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इंडिया अलायंस के घटक दलों की एक दूसरे के प्रति आशा-प्रत्याशा

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प्रफुल्ल कोलख्यान

लोकसभा के लिए 2024 में हुए चुनाव के बाद विधानसभाओं के भी चुनाव संपन्न हुए। परिणाम भी आ गये। परिणाम की अलग-अलग और विरोधी व्याख्याएं की जा चुकी है। अपने-अपने निष्कर्ष निकले जा चुके हैं। लोकतंत्र है तो जाहिर है कि चुनाव होते रहेंगे, परिणाम आते रहेंगे, व्याख्याएं भी होती रहेंगी। राजनीतिक गतिविधियां भी चलती रहेंगी। राजनीतिक विशेषज्ञ और विश्लेषक की कयासबाजी चलती रहेंगी; अगर-मगर के साथ विश्लेषण जारी रहेगा। अगर-मगर की राह पर जीवन डगमग करते हुए डगरता रहेगा। तरह-तरह के गठबंधन बनते-बिगड़ते रहेंगे। ढाक के तीन पात का सिलसिला जारी रहेगा।

ढाक के तीन पात होते रहेंगे। न सूत, न कपास लट्ठमलट्ठा होता रहेगा। आम लोग बेहतर और सभ्य नागरिक जीवन की उम्मीद को बचाये रखने की कोशिश में जद्दोजहद करते रहेंगे। नये-नये भगवान प्रकट होते रहेंगे। जनता नेताओं को लड़वाती रहेगी। नेतागण जनता को हिंदू-मुसलमान करवाते रहेंगे। नेतागण जीतते रहेंगे और जनगण हारता रहेगा। रोजी-रोटी के सवाल हमेशा जवान बना रहेगा। राजनीतिक दलों की राजनीतिक गतिविधि नये सिरे से शुरू हो गई है। सभी राजनीतिक दलों कार्यकर्ताओं और नेताओं के अपने-अपने राजनीतिक स्वार्थ हैं; अपनी-अपनी-अपनी राजनीतिक दृष्टि है।

लोकसभा के चुनाव के बाद इंडिया अलायंस के घटक दलों की एक दूसरे के प्रति आशा-प्रत्याशा का मामला अब थिर हो चुका है। यहां तक कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के घटक दलों और खासकर जनता दल यूनाइटेड के नीतीश कुमार और तेलुगु देशम पार्टी (टीडीपी) के एन चंद्रबाबू नायडू के राजनीतिक खींचतान और इधर-उधर होने की संभावनाओं के अनुमान भी बैठ गये हैं। अगला लोकसभा चुनाव 2029 के पहले होने की कोई राजनीतिक परिस्थिति नहीं दिख रही है। कुल मिलाकर यह कि चुनावी उत्तेजना का समय समाप्त हो चुका है। लेकिन ध्रुवीकरण की राजनीतिक उत्तेजनाओं और उन्माद का दौर बचा हुआ है।

इंडिया अलायंस सत्ता में नहीं है तो सत्ता संभालने की जिम्मेवारी से भी फुरसत में हैं। इंडिया अलायंस की कड़ियां हिलडोल कर रही हैं। एक दूसरे को हिला-डुलाकर नये सिरे से आजमाने में लग गई हैं। इसी क्रम में तृणमूल कांग्रेस की ‘सुप्रीमो’ ममता बनर्जी ने इंडिया अलायंस का नेतृत्व अपने हाथ में लेने का इरादा व्यक्त किया है। इस में गलत कुछ भी नहीं है। लेकिन ममता बनर्जी के इरादों का विश्लेषण जरूरी है। इस के साथ ही इंडिया अलायंस के पीछे की कहानियों और गतिविधियों का भी विश्लेषण जरूरी है।

