संजय पराते
सरकार अब माई-बाप है। वह कानून बनाती है, ताकि आम जनता इसके दायरे में रहे। लेकिन इस कानून को मानना या न मानना, उसकी मर्जी! इन कानूनों में भी इतने चोर दरवाजे जरूर रखे जाते हैं कि समाज का वह प्रभुत्वशाली वर्ग इसका आसानी से उल्लंघन कर सके, जिसके सहारे ये सरकार टिकी होती है। कॉर्पोरेट अडानी और मोदी-साय की डबल इंजन भाजपा सरकार के बीच यही रिश्ता है, जो हसदेव के मामले में साफ-साफ दिखता है।
हसदेव के स्थानीय आदिवासी समुदायों के जबरदस्त विरोध और इस विरोध को कमजोर करने के लिए प्रशासन द्वारा खनन प्रभावित गांवों की जबरदस्त घेराबंदी के बीच हसदेव अरण्य वन क्षेत्र में स्थित तीसरे कोयला ब्लॉक केते एक्सटेंशन में उत्खनन शुरू करने के लिए आज जन-सुनवाई हो रही है। यह जन सुनवाई भी उस गांव में हो रही है, जो खनन प्रभावित नहीं है और उस पर्यावरण प्रभाव आकलन रिपोर्ट के आधार पर की जा रही है, जो वर्ष 2019 की है और पर्यावरण मंत्रालय के नियमों के अनुसार ही, जिसकी कोई वैधता नहीं है। लेकिन अडानी की सेवा में मोदी-साय राज में कोई नियम-कायदे आड़े नहीं आते।
उल्लेखनीय है कि हसदेव अरण्य के जंगलों को ‘मध्य भारत का फेफड़ा’ कहा जाता है, जिसकी देश-दुनिया में जलवायु और पर्यावरण सुरक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका है। कॉर्पोरेट लूट के लिए आज ये जंगल अडानी के निशाने पर है और मोदी-साय राज की पूरी ताकत अडानी के साथ खड़ी है।
इसी क्रम में राज्यसभा सांसद संदीप पाठक द्वारा हसदेव अरण्य की कटाई के संबंध में पूछे गए एक प्रश्न के उत्तर में केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री भूपेंद्र यादव के जरिए मोदी सरकार ने यह नया ज्ञान बघारा है कि पर्यावरण संतुलन को बनाए रखने के लिए हसदेव में पेड़ों की कटाई जरूरी है! इसके साथ ही उन्होंने यह जानकारी भी दी है कि हसदेव में पहले ही 94,460 पेड़ काटे जा चुके हैं, जिसकी एवज में 53,40,586 पेड़ लगाए गए हैं। अब 2,73,757 पेड़ और काटे जायेंगे। (देखें : दैनिक छत्तीसगढ़, 31 अगस्त 2024) इस प्रकार, हसदेव क्षेत्र में अडानी को कोयला उत्खनन के लिए अनुमति देने के लिए इतनी कसरत की जा रही है कि पर्यावरण संतुलन के लिए ही जंगलों को खतरा बताया जा रहा है। मोदी-साय राज में अडानीपरस्ती का इससे ज्यादा हास्यास्पद उदाहरण और कुछ नहीं हो सकता।
इन आंकड़ों को वैज्ञानिक शोध के आधार पर आसानी से चुनौती दी जा सकती है। भारतीय वन्य जीव संस्थान के अनुसार, हसदेव के वन क्षेत्र की सघनता प्रति हेक्टेयर 400 हैं। इसके आधार पर सरकार के इस दावे को ठुकराया जा सकता है कि चालू दो कोयला खदानों के लिए केवल 94,460 पेड़ ही काटे गए हैं। लगभग 4000 हेक्टेयर क्षेत्र में फैले दो खदानों के लिए पेड़ों की कटाई की वास्तविक संख्या 16 लाख तक पहुंचती है, जबकि मोदी सरकार केवल 6% पेड़ों की कटाई की बात ही स्वीकार कर रही है। इसी प्रकार, प्रस्तावित केते एक्सटेंशन परियोजना लगभग 1750 हेक्टेयर वन क्षेत्र में फैली हुई है, जहां पेड़ों की संख्या का वास्तविक अनुमान 7 लाख है, लेकिन सरकार केवल 2,73,757 (39.11%) पेड़ों की कटाई की ही घोषणा कर रही है। स्पष्ट है कि वास्तविक वन विनाश को छुपाने के लिए ही पेड़ों की कटाई के फर्जी आंकड़े पेश किए जा रहे हैं।
