सुबोध वर्मा | महेश कुमार
लोकसभा चुनाव प्रक्रिया19 अप्रैल से शुरू हो रही है, जिसमें सात चरण के चुनाव के पहले चरण में 102 सीटों पर मतदान होगा। इन चुनावों में भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) और विपक्षी गठबंधन इंडिया (इंडियन नेशनल डेवेलोपमेंटल इंक्लूसिव अलाइन्स) के बीच कमोबेश सीधी लड़ाई देखने को मिलेगी। दोनों ही गठबंधनों ने इन चुनावों को महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक बताया है – लेकिन व्यापक रूप से दोनों के कारण अलग-अलग हैं।
भाजपा गठबंधन, इस चुनाव को न केवल अपने दशक भर के शासन के प्रमाण और भविष्य के अपने दृष्टिकोण के प्रति जनादेश पाने के रूप में पेश कर रहा है। विपक्षी गठबंधन बड़े जोरदार ढंग से तर्क दे रहा है कि एनडीए की नीतियों ने अब तक देश के गरीबों को बर्बाद और तबाह किया है और इससे लोकतंत्र और अन्य संवैधानिक मूल्यों की हानि होने की भी आशंका बढ़ी है। इस प्रकार, देखा जाए तो दोनों पक्ष अत्यधिक भिन्न विचारों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिससे चुनाव पर दीर्घकालिक प्रभाव पड़ सकते हैं।
पिछली बार पहले चरण में ये सीटें किसने जीती थीं?
पहले चरण का मतदान 21 राज्यों में फैला हुआ है – यह उन कारणों से जिन्हें या तो चुनाव आयोग जनता है या फिर विभिन्न दलों को सबसे अच्छी तरह से मालूम है। इस चरण में केवल एक प्रमुख राज्य, तमिलनाडु ही है जो इसमें पूरी तरह से कवर होता है, यानी इसकी सभी 39 संसदीय सीटों पर 19 अप्रैल को मतदान होगा। शेष 62 सीटें दक्षिणी जम्मू और कश्मीर, उत्तरी राजस्थान, उत्तरी उत्तर प्रदेश, पूर्वी मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ के सबसे दक्षिणी सिरे, दक्षिणी बिहार, पूरे उत्तराखंड और उत्तर-पूर्व के आठ राज्यों, असम को छोडकर जहां इस चरण में 14 में से केवल पांच सीटों पर मतदान होना है अधिकांश में बिखरी हुई हैं।
हालांकि, कई मायनों में, यह विविधता से भरा मतदान का यह परिदृश्य उन अधिकांश प्रमुख चिंताओं और मुद्दों को समाहित करता है जिनका सामना भारतीय जनता कर रही है। राजनीतिक गठबंधनों को भी अपने संबंधित मुख्य जन-आधारों को लुभाने और अन्यत्र विस्तार करने का प्रयास करने का अवसर मिलता है, भले ही छोटे उपाए इसमें शामिल हैं लेकिन ऐसा हो रहा है।
निवर्तमान लोकसभा में, एनडीए के पास इन 102 सीटों में से 43 सीटें हैं, जबकि इंडिया गठबंधन के पास इनमें से 48 सीटें हैं। छह सीटें अन्य छोटी पार्टियों के पास थीं जो 2019 में दोनों गठबंधनों में से किसी से जुड़े नहीं थे। हिंदी पट्टी की 35 सीटों में से भाजपा और उसके सहयोगियों के पास 28 सीटें थीं, जो इस महत्वपूर्ण बेल्ट में उनकी प्रमुख स्थिति को दर्शाती है।
लेकिन, विशेष रूप से, उत्तर प्रदेश की जिन आठ सीटों पर अब पहले चरण में मतदान हो रहा है, उनमें से भाजपा के पास सिर्फ तीन सीटें थीं। ये सभी आठ सीटें उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र में हैं। इस बेल्ट के अलावा, बीजेपी और उसके सहयोगियों के पास महाराष्ट्र की पांच में से चार और बंगाल की सभी तीन सीटें उनके पास थीं। भाजपा के सहयोगी – लोक जनशक्ति पार्टी, जनता दल (यूनाइटेड) और शिव सेना (शिंदे) के पास चार सीटें थीं और पूर्वोत्तर में विभिन्न सहयोगी दलों के पास एक-एक सीट थी।
दूसरी ओर, विपक्षी गठबंधन, इंडिया के पास 48 सीटें थीं, जिनमें से 38 अकेले तमिलनाडु से थीं, द्रमुक के नेतृत्व वाले गठबंधन ने 2019 में राज्य में जीत हासिल की थी। यूपी में, पहले चरण के मतदान के लिए जाने वाली आठ सीटों में से दो समाजवादी पार्टी ने जीती थीं, जो अब इंडिया ब्लॉक का हिस्सा है, जबकि तीन सीटें बहुजन समाज पार्टी के पास थीं। इसके अलावा हिंदी बेल्ट में राजस्थान, एमपी, छत्तीसगढ़ में विपक्षी गठबंधन के पास सिर्फ एक-एक सीट थी।