पहला सवाल तो यही है कि अचानक ऐसा क्या हुआ है कि ममता बनर्जी ने इंडिया अलायंस के नेतृत्व का इरादा व्यक्त कर दिया है, वह भी इंडिया अलायंस की बैठक में नहीं, बल्कि खुले आम मीडिया में। ममता बनर्जी की राजनीति को करीब से जाननेवाला बेझिझक कह सकता है कि उन की राजनीति में सकारात्मक ‘बांग्ला बोध’ अनिवार्य होता है। यह सिर्फ ममता बनर्जी की राजनीति का अंदरूनी लक्षण नहीं है, बल्कि भारत के सभी राजनीतिक दलों का सच है। जो भी हो आजादी के पहले के अखंड बंगाल और आजादी के बाद के पश्चिम बंगाल का भारत की राजनीति का महत्वपूर्ण योगदान रहा है।

ममता बनर्जी ने इंडिया अलायंस के संयोजक का दायित्व संभालने का जो प्रस्ताव दिया है वह महत्वपूर्ण है। इस के पहले नीतीश कुमार भी इंडिया गठबंधन भी के संयोजक की अन-औपचारिक भूमिका निभा रहे थे। फिर उन्हें इंडिया गठबंधन में अच्छा नहीं लगने लगा और वे पुनः नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के साथ हो लिये। राजनीतिक फायदा हुआ और आज वे और उन का जनता दल यूनाइटेड एनडीए सरकार में शामिल हैं।

जाहिर है कि वे इंडिया गठबंधन में भारत के लोकतंत्र के रास्ता के भटकाव को दूर करने और लोकतंत्र का सही परिप्रेक्ष्य देने के लिए एनडीए से बाहर निकलकर इंडिया गठबंधन में शामिल नहीं हुए थे। वे अपनी राजनीतिक सुविधा की तलाश में थे। 2024 में हुए लोकसभा के चुनाव परिणाम से उन्हें वह राजनीतिक सुविधा मिल गई। कुछ भी कहना मुश्किल है कि किसे कब, कहां और क्यों कुछ अच्छा नहीं लगने लगे और अच्छा लगने के लिए वह क्या कर बैठे।

भारत संघ और उस के विभिन्न संघटक राज्यों के बीच संसाधनिक विषमताओं से इनकार नहीं किया जा सकता है। सामाजिक क्षेत्र में जो विविधताओं के रूप में दिखता है वह संसाधनिक मामलों में विषमताओं के आवरण का काम करता है। विविधताओं में एकता की बात जितनी सुहावनी होती है, विषमताओं में एकता का सूत्र बनकर उतनी ही शोषणकारी होती है। भारत की संस्कृति और राजनीति के बीच ताल-मेल का मकसद संसाधनिक विषमताओं को नीतिगत उपायों से दूर करने के अलावा क्या हो सकता है!

यह सोचना तो होगा ही कि संसाधन कहीं और हो और राजस्व कहीं और हो यह खेल कितने दिनों तक जारी रह सकता है! भारत की स्थिति असंतुलित संयुक्त परिवार जैसी है गई है। असंतुलित संयुक्त परिवार बहुत दिनों तक साथ-साथ नहीं चल सकता है। विडंबना यह है कि संतुलनकारी सत्ता ही निर्लज्ज ढंग से असंतुलन के प्रति लापरवाह होती चली गई है। लगातार बढ़ते हुए असंतुलन की यह स्थिति न सिर्फ इलाकावार है बल्कि उन इलाकों की सामाजिक संरचनाओं में भी व्याप्त है।

असंतुलन और अन्याय एक ही स्थिति के दो चेहरे हैं। व्याख्या और विश्लेषण अपनी जगह और विक्षिप्त विवेक के कमाल अपनी जगह! कोई भी वचन प्रवीणता विक्षिप्त विवेक की दुष्टताओं को स्वीकार के योग्य नहीं बना सकती है। द्वेष का तो अर्थ ही होता है, ‘दो नजरों’ से देखना। भारत में तरह-तरह के द्वेषों के तरह-तरह के प्रभाव कहीं भी बहुत आसानी से पहचाने जा सकते हैं।

