अग्नि आलोक

मुक्तिबोध के व्यक्तित्व का असर जिस पर भी पड़ा, स्थायी हुआ

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कनक तिवारी

मुक्तिबोध को सबसे पहले 1958 में  साइंस काॅलेज रायपुर के प्रथम वर्ष के छात्र के रूप में मैंने देखा सुना था. ललित मोहन श्रीवास्तव के अध्यक्ष तथा ऋषिकुमार तिवारी के सचिव पद की समिति का मैं कक्षा-प्रतिनिधि बनाया गया था. ललित मोहन श्रीवास्तव बाद में भौतिकशास्त्र के प्राध्यापक बने. मूलतः वे कवि थे. उनका काव्यसंग्रह ‘दीपक राग नए’ शीर्षक से प्रकाशित भी हुआ.

राजनांदगांव निवासी ऋषिकुमार तिवारी छात्र जीवन में धोती कुरता की पोशाक के कारण भीड़ से अलग होते थे. वे भी एक अच्छे कवि थे.  विज्ञान का विद्यार्थी होने के नाते मेरे लिए मुक्तिबोध का यश पूरी तौर पर अजूबा और अपरिचित था. मुक्तिबोध के प्रति ललित मोहन श्रीवास्तव की भक्ति इस कदर थी कि समिति को आवंटित कुल जमा पचहत्तर रुपयों की राशि उद्घाटन कार्यक्रम में ही खर्च हो गई. उसमें से मुक्तिबोध को यथासम्भव पारिश्रमिक भी दिया गया. हलके रंग का सूती कोट पहने मुक्तिबोध ने गंभीर मुद्रा के अपने भाषण के बाद एकल काव्यपाठ भी किया.

विज्ञान के विद्यार्थियों के कारण ‘मुर्गी अपनी जान से गई लेकिन खाने वालों को मज़ा नहीं आया’ वाला मामला हुआ. कोई छः वर्ष बाद मैं बालाघाट के शासकीय महाविद्यालय में ललित मोहन श्रीवास्तव का प्राध्यापकीय सहकर्मी बना. तब तक मुक्तिबोध से परिचय और आत्मीयता का दौर प्रगाढ़ होकर उनके निधन के कारण खत्म भी हो गया था. कविता लिखने से मेरा बैर रहा है. कवियों को सुनना अन्यथा अच्छा लगता रहा. बहुत कोशिश करने के बाद भी मैं कविता नहीं लिख पाया. मुक्तिबोध के निधन का समाचार मुझमें भूकंप रच गया. मुक्तिबोध की यादें धूमिल होकर भी गुम नहीं हो सकी. उनके व्यक्तित्व का असर जिस पर भी पड़ा, स्थायी हुआ है.

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मुक्तिबोध 1958 में ही राजनांदगांव के दिग्विजय महाविद्यालय में मुदर्रिसी करने आ गए थे. अजीज़ दोस्त विलास खरे का मित्र होने के नाते उनके ज्येष्ठ पुत्र रमेश से मेरी अंतरंगता हो गई. बाद में रमेश का विवाह विलास की बहन से होने के कारण वे मेरे बहनोई हो गए. उनसे मेरा निजी रिश्ता कवि के रिश्ते से ज़्यादा पुराना है. अंगरेज़ी साहित्य में एम.ए. करने के दौरान मुझे कई बार इस कवि से मिलने का अवसर तलाशना पड़ा. वह लेकिन औपचारिक वार्तालाप के आगे नहीं बढ़ा.

मेरा बौद्धिक और शुरुआती करिअर का जीवन संवारने वाले अंगरेज़ी विभाग के पितातुल्य अध्यक्ष प्रो. प्रेमनारायण श्रीवास्तव नागपुर के दिनों से मुक्तिबोध से परिचित थे. उन्होंने ही ललित मोहन श्रीवास्तव को मुक्तिबोध का नाम सुझाया होगा. हिन्दी समिति के उस कार्यक्रम में प्रोफेसर श्रीवास्तव सामने की पंक्ति में बैठे मुक्तिबोध को ध्यानस्थ होकर सुनते निहारते रहे थे. उनकी ही सलाह पर मैं मुक्तिबोध से यदाकदा गृहनगर राजनांदगांव के दिग्विजय महाविद्यालय में जाकर दुआ सलाम करता रहता था. उनका व्यक्तित्व चमत्कारिक या प्रदर्शनीय नहीं था. मैं खुद को आश्वस्त करता रहता कि मेरे गुरु की पसंद गलत नहीं हो सकती, भले ही मुझे फिलहाल मुक्तिबोध की बातें समझ नहीं आ रही होंगी.

