डॉ. प्रिया मानवी
‘असतो मा सद गमय.
तमसो मा ज्योतिर्गमय.
मृत्योर्मामृतं गमय.’
असत्य से सत्य, अंधकार से प्रकाश और मृत्यु से जीवन की ओर चलो.
~वृहदारण्यक- उपनिषद.
क्या ऐसा नहीं प्रतीत होता, ये पंक्तियां किसी आधुनिक दार्शनिक कवि की हैं? लेकिन नहीं, यह तो ईसापूर्व तकरीबन आठ सौ या हज़ार वर्ष पूर्व के किसी कवि की है, जो अपने बाज़ू में बैठे शिष्यों को जिंदगी के मर्म बता रहा है।
ये वृहदारण्यक-उपनिषद की पंक्तियां हैं। आरण्यक और उपनिषद के मेल से अरण्यकोपनिषद शब्द बना है और अपने में वृहद् उपसर्ग जोड़ कर यह वृहदारण्यक-उपनिषद बन जाता है।
ऋग्वेद से शब्दों की जो क्रांति आरम्भ हुई थी, वह उपनिषदों के अवतरण के साथ थम गयी। आप कह सकते हैं, ख़त्म हो गयी। उपनिषदों के ज्ञान को वेदांत कहा जाता है। वेदांत अर्थात ‘वेदस्य अन्तः ‘ – वेदो का अंत। यह वेदों का अंत क्या है? इसकी नाना प्रकार की व्याख्या हैं।
सबके अपने तर्क हैं। लेकिन मुख्य प्रश्न तो यह है ही कि क्या उपनिषदें वेदों के विरुद्ध खड़ी हैं? शायद नहीं। दोनों के विचारों में गहरे मतवैभिन्य अवश्य है; जिस पर हम आगे बात करेंगे। लेकिन उपनिषदें उस ज्ञान की कड़ी या लड़ी में ही है, जिसका आरम्भ वेद से हुआ था।
ब्राह्मण, आरण्यक होते हुए यह उपनिषद तक आया, और फिर ख़त्म हो गया। मैं कहना चाहूँगा एक खास तरह के वैदिक ज्ञान-आंदोलन, अथवा एक सांस्कृतिक सिलसिले का अंत हो गया। यही वेदांत है। वेदांत के रूप में उपनिषदें वेदों से पृथक नहीं, बल्कि उसका हिस्सा हैं।
जब हम किसी बात की प्रस्तावना करते हैं, तब उसका विरोध होता है, और फिर कोई तीसरी बात वजूद में आती है। यह विरोध और तीसरी बात प्रस्तावना से विलग नहीं है, उसके सिलसिले में है। जीवन और विचारों का नैरंतर्य ऐसे ही चलता है। कोई चीज अचानक टपक नहीं जाती है।
उसके कारण तत्व होते हैं। उपनिषदों का इसी रूप में वेदों से सम्बन्ध बनता है।
वेद चार हैं। लेकिन उपनिषदों की संख्या 108 है। इनमें से 10 उल्लेखनीय हैं :
*ईश-केन-कठ-प्रश्न-मुण्ड-माण्डूक्य-तैत्तिरीय.*
*ऐतरेय-च-छान्दोग्य वृहदारण्यक-तथा.*
यानी मुख्य उपनिषद हैं – ईश्वास्योपनिषद, केनोपनिषद, कठोपनिषद, प्रश्नोपनिषद, मुण्डकोपनिषद, माण्डूक्योपनिषद, तैत्तिरीयोपनिषद, ऐतरेयोपनिषद, छान्दोग्योपनिषद और वृहदारण्यकोपनिषद।
आठवीं ईस्वी सदी के दार्शनिक शंकराचार्य ने अपने ख्यात ग्रन्थ ‘ब्रह्म-सूत्र’ में इन दस के अलावा श्वेताश्वतरोपनिषद भी शामिल किया है। उपनिषदें ही वह भारतीय ज्ञानागार है, जिनसे यूरोपीय बुद्धिजीवी उन्नीसवीं सदी में प्रभावित हुए और उनकी रूचि प्राच्य विद्या में बढ़ी। इसकी भी छोटी-सी एक कहानी है, जिसका एक छोर मुगल राजदरबार को छूता है।