ममता बनर्जी को किस राजनीतिक सुविधा की तलाश है? हो सकता है कि वे भी इस समय भारत के राजनीतिक परिप्रेक्ष्य को सही करने के लिए इंडिया गठबंधन के संयोजक का दायित्व संभालना चाहती हों। इंडिया गठबंधन में उन का होना-दिखना उन की राजनीतिक की सहूलियतों पर निर्भर करता रहा है। पश्चिम बंगाल के बाहर चुनावी राजनीति या किन्हीं दुर्भाग्यजनक घटनाओं के समय उन्हें और उन के दल को जमीन पर सक्रिय देखना दुर्लभ दृश्य होता है। ममता बनर्जी की ही बात क्यों की जाये! इंडिया गठबंधन के अन्य घटक दलों की भी स्थिति यही है।

उदाहरण ढेर सारे हैं। फिलहाल संभल और अजमेर शरीफ दरगाह की राजनीतिक स्थिति पर इंडिया गठबंधन के घटक दलों की भूमिका देखी जा सकती है। यह मानने में अब कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) हो या इंडिया गठबंधन इन के घटक दलों का मुख्य सरोकार अपने और अपने-अपने राज्यों तक ही सीमित रह गया है और राष्ट्रीय सरोकार है भी तो अदृश्य ही है। संगठित और प्रवासी मजदूर मजदूरों की स्थिति की कष्टकर स्थितियों का अनुमान राजनीतिक विशेषज्ञ और विश्लेषकों की नजर में कितना होता है! यकीन के साथ कुछ भी कहना मुश्किल है!

इंडिया गठबंधन के प्रमुख घटक दलों की राजनीति और उन के राजनीतिक दायित्व को समझना जरूरी है। चाहे महाराष्ट्र के शरद पवार हों, बिहार के जनता दल यूनाइटेड और राष्ट्रीय जनता दल ही क्यों न हो इन की राजनीति स्वाभाविक कारणों से कांग्रेस विरोध की राजनीति में ही फली-फुली। जैसे भारतीय जनता पार्टी की राजनीति कांग्रेस विरोध की राजनीति में फली-फुली। अन्य राजनीतिक दलों और भारतीय जनता पार्टी के चरित्र में कुछ बुनियादी अंतर है, जो बहुत बड़ा अंतर है। इस अंतर के बावजूद कांग्रेस विरोध की राजनीति में भारतीय जनता पार्टी और इंडिया गठबंधन के दल एक साथ शामिल थे, खासकर 1975 में इंदिरा गांधी के शासन-काल में लगी इमरजेंसी के बाद उत्पन्न राजनीतिक परिस्थितियों में।

गैर-कांग्रेसी राजनीतिक दलों में भारतीय जनता पार्टी अकेली ऐसी पार्टी थी जो भारत के दक्षिण-द्वार पर दस्तक दिये बिना भी अपने राष्ट्रीय चरित्र का दावा कर सकती थी और आज भी कर सकती है। इस प्रसंग में यहां इतना ही कहना है कि सही या गलत कारणों से कांग्रेस विरोध की राजनीति ही भारत की चुनावी राजनीति का चरित्र रही है। हुआ यह कि क्षेत्रीय स्तर पर तो क्षेत्रीय दलों की राजनीति ने कांग्रेस की राजनीतिक जमीन तो ले ली, लेकिन उन की राजनीति का कोई राष्ट्रीय स्वरूप नहीं बन पाया; राष्ट्रीय स्वरूप बन पाता तो वे क्षेत्रीय दल क्यों कहलाती!