असम में जिन पांच सीटों पर मतदान हो रहा है, उनमें से बीजेपी के पास 4 और कांग्रेस के पास 1 सीट थी। लेकिन चूंकि असम में नए सिरे से परिसीमन हुआ है, इसलिए इन्हें मौजूदा पांच सीटों से अलग करना मुश्किल है।
सभी प्रमुख मुद्दे चर्चा में हैं
उत्तरी राज्यों की हिंदी बेल्ट की सीटों पर, जहां सभी राज्य सरकारों में भाजपा का शासन है (बिहार में, एक सहयोगी के रूप में), भाजपा राम मंदिर मुद्दे पर भरोसा कर रही है, इस साल की शुरुआत में हुए अभिषेक को भुनाने की उम्मीद कर रही है। दरअसल, कई लोगों का मानना है कि चुनाव नजदीक होने के कारण मंदिर समारोह में जल्दबाजी की गई थी। हालांकि, ऐसा अप्रत्याशित रूप से हुआ है कि जहां तक इसके मतदान का विकल्प बनने का सवाल था, यह मुद्दा मतदाताओं के दिमाग में काफी हद तक फीका पड़ गया है।
सर्वेक्षणों के साथ-साथ जमीनी स्तर की रिपोर्टों से संकेत मिलता है कि लोग मंदिर को तैयार देखकर खुश हो सकते हैं, लेकिन यह किसी भी वर्ग को भाजपा की ओर नहीं झुका पाया है। ऐसा लगता है कि इसने कार्यकर्ताओं और मौजूदा समर्थकों को उत्साहित करने में भूमिका तो निभाई है – लेकिन लोगों की कमजोर प्रतिक्रिया के कारण वह भूमिका भी तेजी से कम हो रही है।
बेशक़, भाजपा में प्रधानमंत्री से लेकर हर कोई अभियान में राम मंदिर का आह्वान कर रहा है, न केवल उत्तरी राज्यों में बल्कि अन्य जगहों पर भी इसका सहारा लेने की कोशिश की जा रही है। कई लोगों का मानना है कि मंदिर पर इतना ध्यान देना, वास्तव में भाजपा की हताशा को दर्शाता है क्योंकि उसके पास ज्वलंत आर्थिक मुद्दों के संदर्भ को देखते हुए परोसने के लिए बहुत कुछ नहीं है।
खासतौर पर, बेरोजगारी और महंगाई इस चुनाव में बहुत बड़े मुद्दों के रूप में उभर रहे हैं, जैसा कि हाल ही में सीएसडीएस-लोकनीति चुनाव पूर्व सर्वेक्षण से इसकी पुष्टि हुई है। भाजपा का घोषणापत्र, जिसे उसके आधिकारिक चुनावी मंच का प्रतिनिधित्व करने के रूप में लिया जा सकता है, में इन मोर्चों पर किसी भी उपलब्धि या भविष्य के वादों का अभाव है। यह पिछली यूपीए सरकारों की दो विफलताओं के रूप में, नौकरियों और महंगाई पर निर्भरता के बिल्कुल विपरीत है, जिसे भाजपा ने पिछले दो चुनावों में लगातार दोहराया था।
दूसरा प्रमुख मुद्दा किसानों की दुर्दशा का है। जबकि 2020-21 में किसानों के साल भर चले आंदोलन ने केंद्र की भाजपा सरकार को प्रस्तावित तीन कृषि-संबंधी कानूनों को वापस लेने के लिए मजबूर किया था लेकिन सी2 की कुल या व्यापक लागत से 50 फीसदी अधिक न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की गारंटी की मांग के साथ-साथ, सरकारी एजेंसियों द्वारा अधिक खरीद की मांग भी अधूरी रही है।
दरअसल, गेहूं और चावल जैसी प्रमुख उपज की खरीद में भारी गिरावट आई है, जिससे किसान निजी व्यापारियों और कंपनियों की दया पर निर्भर हो गए हैं। यह मुद्दा, कर्ज़दारी के संकट के साथ, सत्तारूढ़ दल को परेशान कर रहा है – और उसके पास इसका कोई जवाब नहीं है।
यह मुद्दा सभी राज्यों में फैला हुआ है, खासकर उन राज्यों में जहां किसान आंदोलन का गहरा प्रभाव था। पहले चरण में इससे बड़ी संख्या में किसान-मतदाताओं के प्रभावित होने की पूरी संभावना है। आगे के चरणों में भी यह मुद्दा बना रहेगा।’
तमिलनाडु, उत्तराखंड और उत्तर-पूर्व राज्यों को छोड़कर, पहले चरण के मतदान की बिखरी हुई प्रकृति, इस चरण या आने वाले चुनावों में चलने वाली सामान्य चर्चा की कल्पना करने में मदद नहीं करती है। इनमें आर्थिक संकट, निरंकुश सरकार के खतरे, सत्ता बने रहने के लिए धर्म और कट्टरता का बढ़ता इस्तेमाल शामिल है। सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि और शेयर बाजार की ऊंचाई के आंकड़ों पर सवार ‘विकसित भारत’ का सपना, जमीनी हकीकतों का मुकाबला करने में कामयाब होता नज़र नहीं आता है।