सतरहवीं सदी में बादशाह शाहजहां का बड़ा बेटा शहजादा दारा शिकोह (1615-1659 ) तुलनात्मक धर्म-दर्शन का विद्वान था। संस्कृत पर भी उसकी पकड़ थी। वह अपनी किताब मजमा-उल-बहरैन अर्थात दो समुद्रों की कहानी (अपने संस्कृत अनुवाद में “समुद्र -संगम”) के लिए चर्चित है। उसकी रूचि उपनिषदों में थी।
उसने भारत भर के ऐसे विद्वानों को आमंत्रित किया जो उपनिषदों का अनुवाद पर्शियन में कर सकें। 1656 -57 में एक सामूहिक प्रयास से चुने हुए पचास उपनिषदों का अनुवाद पर्शियन में हुआ। यह अनुवाद यूरोप पहुंचा।
1801-02 में इसी के आधार पर एक्वेटिल डुपेरोन ने इसका लैटिन अनुवाद ‘औपनिखत’ शीर्षक से किया। इसके साथ ही पश्चिम में उपनिषद की चर्चा तेजी से होने लगी। जर्मन दार्शनिक शोपेनहावर की वैचारिक जड़ें उपनिषदों के ज्ञान में थी।
मैक्समूलर, रोमा रोलां, हरमन हेस जैसे सैंकड़ों लेखक बुद्धिजीवी और दार्शनिक उपनिषदों से प्रभावित हुए। भारत में राजा राममोहन राय, रामकृष्ण परमहंस और विवेकानंद उपनिषदों के ज्ञान से खासे प्रभावित थे।
इस तरह यह उपनिषद पुरानी और नयी दुनिया को, पूरब और पश्चिम को एक चेतना के डोर से बांधती है। या कहें सम्पूर्ण मानव जाति को एक सूत्र में बांधती है।
छान्दोग्योपनिषद का एक अंश
उपनिषद के मायने क्या? इसका मतलब और अर्थ निकालने में खाये-अघाये भारतीय बुद्धिजीवियों को हमेशा मन लगता रहा है। इस अर्थ-विलास में उतरने की हमारी कोई इच्छा नहीं है। लेकिन मूल अर्थ तो जानना ही होगा।
उपनिषद तीन शब्दों के मेल से बना है, जिनके अर्थ हमें इसके मूलार्थ तक ले जाते हैं। ‘उप’ यानि निकट, ‘नि’ यानि नीचे और ‘सद’ यानि बैठना। इसमें मूल चीज बस सद है, क्योंकि उप और नि यहां केवल उपसर्ग हैं।
उपनिषद यानि ‘नीचे निकट बैठना’। किसके निकट और किसके नीचे बैठना? तो यह गुरु ही हो सकता है। शंकर के अनुसार ‘सद’ का अर्थ मुक्त करना या विनष्ट करना है। ‘मुक्त करना’ तो समझ में आता है। लेकिन ‘विनष्ट करना’ के क्या मतलब हो सकते हैं?
यहां उलझन होती है। यह उलझन हमें एक प्रसंग का स्मरण कराती है, जिसका उल्लेख छान्दोग्य-उपनिषद में है।
उपनिषदों के एक मशहूर दार्शनिक-विचारक उद्दालक आरुणि ने अपने विद्वान बेटे श्वेतकेतु से कहा – बरगद का एक फल लाओ।
श्वेतकेतु फल ले आया।
पिता ने उसे काटने के लिए कहा।
बेटे ने काट दिया।
पिता ने पूछा- तुमने क्या देखा?
श्वेतकेतु ने कहा- अनेक सूक्ष्म बीजों को देख रहा हूँ।
पिता ने केवल एक बीज चुन कर अलग करने के लिए कहा।
जब बीज अलग कर लिया गया, तब पिता ने उस एक सूक्ष्म-से बीज को काटने के लिए कहा।
जब श्वेतकेतु उसे काट चुका, तब पिता ने फिर पूछा- अब तुम क्या देख रहे हो?
बेटे ने कहा- अब कुछ भी नहीं देख रहा हूँ .