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पचास वर्ष हो गए मुक्तिबोध को गए. मैं 1963 में दिग्विजय महाविद्यालय राजनांदगांव में अंगरेज़ी विभाग में प्राध्यापक नियुक्त होकर उनका सहकर्मी बना. गृहनगर में बरगद के पेड़ों पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी और मुक्तिबोध तथा काॅलेज के बाहर डा. बलदेव प्रसाद मिश्र की शख्सियतों की छांह मिली, तब मुझ पर गदहपचीसी की उम्र आई भी नहीं थी. अब हीरक जयंती वर्ष में प्रवेश कर गया हूं. यादों का कबाड़ तक मूल्यवान होता है, ऐसा पारचून इतिहास का प्राथमिक ड्राफ्ट भी होता है.

साहित्यिक दुनिया में तब तक मुक्तिबोध की प्रायोजित, प्रचारित या सुपात्रित वह ख्याति नहीं थी जिसका बवंडर उनकी मृत्यु के बाद अचानक उठा. सादे कपड़ों, गंभीर मुद्रा और धीमी गति से अपने घर की सीढ़ियां उतरकर शिक्षकों के स्टाफ रूम में पड़ी दो आराम कुर्सियों पर बख्शीजी और मुक्तिबोध के बैठने से उन्हें ही इन दोनों साहित्य-अध्यापकों का बोझ सबसे ज़्यादा उठाना पड़ा.

कला, वाणिज्य और  विज्ञान संकाय में हिन्दी और अंगरेज़ी की कक्षाएं बीच में एक साथ इस तरह लगतीं कि न तो सुबह जल्दी आना होता और न शाम को देर तक रुकना. अंतराल में कुछ खाली पीरियड्स अलबत्ता होते. वे पीरियड्स मेरी अनाम ज़िंदगी का मूल्यवान क्षण लेकर आए.

बख्शी जी कम बोलते. वे मुक्तिबोध को सुनते या किसी किताब में डूबे रहते. मुझे मुक्तिबोध को सुनना होता. ऐसा संभाषण मैंने काॅलेज की पढ़ाई के दौरान किसी शिक्षक से सुना ही नहीं था. चार साल विज्ञान की स्नातक कक्षाओं के लिए हिन्दी साहित्य का परिणामविहीन परचा पाठ्यक्रम में था. बाद में अंगरेज़ी साहित्य में एम.ए. करने के कारण अशोक वाजपेयी के जुमले में मुझे हिन्दी साहित्य का वैध विद्यार्थी नहीं कहा जा सकता था.

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जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी‘ को लेकर मुक्तिबोध की रचनात्मकता उत्तेजित होती रहती. ‘कामायनी’ नाम से मैं परिचित भर था. प्रसाद में प्रसाद-गुण खोज लेने की मुक्तिबोध की कशिश का मैं चक्षुदर्शी गवाह बना. वे अपनी नज़र से ‘कामायनी’, फिर महाकाव्य के चश्मे से मानवेंद्रियों के गुंफित अंतर्लाेक की यात्रा के पथप्रदर्शक बने. उन्हें एक अदद पथप्रदर्षित यात्री की ज़रूरत महसूस होती रही होगी, जिसे वे प्रसाद के साहित्यिक राजप्रासाद का अवलोकन करा सकें.

व्यावसायिक पर्यटन के गाइड अक्सर ग्रामोफोन के रिकाॅर्ड की तरह पुनरावृत्त बयानों की जुगाली करते हैं. मुक्तिबोध वह गाइड थे जो प्रतिदिन किसी धारावाहिक कथा के अगले परिच्छेद या पड़ाव तक आगे चलकर कुछ नया अहसास भरते. मुझ श्रोता की आश्वस्त-उपस्थिति के बाद हर रात प्रसाद से मुठभेड़ या साक्षात्कार करके स्टाफ रूम आते. रोज एक नया सिरा पकड़कर ‘कामायनी’ का अलग चेहरा दिखाते.

एकालाप की शैली के वार्तालाप को बख्शीजी स्मित हास्य के उस अतिरिक्त श्रोता की तरह सुनते होते, जिसने गाइड को फीस नहीं दी है. मुक्तिबोध के कामायनी-निर्वचन से सहसा संकेतित मैं विद्वता बघारने के लिए अंगरेज़ी के महाकवि जाॅन मिल्टन के ‘पैराडाइज़ लाॅस्ट’ को परोसने लगता. उसे बरस भर पहले ही मैंने परीक्षोपयोगी नोट्स के सहारे पढ़ा था. मिल्टन के नाम से भी उन्मादित मुक्तिबोध ‘पैराडाइज़ लाॅस्ट’ और उसकी टीकाओं को उपलब्ध कराने कहते.

