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*भला इंसान चला गया!*

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प्रोफेसर राजकुमार जैन*

       साथी सीताराम येचुरी को गंभीर हालत में ऑल इंडिया इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेडिकल साइंसेस में भर्ती की खबर से परेशानी हुई‌ तो फौरन भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) की वेबसाइट पर खोजने की कोशिश की, खबरिया चैनलों पर भी टटोला, तो इंतकाल की खबर मिली। तकरीबन 45 साल पहले उनसे जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष रहे मरहूम डीपी त्रिपाठी जिनसे मेरी मुलाकात जब वे इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र थे, की मार्फत सीताराम से हुई थी।

अफसोस इस बात का भी है कि आखिरी मुलाकात गमी के मौके पर, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सचिव कामरेड अतुल  अंजान के इंतकाल के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के केंद्रीय कार्यालय ‘अजय भवन’ में हो रही श्रद्धांजलि सभा में हुई थी।  अतुल कुमार अंजान से जब वे लखनऊ विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष थे तारूफ हुआ था।  दोनों हिंदुस्तान के कम्युनिस्ट आंदोलन के पहली कतार के सिरमौर नेता थे। वे कट्टर कम्युनिस्ट थे और मैं  जिद्दी सोशलिस्ट हूं, इस बात को जानते हुए भी इन दोनों का व्यवहार अन्य कम्युनिस्टों से अलग तरह का ही था। इस कारण सोशलिस्टों  द्वारा जब कभी कोई सार्वजनिक कार्यक्रम आयोजित होता तो इन दोनों को बड़े अदब के साथ शिरकत करने के लिए बुलाया जाता था। साथी रमाशंकर सिंह का इसरार था की सीताराम को ग्वालियर में जरूर सुनना है।

इसी तरह अतुल कुमार अंजान की मार्फत भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के भूतपूर्व महासचिव मरहूम एबी वर्धन साहब को मधु लिमए सभागार तथा सेमिनार के उद्घाटन के मौके पर आईटीएम यूनिवर्सिटी ग्वालियर में  सुनने का मौका मिला था। वैसे तो साथी सीताराम के साथ कई मौके बेमौके पर हुई बातचीत की यादें हैं। परंतु उनके साथ संबंधों की गर्माहट की खासियत उनका विनम्रता से भरा व्यवहार, दूसरों का लिहाज, अदब दिखावे में नहीं हकीकत में उनकी शख्सियत की असलियत में झलकता था। एक उदारमना  होने के कारण निजी व्यवहार से लेकर  सियासी सोच में भी दिखाई देता था। अपनी हर तकरीर में वे सोशलिस्ट कम्युनिस्ट वामपंथी गोलबंदी की जरूरत की वकालत करते थे। वह पहले नेता थे जिन्होंने डॉक्टर लोहिया की वर्ग और वर्ण की नीति की अहमियत को कबूल करते हुए कहा था कि कम्युनिस्ट आंदोलन से इस संबंध में चूक हुई है।

हिंदुस्तान की सियासत में जाति का सवाल एक हकीकत है। साथी सीताराम और अनजान सोशलिस्ट कम्युनिस्ट एकता के पैरोकार थे,परंतु अफसोस के साथ लिखना पड़ रहा है कि जमीनी हकीकत कुछ और ही है। अधिकतर कम्युनिस्टों का सोशलिस्ट तहरीक और उनके मानने वालों से छत्तीस का आंकड़ा रहा। दबे छुपे उनका विरोध करने में पीछे नहीं रहे। साथी सीताराम को सच्ची ख़राज-ए-‘अक़ीदत यही है कि सोशलिस्ट कम्युनिस्ट एकता दिखावे में नहीं हकीकत में हो, ताकि अपने मुल्क को गुरबत, बेइंफी गैर-बराबरी, जुल्म ज्यादती, सांप्रदायिकता के दावानल से बचाकर  अमन चैन का माहौल बन सके। 

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