तब दार्शनिक पिता ने विद्वान बेटे से कहा- बेटे, जिसे तुम नहीं देख रहे हो, वही सत्य है। इसी सत्य से विशाल बरगद का वृक्ष उमगता है। इसी तरह ब्रह्माण्ड का मूल आत्मा है। वह सूक्ष्म और नहीं दिखने लायक है, लेकिन परम सत्य वही है।
किसी चीज को तोड़ कर, विनष्ट कर हम सत्य तक पहुंच सकते हैं, यह कहानी इसी ओर संकेत करती है।
उपनिषदों के ज़माने तक ज्ञान-विमर्श आरम्भ हो गया था। ऋग्वैदिक ऋषि किसी विमर्श का संकेत नहीं देते। वेदों के बारे में यह मान्यता है कि इसे किसी ने रचा नहीं, अनादि-काल से वे ध्वनियाँ अंतरिक्ष में गूंज रही थीं। ऋषियों ने उनका श्रवण किया और बस रख दिया।
लेकिन उपनिषद सनातन या अपौरुषेय राग-रागनियों का वृतांत नहीं है, इस का सबकुछ विमर्श से हासिल हुआ है। यह विमर्श हमेशा प्रिय ही नहीं होता था। उपनिषदों के एक प्रमुख चिंतक-विचारक याज्ञवल्क की शिष्या गार्गी ने जब प्रश्न उछाला कि जब ब्रह्म स्वयंभू है, तब मैं क्यों नहीं?
तब उसे जीभ काट लेने की गुरु द्वारा ही धमकी मिली। बावजूद इन सबके उपनिषद-विमर्श ठस और रूढ़ हो चुके वैदिक ज्ञान को पीछे धकेलता हुआ विमर्श की ताज़ी हवा के नए झोंके लाता है। निःसंदेह वैदिक आस्था को यह बार-बार ध्वस्त करता है, मानों उनका प्रतिपक्ष हो।
अंततः वेदों को अपदस्थ कर यह मुख्य ज्ञान-पक्ष के रूप में आसीन हो जाता है और द्वंद्वात्मकता का उदाहरण बन जाता है। पक्ष और प्रतिपक्ष अभिन्न होते हैं, तो वेद और उपनिषद भी हैं, लेकिन यह हमारी ज्ञान परंपरा को बांधते नहीं, सिलसिले के रूप में आगे बढ़ा देते हैं। इसलिए उपनिषदों का अपना महत्व है और रहेगा।
ऋग्वेद के ज्ञान-आयाम भौतिक हैं। अनेक प्रकार के देवता। देव्-प्रमुख इंद्र, सोमरस, यज्ञादि, लड़ाई-झगडे़, युद्ध, ईर्ष्या-डाह, दूसरे पक्ष को कुचल देने का बार-बार आह्वान यही सब ऋग्वेद के वृत्तांत हैं। लेकिन उपनिषद-काल की दुनिया सर्वथा विलग है।
कोई लड़ाई-झगड़ा नहीं, कोई इंद्र या देवता नहीं, कोई यज्ञ नहीं। सोमरस भी अनुपस्थित। केवल और केवल ब्रह्म-चिंतन। अथातो ब्रह्म जिज्ञासा- ब्रह्म की जिज्ञासा शुरू होती है- यहीं से उपनिषदों का आरम्भ होता है। जिज्ञासा और संवाद इसके मुख्य अवयव हैं।
पूरे उपनिषद चिंतन में बाह्य की उपेक्षा है। सारा ध्यान अंतर जगत, जिसे आत्मा कहा गया है, पर है। यह अपने भीतर डूबने, कुछ खोजने और उससे भी अधिक सोचने के लिए प्रेरित करता है। यहां इंद्र की जगह ब्रह्म प्रमुख है, जो खाता-पीता कुछ नहीं। वह आत्मा के रूप में हमारे अस्तित्व के दायरे में है, बल्कि हमारे सम्पूर्ण वजूद का केन्द्रक है।
वह सत, चित और आनंद है। उसे हम देख नहीं सकते, लेकिन अनुभव कर सकते हैं।
उपनिषदें बार-बार भौतिक-जगत की निस्सारता और अंतर्जगत की श्रेष्ठता को रेखांकित करता है। जो कुछ है, वह तुम्हारे भीतर है, और तुम इसे अपने प्रयासों से हासिल कर सकते हो। पुरोहितों, यज्ञ-अनुष्ठानों और यहां तक कि देवताओं की भी इसमें कोई भूमिका नहीं है।
ये तमाम वैदिक कर्मकांड बेकार हैं। भारतीय धर्म-दर्शन के व्याख्याताओं में से एक सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने उपनिषदों को इस रूप में देखा है- “उपनिषदों में हमें खोखले और बेकार कर्मकांडी धर्म की आलोचना मिलती है। यज्ञों का स्थान गौण हो जाता है।
