दुनिया में एक बार फिर से मंदी की आहट सुनाई दे रही है। अमेरिका से इसकी शुरुआत देखने को मिल रही है। इसकी आशंका इस बात से जताई जा रही है कि अमेरिका ने बीते शुक्रवार को बाजार बंद होने के बाद नौकरियों के आंकड़े जारी किए। इसके मुताबिक देश में जुलाई में लोगों को उम्मीद के मुताबिक नौकरियां नहीं मिलीं और बेरोजगारी दर तीन साल के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई। सोमवार को दुनियाभर के शेयर बाजारों में इसका असर दिखा। भारतीय सेंसेक्स में कारोबार के दौरान निवेशकों के 17 लाख करोड़ रुपए एक झटके में स्वाहा हो गए। जापान के शेयर मार्केट में इतिहास की सबसे बड़ी गिरावट देखने को मिली है। आइए- समझते हैं कि 1929 की महामंदी से यह मंदी कितनी अलग है और उस महामंदी की शुरुआत कैसे हुई थी।
1929 की गर्मियों के दिन थे, जब अमेरिका में मंदी की सुगबुगाहट शुरू हो गई थी। जुलाई आते-आते यह संकट और गहरा गया। इसका असर उस वक्त बाजारों दिखता, जब लोग आते और बिना कुछ खरीदे ही चले जाते। यह ट्रेंड इतना बढ़ा कि बाजारों में हर चीज का ढेर लग गया। फैक्ट्रियां बंद होने लग गईं। जबकि शेयर मार्केट इन सबसे बेपरवाह भागने लग गया था। फिर आखिर 24 अक्टूबर, 1929 को अमेरिका में इन सब बातों से परेशान निवेशकों ने जरूरत से ज्यादा बढ़े शेयरों को धड़ाधड़ बेचना शुरू कर दिया। शाम होते-होते रिकॉर्ड 1.29 करोड़ शेयरों की ट्रेडिंग की गई। उस दिन को ‘काला बृहस्पतिवार’ नाम दिया गया। भयानक बेरोजगारी और महंगाई के चलते आई इस मंदी की यादें आज फिर ताजा हो गईं, जब भारत में सोमवार को स्टॉक मार्केट खुलने के साथ ही निवेशकों के करीब 17 लाख करोड़ रुपए कुछ देर में ही स्वाहा हो गए। जापान के तो शेयर बाजार के इतिहास में सबसे बड़ी गिरावट हुई है। आइए- समझते हैं कि इस वक्त दुनिया में जिस तरह का माहौल है, उससे क्या यह मंदी 1929 की महामंदी जैसी साबित होगी। यह भी जानेंगे कि मौजूदा इजरायल-ईरान के बीच तनाव और रूस-यूक्रेन जंग जारी रहने के बीच शेयर बाजारों का टूटना कहीं तीसरे विश्वयुद्ध की ओर तो नहीं ले जा रहा है।
अमेरिकी बाजार में काला मंगलवार और ‘शनि’ की छाया
अमेरिका के वॉल स्ट्रीट में ब्लैक थर्सडे के पांच दिन बाद ही यानी 29 अक्टूबर को ही ब्लैक ट्यूजडे आ गया, जिसमें 1.6 करोड़ शेयर खरीदे-बेचे गए। वॉल स्ट्रीट पर अफरा-तफरी का माहौल बन गया। लाखों शेयर्स रद्दी के भाव बिके। जिन निवेशकों ने उधार लेकर थोड़े मार्जिन पर शेयर खरीदे थे, उन्हें मार्केट ने पलभर में भिखारी बना दिया था। उसी अमेरिका में एक बार फिर 1929 जैसी मंदी के आने का खतरा मंडरा रहा है, जिसकी जद में भारत समेत पूरी दुनिया हो सकती है।
जब अमेरिकी राष्ट्रपति का भरोसा भी काम नहीं आया
जब अमेरिका में महामंदी का दौर आया तो उस वक्त राष्ट्रपति हर्बर्ट हूवर थे। हूवर ने निवेशकों को भरोसा दिया कि हालात जल्द ही काबू में होंगे। मगर, हूवर के हाथ से हालात निकल चुके थे। मई, 1930 तक डाऊ सूचकांक तेजी से नीचे गिर गया। यह इतना गिरा कि 200 अंकों तक फिर से लौटने में उसे अगले 20 साल लग गए। उस मंदी की सबसे बड़ी वजह थी अनियंत्रित सट्टेबाजी और बैंकों से लिए गए बड़े कर्जे। क्योंकि उस वक्त अमेरिका पूरी दुनिया में पैसे बांट रहा था। ऐसे में उस वक्त अमेरिका में बेरोजगारी और महंगाई चरम पर पहुंच चुकी थी।
जब अमेरिका में ब्रेड और सूप के लिए लगीं लंबी लाइनें
1930 तक 40 लाख अमेरिकियों के पास नौकरियां नहीं थी। 1931 आते-आते यह संख्या 60 लाख हो गई। देश का औद्योगिक उत्पादन करीब 50 फीसदी गिर गया। ब्रेड और सूप के लिए सड़कों पर लंबी लाइनें लगने लगीं। न्यूयॉर्क और वॉशिंगटन में बेघर लोगों का जमावड़ा लगने लगा। किसानों ने खेती छोड़ दी। लोग सड़कों पर ही नजर आते। बेरोजगारी और गरीबी ने आम आदमी की कमर तोड़कर रख दी।
अमेरिका में मंदी, मगर शानो-शौकत में कमी नहीं
