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प्रगति का मूलभूत आधार संकल्प है

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      राजेंद्र शुक्ला, मुंबई 

       मानसिक संरचना की दृष्टि से प्रायः सभी मनुष्य समान स्थिति के होते है। जन्मजात रूप से विशिष्ट प्रतिभा का चमत्कार जब कभी अपवाद रूप में देखा जाता है। प्रगतिशीलता किसी भी स्तर की क्यों न हो  वह अपने ही लगन भरे प्रयत्नों से प्राप्त करनी पड़ती है। 

      जन्म से कोई डाक्टर, वकील, प्रोफेसर, इंजीनियर आदि की विशेषता साथ लिए पैदा नहीं होता। इन्हें अर्जित करने के लिए सिखाने वाले विद्यालयों में भर्ती होना पड़ता और व्यावहारिक अनुभव सिखाने वाले के मार्गदर्शन में तब तक अनुभव अर्जित करना पड़ता है, जब तक कि उस विषय में कुशलता उपलब्ध न कर ली जाय। 

      इसमें सिखाने वालों का जितना श्रेय है, उससे अधिक सीखने वाले की दिलचस्पी, लगन और मेहनत का है। यदि ऐसा न होता तो एक ही विद्यालय में एक ही शिक्षण क्रम के अन्तर्गत रहने वाले छात्रों में से कुछ उत्तीर्ण और कुछ अनुत्तीर्ण क्यों हो जाते ? प्रतिस्पर्द्धाओं में प्रायः वे ही उत्तीर्ण होते हैं, जो निर्धारित विषय की परिपूर्ण तैयारी में जुटे रहते हैं। 

      नकल टीप के आधार पर, धन, रिश्वत आदि के सहारे जो किसी प्रकार उत्तीर्ण भी हो जाते हैं उन्हें तब भारी कठिनाई का सामना करना पड़ता है, जब सौंपे हुए कार्य को ठीक प्रकार से नहीं कर पाते और अक्षमता के कारण पदोन्नति की दिशा में आगे बढ़ ही नहीं पाते।

      मस्तिष्कीय संरचना ऐसी है, जिसे काम देने और उत्साह भरे साहस के आधार पर विकसित होने का अवसर दिया जाय तो वह आशातीत गति से बढ़ता है, पर यदि उसका उपयोग न किया जाय तो सीलन में पड़े रहने वाले चाकू की तरह उसकी धार भोथरी हो जाती है और जंग चढ़कर निकम्मे स्तर का बना देती है। 

      इच्छा शक्ति की महत्ता गाते-गाते मनोवैज्ञानिक थकते नहीं। संकल्प को प्रगति का मूलभूत आधार माना गया है। दिलचस्पी लेने वाले सम्पर्क परिकर से ही इतना कुछ सीख लेते हैं जितना कि उपेक्षा वृत्ति वाले हजार कोशिश करने पर भी सीख नहीं पाते ।

      संसार में असंख्यों व्यक्ति ऐसे हुए हैं जिन्हें किसी प्रकार साङ्गोपाङ्ग प्रशिक्षण प्राप्त करने का अवसर नहीं मिला। सहायता करने वालों का भी कोई संयोग न बैठ सका, पर अपनी प्रबल उत्कण्ठा के बल पर उपलब्ध साधनों का टूटा-फूटा आश्रय लेकर ही आगे बढ़ते रहे।

       उत्कण्ठा का चुम्बकत्व अभीष्ट स्तर का आकर्षण बनाये रखता है और जहाँ-जहाँ से अपनी बिरादरी के बिखरे कणों को समेट-बटोर कर अपने ज्ञान भण्डार में भर लेता है। वैज्ञानिक आविष्कारकों में से कितने ही ऐसे हुए हैं, जिन्हें अपनी कल्पना, दिलचस्पी और मेहनत के आधार पर अनेकों प्रयोगों का त्याग करना पड़ा और अनेकों बार असफलता प्राप्त करने के उपरान्त भी निराश न होने तथा सतत प्रयास करते-करते शानदार सफलता मिली।

      जेल के एक कैदी से लेखक को यह जानने का अवसर मिला कि उसने बचे हुए समय का उपयोग लोहे के तसले को स्लेट  बनाकर कंकड़ों से पेन्सिल का काम लेते हुए साथियों में से जो कुछ जानते थे उनसे पूछ-पूछ कर अग्रेजी पढ़ना-लिखना सीख लिया।

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