यहां यह भी ध्यान में रखना होगा कि क्षेत्रीय दल जिन राजनीतिक औजार और हथियार का इस्तेमाल खुले आम करती थी वे औजार और हथियार कांग्रेस के पास नहीं थे, हालांकि कांग्रेस कभी-कभार गुप-चुप तरीके से बिल्कुल स्थानीय स्तर पर कर लिया करती थी। लेकिन इस में उसे वैसी चमकदार सफलता नहीं मिला करती थी। इधर भारतीय जनता पार्टी ने मंडल आयोग की सिफारिशों के विरोध में ‘सोशल इंजीनियरिंग’ को साधते हुए ‘कमंडल’ की राजनीति के लिए जिस राजनीतिक औजार और हथियार का इस्तेमाल करना शुरू किया वह भी कांग्रेस की राजनीति के लिए बिल्कुल अनजाना था।

मंडल आयोग की सिफारिशों का वास्तविक लाभ कुछ शक्तिशाली जातियों और जाति नेताओं में सिमट कर रह जाने के कारण भारतीय जनता पार्टी ने ‘सोशल इंजीनियरिंग’ के तहत उन के असंतोष को उभारना और अपने पक्ष में वोट-बैंक बनाना शुरू कर दिया। नतीजा यह कि कांग्रेस की राजनीति की न क्षेत्रीय स्तर पर कोई जमीन बची न राष्ट्रीय स्तर पर कोई आकाश बचा। क्षेत्रीय स्तर पर राजनीतिक दलों ने भारतीय जनता पार्टी के साथ होने में अपनी राजनीतिक की सहूलियत हासिल कर ली। लेकिन पूर्ण बहुमत मिलते ही नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी की राजनीति का असली चेहरा सामने आने लगा।

विचारधारा की बात नहीं, संवैधानिक संस्थाओं को साधकर गैर-भाजपा दल के नेताओं के बांह मोमड़ने की राजनीति से क्षेत्रीय दलों को बहुत परेशानी होने लगी। इस परेशानी से तिल-मिलाकर ये राजनीतिक दल पस्त हाल कांग्रेस की तरफ देखने लगी। पस्त हाल कांग्रेस के पास न मजबूत राजनीतिक जमीन बची थी न ‘लोक-लुभावन’ आकाश बचा था! हालांकि, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की हत्या के बावजूद कांग्रेस के पास ‘राजनीतिक हवा’ बची रही। कहने का आशय यह है कि इंदिरा गांधी और राजीव गांधी जैसे नेताओं की हत्या के बाद तो कांग्रेस की राजनीतिक स्थिति हवा-हवाई हो गई।

‘प्राचीन-काल’ से ही सत्यमेव जयते नानृतं कहनेवाले, नवाचार की दुहाई देनेवाले, कण-कण में ईश्वर का एहसास करनेवाले, वसुधैव कुटुंबकम, आत्मवत सर्वभूतेषु के मर्म से जुड़े भारत में मिथ्या तत्व के सामने सत्य की, मृत-परंपरा के सामने नवाचार की, कुटुंब के अन्यीकरण आदि की क्या स्थिति है! कहने की जरूरत नहीं है। भारत की संसद ने ‘अयं बंधुरयं नेति गणना लघुचेतसाम्। उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।’ की उदारता को मर्यादा दी उस संसद में उदारता की जो हालत है वह छिपाये नहीं छिप सकती है।

ऐसे में प्रेमचंद याद आते हैं। नमक का दारोगा में प्रेमचंद ने दर्ज किया है कि ‘जहां पक्षपात हो, वहां न्याय की कल्पना भी नहीं की जा सकती।’ तो फिर आज के राजनीतिक यथार्थ में धर्म-धन के आधार पर किया जानेवाला पक्षपात कहां नहीं दिखता है? धर्म-धन के आधार पर ही नहीं अन्य आधार पर भी पक्षपात का नजारा भी कम नहीं दिखता है। राहुल गांधी क्या ‘नमक का दारोगा’ के ‘वंशीधर’ जैसे हो गये हैं! लगता है कि ऐसा नहीं है। ऐसा नहीं हो इस के लिए जिस राजनीतिक, सामाजिक वातावरण की जरूरत है उस के बनने के आसार बहुत कम हैं। ‘राज-काज’ संभालने का जनादेश हासिल कर लेनेवाले के मन में पक्षपात का पहाड़ होता है। हालांकि, राष्ट्र के समक्ष ‘शपथपूर्वक’ उन्हें कहना पड़ता है कि वे ‘भय या पक्षपात’, ‘राग या द्वेष’ के बिना अपना काम ‘शुद्ध अंतःकरण’ से करेंगे!