उनसे अंतिम मुक्ति नहीं मिलती। वे व्यक्ति को पितरों के लोक में ले जाती है, जहां से निश्चित अवधि के बाद पुनः पृथ्वी पर लौटना होता है। जब सभी वस्तुएं ईश्वर की हैं तो उसे अपनी इच्छा और अपने अहम के सिवा कोई अन्य वस्तु समर्पित करने में कोई तुक नहीं है। यज्ञों की नैतिक व्याख्या की गयी है।
जीवन के तीन काल सोम की तीन आहुतियों के स्थान ले लेते हैं। यज्ञ ‘पुरुषमेघ’ और ‘सर्वमेघ’ जैसे आत्मनिग्रह के कार्य बन जाते हैं जिनमें सर्वस्व-दान और सर्वस्व-त्याग का आदेश है। उदहारण के लिए वृहद्-आरण्यक उपनिषद अश्वमेघ यज्ञ के एक विवरण से आरम्भ होती है और उसकी व्याख्या समाधि के रूप में करती है, जिसमे व्यक्ति अश्व की जगह सम्पूर्ण विश्व को समर्पित करता है और संसार-त्याग द्वारा लौकिक प्रभुता की जगह आत्मिक स्वतंत्रता प्राप्त करता है।
प्रत्येक होम में ‘स्वाहा’ कहा जाता है, जिससे अभिप्राय स्वत्व के हनन, अर्थात अहम के त्याग से है।
~उपनिषदों की भूमिका, पृष्ठ 48 -49
उपनिषदों का रचना काल 1000 और 800 ईसापूर्व के बीच का माना गया है। अधिक से अधिक यह 600 ईसापूर्व हो सकता है।
उत्तरभारतीय इतिहास का यह ऐसा समय था, जब आर्य-संस्कृति अर्थात उनकी यज्ञ-संस्कृति का अच्छा-खासा विस्तार हो चुका था। पंजाब के इलाकों से पूरब की तरफ बढ़ते हुए, वे गंगा-यमुना के इलाकों में फैलते जा रहे थे। अनार्यों का श्रेणी विभाजन इनके यहाँ वर्ण-विभाजन के रूप में विकसित हो रहा था।
आर्यों के बीच आपसी कलह भी शुरू हो चुकी थी। उत्तरी भारत में उन दिनों छोटे-छोटे गणराज्य विकसित हो रहे थे। इनके मुखिया पुरोहित नहीं, अपितु खेतिहर(खत्तिय) समुदाय के मुखिया होते थे, जिन्हें राजन या राजन्य कहा जाता था। धर्म और पुरोहितों से सामंजस्य करने के लिए इन राजन्यों को यज्ञ करने होते थे। इन कर्मकांडों में किसानों की कमाई का स्वाहा होता रहता था।
इसे लेकर उत्पादक श्रमण-समूह और परजीवी पुरोहित-समूह में विवाद आरम्भ हो चुका था। किसान और दस्तकार सीधे तौर तो कोई विरोध दर्ज़ नहीं करते, लेकिन इनके मुखिया राजन्य करते हैं। धीरे-धीरे ब्राह्मणों और राजन्यों का संघर्ष बढ़ने लगता है। महत्वपूर्ण यह कि यह सब वैचारिक धरातल पर होता है।
इसी वैचारिक-संघर्ष की छवियां इन उपनिषदों में दिखती हैं। इंद्र सहित सभी देवी-देवताओं की उपनिषदों में उपेक्षा है। यज्ञादि कर्मकांडों के प्रति एक लापरवाही और सब से बढ़ कर जीवन और जगत के संबंधों पर सवाल दर सवाल यहाँ मिलते हैं। जनक यज्ञ करते हैं, लेकिन यज्ञों के प्रति उपेक्षा भी दिखलाते हैं।
वैदिक शब्दावलियों के नए अर्थ पेश करते हैं। जैसा कि राधाकृष्णन ने बताया है कि स्वाहा को स्व अथवा अहम के हनन के रूप में रखा।
उपनिषदों के मूल में ब्रह्म है, जो बृह धातु से बना है, और जिसका मतलब है बढ़ना। ऋग्वेद में यह शब्द है, लेकिन पवित्र ज्ञान और वाणी के अर्थ में। ब्रह्मसूत्र वाले शंकर इसकी व्युत्पत्ति वृहति से मानते हैं, जिसका अर्थ है आगे निकल जाना।