इस वन विनाश की भरपाई के लिए वृक्षारोपण के नाम पर दिए जा रहे आंकड़े भी इतने ही फर्जी हैं। वैज्ञानिक तरीके से एक एकड़ में अधिकतम 2000 पौधों का रोपण हो सकता है। पीईकेबी खदान के लिए पेड़ों की कटाई से हुए नुकसान के लिए जिन 53.40 लाख से अधिक पौधों को लगाने का दावा किया जा रहा है, उसके लिए न्यूनतम 2670 एकड़ (लगभग 1,168 हेक्टेयर) भूमि की जरूरत होगी। ये पेड़ कहां लगे हैं, खनन प्रभावित लोगों को नहीं मालूम। मोदी सरकार बताने के लिए तैयार नहीं, ताकि कोई स्वतंत्र एजेंसी सरकार के इस दावे की जांच पड़ताल कर सके! पौधारोपण के इसी अनुपात का पालन किया जाए, तो केते एक्सटेंशन के लिए पेड़ों की कटाई से होने वाले पर्यावरणीय नुकसान की भरपाई के लिए इस सरकार को 1.55 करोड़ पौधे लगाने होंगे। इसके लिए कम से कम 7750 एकड़ भूमि (लगभग 3100 हेक्टेयर) की जरूरत पड़ेगी। यह भूमि कहां से आयेगी, इस पर भी सरकार मौन है। कथित वृक्षारोपण का पूरा मामला एक बड़ा गड़बड़झाला है।
वैसे इस सरकार को इतना भी ज्ञान नहीं है कि पेड़ नहीं, बल्कि पौधों का रोपण होता है, जो सही देखभाल के साथ दसियों साल बाद युवा होकर फल-फूल देने वाले पेड़ बनते हैं। वन क्षेत्र प्राकृतिक होते हैं और इसके आधार पर बनने वाली जैव-विविधता और पर्यावरण, पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण करती है। कथित वृक्षारोपण, जो दरअसल पौधा रोपण होता है, इस प्रकृति का और पेड़ों की कटाई से होने वाली पारिस्थितिकी के नुकसान की भरपाई नहीं कर सकती। हसदेव के जंगलों के विनाश के बदले किया जाने वाला कोई भी मानव निर्मित जंगल देश-दुनिया की पारिस्थितिकी को बनाने वाले फेफड़े का निर्माण नहीं कर सकता।
केते एक्सटेंशन कोल ब्लॉक से निकलने वाला कोयला राजस्थान राज्य विद्युत उत्पादन निगम को दिया जाएगा। राजस्थान सरकार के अनुसार, उसे अपने कोयला आधारित पावर प्लांटों को चलाने के लिए हर साल लगभग 200 लाख टन कोयले की जरूरत है। लेकिन इससे केते एक्सटेंशन कोल ब्लॉक में उत्खनन का औचित्य सिद्ध नहीं किया जा सकता, क्योंकि उसकी जरूरत वर्तमान में चल रहे दो कोयला खदानों से पूरी हो जाती है। फिर, राजस्थान सरकार जिस गति से सौर ऊर्जा परियोजनाओं को बढ़ा रही है, 6 साल बाद कोयला आधारित बिजली पर उसकी निर्भरता पूरी तरह समाप्त हो जाने वाली है।
राज्यसभा में केंद्रीय मंत्री भूपेंद्र यादव का जवाब अडानी परस्ती का एक नमूना है। केते एक्सटेंशन का कोयला राजस्थान सरकार की जरूरत के लिए नहीं, बल्कि आदमी की तिजोरी के लिए जरूरी है, जिसने पिछले दस सालों में वर्तमान में चालू दो खदानों से ही 28000 करोड़ रुपयों की कोयला चोरी की है।
(संजय पराते अखिल भारतीय किसान सभा से संबद्ध छत्तीसगढ़ किसान सभा के उपाध्यक्ष हैं।)