1932 तक अमेरिका की राष्ट्रीय आय में काफी गिरावट आ चुकी थी और करीब 1.5 करोड़ लोगों बेरोजगार हो गए। पूरे अमेरिका में निराशा का माहौल था। किंतु, राष्ट्रपति हर्बर्ट हूवर पूंजीवादी अमेरिकी व्यवस्था के ‘उन्मुक्त आर्थिक जीवन (Laissez faire)’ में सरकारी दखल के बिल्कुल खिलाफ थे। वह किसी भी तरह की शानो-शौकत में कमी नहीं लाना चाहते थे।
रूजवेल्ट की न्यू डील से संभला अमेरिका, पर जंग में फंसा
ऐसे में जब 1932 में अमेरिकी राष्ट्रपति का चुनाव हुआ, तब लाखों बेरोजगारों, आर्थिक तंगी से परेशान शहरी निम्न मध्य वर्ग के लोग और गरीब किसानों ने डेमोक्रेट उम्मीदवार फ्रैंकलिन रूजवेल्ट के पक्ष में भारी मतदान कर उसे विजयी बनाया। रूजवेल्ट ने तत्काल बेरोजगारों को राहत पहुंचाने और अर्थव्यवस्था को नई दिशा देने के लिए कई कानून पारित करवाए, जिसे ‘न्यू डील’ (New Deal) कहा जाता है।
मुद्रा संकट रोकने के लिये बैंकों को कुछ समय के लिए बंद कर दिया गया। बाद में जब वो खुले तो उनकी सख्त निगरानी की जाने लगी। मुद्रा का अवमूल्यन किया गया ताकि अमेरिकी खेतिहरों को अपनी फसलों के ठीक दाम मिल सके। 30 लाख युवाओं को नौकरियों में लगाया गया। 1935 में एक व्यापक ‘नेशनल सिक्योरिटी एक्ट’ पारित करके बेकारी, वृद्धावस्था, बीमारी या विकलांगता होने की स्थिति में राहत और पुनर्वास की व्यवस्था को अधिक कारगर किया गया।
अमेरिकी महामंदी का नतीजा क्या रहा
अमेरिकी महामंदी का नतीजा यह रहा है कि जब तक अमेरिकी अर्थव्यवस्था पटरी पर लौटी, इसने पूरी दुनिया को दूसरे विश्वयुद्ध की ओर झोंक दिया। 1939 तक अमेरिका से ज्यादातर कर्ज लेने वाले देश युद्ध में उतर आए। लंबे समय तक चली मंदी का असर पूरी दुनिया में इस कदर हुआ कि बेरोजगारी चरम पर पहुंच गई। घोर निराशावाद और कुंठा ने जन्म लिया। इसी का फायदा उठाकर जर्मनी में हिटलर, इटली में मुसोलिनी जैसे तानाशाह पनपे। उन्होंने पूरी दुनिया को दूसरे विश्वयुद्ध में झोंक दिया।
डस्ट बाउल यानी डर्टी थर्टीज का वो दौर
मंदी के दौर में अमेरिका के मध्य पश्चिमी और दक्षिणी मैदानों में पड़े सूखे के दौरान भीषण धूल भरे तूफान आने लगे। इसकी शुरुआत 1931 से हुई और यह सिलसिला आने वाले बरसों में भी कायम रहा। ये वो इलाका था, जहां गेहूं और मक्के की फसलें पैदा की जाती थीं। बार-बार आने वाले तूफान के चलते वहां पर अकाल पड़ने लगे। 1934 तक 3.5 करोड़ एकड़ की जमीन बिना खेती के बेकार हो गई। आने वाले कुछ समय में 12.5 करोड़ एकड़ जमीन ने अपनी पैदावार क्षमता खो दी। इसे ही डस्ट बाउल कहा जाने लगा।
क्या भारत पर इस मंदी का होगा असर
फाइनेंशियल एक्सपर्ट जितेंद्र सोलंकी के अनुसार, अमेरिका में मंदी की आहट का असर भारत पर भी देखने को मिल सकता है। हालांकि, भारत का घरेलू बाजार काफी बड़ा है। ऐसे में इस पर कम असर पड़ने की संभावना है। 2008 में अमेरिका में आई मंदी से पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था हिल गई थी, मगर भारत पर उसका ज्यादा असर नहीं पड़ा था। अमेरिकी मंदी का सबसे ज्यादा असर भारत के आयात-निर्यात पर पड़ सकता है। साथ ही भारत या अमेरिका में जहां भारतीय काम कर रहे हैं, उन्हें छंटनी का सामना करना पड़ सकता है। भारतीय निवेशकों पर इस बार पिछले के मुकाबले ज्यादा असर पड़ सकता है, क्योंकि भारत में भी लोग शेयर मार्केट में बड़ी संख्या निवेश कर रहे हैं।
अमेरिकी मंदी पर लिखी गईं ये किताबें
अमेरिका की महामंदी पर कई किताबें लिखी गईं। इनमें सबसे प्रसिद्ध हुई जॉन स्टीनबेक लिखित ‘द ग्रेप्स ऑफ राथ’ जो 1939 में प्रकाशित हुई थी। इसे साहित्य का नोबेल पुरस्कार भी मिला। उसी दौर में आईं पुस्तकें द ग्रेट डिप्रेशन (एलॉन बर्शेडर), ऑफ माइस एंड मैन (जॉन स्टीनबेक), टु किल ए मॉकिंगबर्ड (हार्पर ली) भी महामंदी की तस्वीर को अलग-अलग रूपों में प्रस्तुत करती हैं। इसी विषय पर मार्ग्रेट एटवुड के उपन्यास ‘द ब्लाइंड असेसिन’ को 2000 में बुकर पुरस्कार मिला। दो साल पहले डेविड पॉट्स ने ‘द मिथ ऑफ द ग्रेट डिप्रेशन’ किताब लिखी।