मध्वाचार्य इसे गुण-पूर्ण (बृहन्तो ह्मस्मिन गुणाः ) स्वीकार करते है। इस तरह नाना प्रकार से इसकी शाब्दिक व्याख्या की गयी है। लेकिन इतिहास के लिए तो यह एक ऐसी शक्ति है, जिसने वैदिक कर्मकांडों की सैद्धांतिकी को ध्वस्त कर दिया।
इसी ब्रह्म से ऋग्वैदिक इंद्र को अपदस्थ किया जाता है। मूल रूप से यह ‘ब्रह्म’ राजन्यों के दिमाग की उपज थी। माना जा सकता है कि ब्राह्मण पुरोहितों के भौतिकवादी सोच और खाने-पीनेवाले तथा रमणियों के बीच अल्हड और कुछ-कुछ लम्पट से दिखने वाले विलासी-अभिलाषी देवता इंद्र की जगह जब कुछ भी नहीं ग्रहण करने वाले ब्रह्म के चेतना-स्वरुप को रखा गया तब वैदिक ज्ञान पछाड़ खा गया।
यह ज्ञान क्षेत्र में ब्राह्मण-पुरोहितों के पिछड़ने और राजन्यों के आगे आने की सूचना भी देता है। अनेक ब्राह्मण पुरोहितों ने राजन्यों के ब्रह्म-ज्ञान के समक्ष स्वयं को समर्पित कर दिया। वृहदारण्यक-उपनिषद के अनुसार याज्ञवल्क ने जनक के दरबार में जगह बना ली, तो काशी के राजा अजातशत्रु के दरबार में एक दूसरे ब्राह्मण पुरोहित बालाकि ने।
छान्दोग्य-उपनिषद की सूचना के अनुसार पंजाब के राजा अश्वपति कैकेय का दरबार ब्राह्मण पुरोहितों से भर गया था। मध्यदेश के प्रवाहण जैबलि का भी यही हाल था। इन सब से ऐसा लगता है कि ब्राह्मण और राजन्यों की वैचारिक लड़ाई जल्दी-ही थम गयी थी। विद्वान दार्शनिक और ब्रह्मज्ञानी राजन्यों के नेतृत्व को ज्ञानी ब्राह्मणों ने स्वीकार लिया। उद्दालक आरुणि, याज्ञवल्क, श्वेतकेतु, शांडिल्य आदि ने राजन्यों के ब्रह्मज्ञान को अपने विमर्श से मांज कर नयी ऊंचाइयां भी दी।
भारत के वैचारिक-दार्शनिक क्षेत्र में संघर्ष और एकता का यह सिलसिला चलता ही रहा है। केवल कट्टरतावादी इस सिलसिले को पसंद नहीं करते। अच्छी बात यह है कि कट्टरतावादी जल्दी ही पिट जाते हैं।
उपनिषदें बताती हैं कि सभी अस्तित्वों को आत्मा में, और आत्मा को सभी अस्तित्वों में देखना चाहिए। जीवन और जगत के प्रति यह दृष्टिकोण हमें समदर्शी बनाता है।
इसी दृष्टिकोण को बादरायण, शंकराचार्य , रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य और वल्लभाचार्य ने अपनी टीकाओं और भाष्य में अनेक प्रकार से प्रतिपादित किया है। वेदांत उपनिषदों की शिक्षा का सार-संक्षेप है।
सब ने यही कहा है कि ब्रह्म का अर्थ है सत्य का सत्य – ‘सत्यस्य सत्यम’। जो दिख रहा है, वह मुख्य नहीं है, जो नहीं दिख रहा, वह मुख्य है।
सब मिला कर देखे तो उपनिषदों का यह विचार-आंदोलन और उसका समय, प्राचीन भारत के प्रबोधन-काल की तरह लगता है। इस आंदोलन ने एक ऐसी वैचारिक पृष्ठभूमि विकसित की, जिसपर हिंदुस्तान अब तक किसी न किसी रूप में चल रहा है।
इसकी क्रांति-चेतना इस रूप में थी कि इसने अध्ययन और श्रवण की उपेक्षा करते हुए चिंतन पर जोर दिया। आर्यों की वर्ण व्यवस्था, जो कि निश्चय ही अभी आरंभिक अवस्था में थी, में अध्ययन – श्रवण का विशेषाधिकार ब्राह्मणों के एक छोटे-से समूह में घिरता जा रहा था।
ऐसे में चिंतन पर जोर देकर उपनिषदों ने अध्ययन की सार्वजनिक उपेक्षा की। चिंतन कोई कर सकता है। वह शूद्र, स्त्री या फिर छान्दोग्य-उपनिषद के सत्यकाम जाबाल की तरह अज्ञातकुलशील भी हो सकता है, जिसकी माँ यह बताने में असमर्थ है कि उसका पिता कौन है।