मैं रायपुर के विज्ञान महाविद्यालय का छात्र था. वहां ताज़ा खुले अंगरेज़ी विभाग का पुस्तकालय बहुत विपन्न था. संस्कृत महाविद्यालय में संयोगवश सरकारी अनुदान के कारण अंगरेज़ी साहित्य की पढ़ाई बरायनाम होने पर भी किताबों का अच्छा खासा क्रय किया गया था. मैं थैले भर भरकर किताबें मुक्तिबोध के लिए लाने लगा. उनमें से कई किताबें पहली बार पढ़ी जा रही थीं. मुक्तिबोध को इससे कोफ्त होती क्योंकि अंकित पुस्तक विवरण के अनुसार वे कुछेक वर्षों पहले खरीदी गई थीं.

संस्कृत काॅलेज के पुस्तकालय नियमों के अनुसार अन्य महाविद्यालय के प्राध्यापक को पुस्तकें ले जाने की अनुमति नहीं थी. उसी महाविद्यालय के अंगरेज़ी विभाग के सहायक प्राध्यापक मित्र श्यामकिशोर श्रीवास्तव के नाम पर वे पुस्तकें बिना पंजीकृत आवंटन के थैले भर भर लाई जातीं. श्यामकिशोर पढ़ाकू थे. उन ले जाई गई पुस्तकों की सूची देखकर ही मुक्तिबोध के मानस की पड़ताल करते पुलकित होते रहते.

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दिग्विजय महाविद्यालय के स्टाफ रूम में ‘कामायनी’ पर एकाध सप्ताह बाद मेरा रिफ्रेशर कोर्स शुरू हुआ. अब मैं जाॅन मिल्टन और जयशंकर प्रसाद के महाकाव्यों के बीच मुक्तिबोध-सेतु पर चलने का इकलौता यायावर यात्री था. मुझ अज्ञानी को सूचना नहीं थी कि मुक्तिबोध की अंगरेज़ी साहित्य में भी गहरी पैठ है. उन्होंने ‘पैराडाइज़ लाॅस्ट’-का उल्था किया, वैसा तो मेरे कक्षा-गुरुओं ने सोचा, बताया या बूझा नहीं था क्योंकि उन्होंने प्रसाद को कतई नहीं पढ़ा होगा.

कविता भूगोल और इतिहास, भाषा और संस्कृति, धर्म और रूढ़ियों की परस्परता, विभिन्नता और उदासीनता के परे जाकर एक एक चरित्र के माध्यम से अंततः मनुष्य और संभावित मनुष्य को भी तो रचती है. यह तिलिस्म साहित्य की उन गैर-पेशेवर कक्षाओं में महीनों तक सीखने को मिला. अंगरेज़ी के आलोचकों वाली किताबों के हाशियों पर मुक्तिबोध ने पेंसिल से बहुत कुछ लिखा. पुस्तकें वापस करने के पहले रबर से उन्हें मिटा दिए जाने के निर्देश भी उन्होंने दिए.

सोचता हूं कि जीवन में एक गैरइरादतन अपराध मैंने क्यों नहीं किया. उनकी आज्ञा मानकर वे इबारतें मिटाने का गुनाह लगातार कचोटता रहता है. बख्शी जी भी कई किताबें मंगाकर पढ़ते. वे कभी कभी प्रसाद, निराला, पंत, महादेवी, रामकुमार वर्मा वगैरह को लेकर मुक्तिबोध से ज़िरह करते. छब्बीस वर्ष के नवयुवक ने स्वनामधन्य पत्रिका ‘सरस्वती’ का संपादन किया था.

छायावाद अथवा स्वछंदतावाद के बड़े हस्ताक्षरों को संपादित, प्रकाशित या अस्वीकृत करने का उनका अपना अनुभव था. उनसे कई बार मतभेद होने पर मुक्तिबोध अपने जिरहनामे की मेरी क्लास लेते. लगता कि यह कवि ‘डूबते को तिनके का सहारा’ वाले मुहावरे की उलटबांसी कर रहा है. शाब्दिक अर्थ है कि डूबता हुआ व्यक्ति तिनके को सहारा समझकर उसे पकड़ता है, लेकिन बेचारा डूब ही तो जाता है.

मुक्तिबोध-प्रसंग में अर्थ यह है कि वे संवेदनाओं के गहरे अतल में डूबने के बाद मुझ जैसे श्रोता को तिनके का सहारा समझकर उसमें से बाहर आना चाहते. मैंने मुहावरे वाले तिनके की भूमिका का अनादर या नकार नहीं किया. वे मेरा सहारा पाकर ऊपर नहीं आ सकते थे, लिहाज़ा और डूबते जाते.