शपथ की अखंडता और अंतःकरण की शुद्धता को परखने की कोई उपयुक्त व्यवस्था पीड़ित जनता के पास नहीं है। संविधान के ‎‘शक्ति के पृथक्करण के सिद्धांत’ के अनुसार संस्थाओं के पास है। मुश्किल यह है कि संस्थाओं ने ‎‘शक्ति के पृथक्करण के सिद्धांत’ को व्यावहारिक स्तर पर ‘शक्ति के समक्ष समर्पण की सहूलियत’ में बदल दिया है। संस्कृति को मान्य है, ‘मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना। कुंडे-कुडे नवं पयः जातौ जातौ नवाचाराः नवा वाणी मुखे मुखे।’ लेकिन राजनीति का हृदय ‘मत्स्य न्याय’ के सिद्धांत से संचालित है।

‘नवा वाणी मुखे मुखे’ पर संसदीय ताला लटका हुआ देखकर भी आत्मा में कोई हलचल न होना राष्ट्र के कमजोर होने के लक्षण के अलावा और क्या हो सकता है! विडंबना यह है कि इस मामले में ‘राष्ट्र कमजोर’ और ‘राष्ट्रवाद आक्रामक’ दिखता है। भारत की संस्कृति-चेतना की शिराओं को घायल करते हुए ‘सांस्कृतिक-राष्ट्रवाद’ का जो स्वरूप दिखता है वह बहुत ही भयावह है। पूरी व्यवस्था ‘भय या पक्षपात के बिना’ नहीं, ‘भय और पक्षपात के साथ’ दिख रही है।

यह स्थिति क्यों और कैसे हुई? क्या इसे सांस्कृतिक विफलता माना जाना चाहिए या दक्षिण-पंथ की राजनीतिक सफलता माना जाना चाहिए! भारत में सांस्कृतिक संघर्ष निरंतर जारी रहा है। संघर्ष! किन के बीच में संघर्ष! संघर्ष बौद्ध और ब्राह्मण की सांस्कृतिक दृष्टि में। बहुत विस्तार से बात करना यहां संभव नहीं है। जीवन व्यवहार में तर्क-वितर्क की स्वीकृति को लेकर जबरदस्त संघर्ष रहा है। इस संघर्ष से संघर्ष के बहुत सारे सूत्र निकलते हैं।

इन सूत्रों ने सामाजिक संरचना बोध और व्यवहार में बारी उलझाव बना दिया है। ऐसी गुत्थियां की सुलझाये, न सुलझे! सूफी संतों के घुमा-फिराकर कई तरह से कह दिया, ‘जस केले के पात में, पात-पात में पात, तस ज्ञानी की बात में, बात-बात में बात’। बातूनी मिजाज के व्यवहार को भारत की राजनीति संवाद से सत्य तक पहुंचने के रास्ता को उलझावों में ही डाला है।