यही वह विचारग्नि थी, जिस पर तप कर बौद्ध-जैन और मध्य-काल में निर्गुण संत-मत विकसित हुए। इसके आकलन हुए हैं, भविष्य में भी होंगे, लेकिन ऐसा लगता है, भारत उन दिनों एक नए रूप में उठ रहा था। और किसी खास इलाके या खास व्यक्ति के रूप में नहीं, सार्वजनिक आंदोलन के रूप में, जो सम्पूर्ण उत्तर भारत में फ़ैल गया था। वेदों का सांस्कृतिक विस्तार इतने बड़े भौगोलिक क्षेत्र में नहीं हुआ था।
पूरब के मिथिला में, जहां संभवतः कुछ ही समय पूर्व आर्यों की यज्ञ-संस्कृति का विस्तार हुआ था, जनक-याज्ञवल्क की जोड़ी पुरानी चेतना को चुनौती देने में लगी हुई थी, तो सुदूर पश्चिम पंजाब में अश्वपति कैकेय भिड़े हुए थे। मध्यदेश में प्रवाहण जैबलि और काशी में अजातशत्रु भी इसी ब्रह्म ज्ञान का प्रचार कर रहे थे। निश्चय ही इसमें अधिकांश स्थापित पुरोहित कुलों के नहीं थे।
यह कुछ आश्चर्यजनक है कि उपनिषदों में वर्ण-व्यवस्था पर बहुत जोर नहीं है, जिसके लिए हिन्दू धर्म की बाहर और भीतर से आलोचना होती है। शायद ‘वर्ण’ बाह्य दुनिया का विषय है और ‘ब्रह्म’ भीतरी दुनिया का।
उपनिषदों को ब्रह्म-चिंतन से फुर्सत ही नहीं मिलती। स्थूल और बाह्य के प्रति उसकी सतत उपेक्षा वर्णव्यवस्था के प्रति उसकी उपेक्षा के रूप में भी देखी जा सकती है। सभी प्राणियों में एक ही आत्मतत्व है की संकल्पना अथवा सिद्धांत अंततः समत्व की पृष्ठभूमि विकसित करता है। यह समत्व-भाव श्रेणीभेद और वर्णभेद के विपरीत है।
राधाकृष्णन लिखते हैं – “उपनिषदों के ऋषि जाति के नियमों से बंधे नहीं थे। आत्मा की सर्वव्यापकता के सिद्धांत को वे मानव-जीवन की चरम-सीमाओं में फैला देते हैं। सत्यकाम जाबाल यद्यपि अपने पिता का नाम नहीं बता पाता है, फिर भी उसे आध्यात्मिक जीवन की शिक्षा दी जाती है।
यह कथा इस बात का प्रमाण है कि उपनिषदों के रचयिता रीति-रिवाज के कड़े आदेशों से अधिक मान्यता उन दिव्य और आत्मिक नियमों को देते हैं, जो आज या कल के नहीं, बल्कि शाश्वत नियम हैं और जिनके बारे में कोई भी मनुष्य यह नहीं जानता कि उनका जन्म कैसे हुआ।
‘तत त्वम् असि’ ये शब्द इतने जाने-पहचाने हैं कि वे पूर्ण अर्थावबोध से पहले ही हमारे मन पर से फिसल जाते हैं।”
~ उपनिषदों की भूमिका -पृष्ठ -50
उपरोक्त सभी बातों से क्या निष्कर्ष निकलता है? पहला तो यह कि ऋग्वेद के दसवें मंडल का पुरुषसूक्त जिस चातुर्वर्ण की बात करता है, उसकी उपेक्षा उपनिषदों से ही आरम्भ हो जाती है।
ऋग्वैदिक पुरोहित और उपनिषद काल के राजन्य प्रायः आर्य ही हैं। इससे पता चलता है कि सभी आर्यों का वैचारिक नजरिया एक ही नहीं होता था। श्रेणी और वर्ग-वर्ण भिन्नता के आधार पर इनके विचारों में अंतर होता था। यानी विचार या दृष्टिकोण प्रजाति सापेक्ष नहीं होकर श्रेणी-वर्ग सापेक्ष होते थे।
उपनिषदों का दर्शन और विचार ऋग्वैदिक-संस्कृति के विरुद्ध एक मौन विद्रोह है। इस विद्रोह का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य अत्यंत दिलचस्प है। इसे जानने में हमारी रूचि होनी चाहिए।