वैश्विक मंच पर अपनी सरकार पर हमला नहीं बोलते. आज की दुनिया में इंटरनेट ने मर्यादा की रेखा को तकरीबन मिटा डाला है. तो भी, मर्यादा की ये रेखा खींची रहनी चाहिए और उसका सम्मान किया जाना चाहिए. मैं अपनी क्षमता भर इस सरकार का विरोध करुंगा: कड़ी मेहनत से कमाई अंतर्राष्ट्रीय प्रतिष्ठा को धूल में मिलाने के लिए इसकी लानत-मलानत करुंगा लेकिन मैं ये इजाजत नहीं दे सकता कि कोई तालिबानी आकर मेरे देश को अल्पसंख्यकों के अधिकार पर प्रवचन दे या फिर अमेरिका मानवाधिकार के मसले पर मेरे देश के सामने उपदेश झाड़े.

प्रतिरोध की सारी उम्मीदें जबतक मैं हार नहीं जाता तबतक मैं अपने इस राष्ट्रीय संकल्प से बंधा रहूंगा, उसका अनुपालन करता रहूंगा. लेकिन क्या हम तमाम उम्मीदों के हार जाने के उस मुकाम तक आ नहीं पहुंचे ? अपने दोस्तों के बीच निराशा का ये स्वर मैं उठते हुए देखता हूं. जान पड़ता है, जो बुलडोजर चल रहा है उसे रोक पाने में नाकाम होने के कारण ही देश की सीमा के बाहर से हुए हस्तक्षेप को लेकर खुशियां मनायी जा रही हैं. ऐसे दोस्तों से मैं बस यही कहना चाहता हूं: यह लड़ाई तो अभी शुरु हुई है. यह हमारी लड़ाई है. हमें खुद ही लड़ना होगा. और, हम जिस डाल पर बैठे हैं उसे काटकर ये लड़ाई हम नहीं लड़ सकते.

(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष और जय किसान आंदोलन के सह-संस्थापक हैं.

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