राजनीति में दो तरह के लोग सत्य के साथ होने का दावा करते हैं। एक तरह के लोग सत्य को टोकरी में साथ लेकर चलते हैं। दूसरी तरह के लोग सत्य को माथा में बसाकर चलते हैं। दोनों अपने-अपने सत्य के साथ एक दूसरे के सहयात्री बन जाते हैं। सत्य का रास्ता कभी भी निरापद नहीं रहा है। स्वार्थ, लोभ, ईर्ष्या, द्वेष सत्य के सब से बड़े दुश्मन होते हैं। दुश्मन भले ही होते हैं, लेकिन अपने होते हैं। इस दुश्मन के साथ ही मनुष्य, मनुष्य बना पाया। सत्य के इन दुश्मनों का बुनियादी निवास मनुष्य के मन में होता है।

मनुष्य के मन में से इन मौलिक वृत्तियों का समूल नाश नहीं किया जा सकता है। इन वृत्तियों के मौलिक नाश से मनुष्य या तो देवता बन जायेगा या फिर राक्षस बन जायेगा, मनुष्य नहीं राक्षस हो जायेगा। कहना जरूरी है कि मनुष्य बनना अधिक मुश्किल होता है, जरूरी भी। इन मौलिक वृत्तियों का नाश भले ही संभव न हो, नियंत्रण जरूर संभव है। मौलिक वृत्तियों के नियंत्रण में नहीं रहने पर सत्य के साथ व्यक्तियों के व्यवहार में फर्क पैदा होने लगता है।

सत्य को साथ लेकर चलनेवाले और सत्य के टोकरी को माथे पर रखकर चलनेवाले के रास्ता में बदलाव होने लगता है। सत्य को माथे में लेकर चलना बहुत मुश्किल होता है। अंततः सत्य को माता में बसाकर चलनेवालों का अकेला होते जाना उस की दुर्भाग्यजनक नियति बन जाती है। इस दुर्भाग्यजनक माहौल को बनाने में अकेलीकरण की फरेबी प्रक्रिया का अपना योगदान होता है। गौर से देखने पर यह साफ-साफ दिख जायेगा कि अनेक इतिहास प्रसिद्ध व्यक्ति किसी तरह से अकेला हो जाने की नियति के समक्ष सीना ताने खड़े होते रहे हैं। महात्मा गांधी!

आज की राजनीति में राहुल गांधी लगातार अकेले होते जा रहे हैं। राहुल गांधी के बढ़ते हुए राजनीतिक अकेलेपन के प्रति हल्की टिप्पणी करनेवालों को जरा महात्मा गांधी के अकेलापन पर भी कोई-न-कोई टिप्पणी जरूर करनी चाहिए। इतिहास की विडंबना है कि व्यापक आबादी के ‘सत्य’ को माथे में बसाकर राजनीतिक यात्रा का मुसाफिर अकेलापन में पड़ जाता है।

जन-समाज की स्मृति में बने रहता है, यह अलग बात है। जन-हित में लगे नेतागण उस से शक्ति तो लेते रहते हैं, साथ शायद ही कभी देते हैं। सत्य पर जब हमला होता है तब सत्य के साथ उनके व्यवहार में बदलाव, दिखता है। चाहे वह सामाजिक न्याय का सत्य हो या आर्थिक न्याय का सत्य हो। फीकी पड़ती हुई ‘भारत जोड़ो यात्रा और भारत जोड़ो न्याय यात्रा’ की राजनीतिक आभा के बीच राहुल गांधी भले ही अकेले होते जायें लेकिन जन-नायकत्व और आगामी जनांदोलन उस फीकी पड़ती आभा के बीच भी जन-नायकत्व राजनीतिक सुरक्षा-कवच में वे बने रहे तो वे भीड़ में अकेला दिखकर भी अकेला नहीं होंगे।

जवाहरलाल नेहरू के राजनीतिक सफर से राहुल गांधी का सफर इस अर्थ में भिन्न और कठिन है कि नेहरू गुलाम भारत में आजादी की तरफ बढ़नेवाले भारत में सफर कर रहे थे और राहुल आजाद भारत में गुलामी की तरफ बढ़नेवाले भारत में सफर कर रहे हैं। भारतवासी! भारतवासी साक्षी गोपाल हैं।

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