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मैं कविता और गल्प में रससिद्धता की अन्योन्याश्रितता का मर्म नहीं समझ पाया हूं. परीक्षोपयोगी किताबों तथा शुष्क मानसिक बनावट के कारण गद्य के ऑक्टोपस ने सदैव जकड़े रखा. गद्य के प्रति निजी लगन का कारण प्रो. श्रीवास्तव जैसे गुरु द्वारा पढ़ाया जाना भी था. वे कविता के प्राध्यापकों के मुकाबले समूचे अंगरेज़ी साहित्य के गद्य को तरल कविता में बदल देते. जोसेफ एडिसन की सरल लेकिन तीखी मार करती गद्य भाषा के हम सब मुरीद बना दिए गए थे.

एम.ए. की परीक्षा में मुझे सबसे ज़्यादा नंबर गद्य के परचे में ही मिले थे. वे सागर विश्वविद्यालय के अंगरेज़ी विभाग के निष्णात अध्यक्ष डाॅ. स्वामीनाथन की कलम से निकले थे. मैं लगभग साढ़े तीन वर्ष की उम्र में ही मातृविहीन हो गया था. साहित्य में मां का विलोप या विलाप मेरी जिज्ञासा का क्षेत्र रहा है. मसलन पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र‘ की कहानी ‘उसकी मां’ या प्रेमचंद की बूढ़ी काकी के चरित्रों को मैं स्याही के बदले आंसुओं से ज़्यादा नहलाता रहता.

मातृविहीन वैयक्तिक निबंधकार चाल्र्स लैम्ब मेरे जे़हन से आत्मा की परतों तक उतर चुका था. मैं मुक्तिबोध से कहता कि उनके आलोचना पक्ष को कभी न कभी तो बूझ लूंगा, लेकिन मेरा पूरा जीवन उनकी कविताओं से जूझते ही चला जाएगा. वह गुणग्राह्यता न जाने मुझमें क्यों नहीं है. वे खिलखिला उठते और पूछते कि आखिर गद्य की ग्राह्यता का क्या तिलिस्म है.

मुझमें यह ठहरी हुई याद है. मैंने समझाने की गर्वोक्ति में कहा था कि गद्य मेरे लिए ग्लैशियर की तरह है. वह ऊपर से बर्फ के चट्टानी होने का बोध कराता है. तह के नीचे पानी ही पानी भरा होता है. उसकी तरलता, आर्द्रता, शीतलता और अतलबोधगम्यता से फिर भी इंकार नहीं किया जा सकता. मैं हड़बड़ी में हजारी प्रसाद द्विवेदी, विद्यानिवास मिश्र, कुबेरनाथ राॅय, निर्मल वर्मा वगैरह से रक्षा का आश्वासन मांगता. मैं इन सबका पाठक होने के अतिरिक्त अपने संभावित लेखक होने के लिए उन्हें रोल माॅडल भी समझता था. कुबेरनाथ राॅय का तो मैं स्थायी कायल रहा.

मुक्तिबोध कुछ कह पाते, उसके पहले अनगढ़ अंदाज़ में मैं यह भी कह पाया कि ठहरे हुए जल में नहाने वाले मुझ पर उद्दाम नदी, वर्षा या हहराते हुए झरना बनकर भिगोती कविता से गीला होना मेरी नियति मेरी नहीं है. मुक्तिबोध कहते यह सब शब्द-छल है. आप मेरी कविता से आजिज नहीं हुए हैं. अब भी सोहबत में हैं. सच है पचास वर्षों बाद मैं तो अब भी मुक्तिबोध की सोहबत में डूब उतरा रहा हूं. मुक्तिबोध ही छोड़कर चले गए। ‘इलाही वे सूरतें किस देश बसतियां हैं. जिनके देखने को आंखें तरसतियां हैं.’

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राजनांदगांव में मुक्तिबोध के अतिरिक्त वामपंथी पत्रकारों, लेखकों और राजनीतिकर्मियों का अच्छा जमावड़ा रहा है. ‘सबेरा’ के युवा संपादक शरद कोठारी, पत्रकारिक काॅलमकार रमेश याज्ञिक, वरिष्ठ अधिवक्ता अटलबिहारी दुबे, कम्युनिस्ट पार्टी के कन्हैयालाल अग्रवाल, काॅमरेड प्रकाश राॅय, गंगा चैबे, रोहिणी चैबे, प्रतिभाशाली कवि नंदूलाल चोेटिया, कर्मठ कार्यकर्ता बाजीराव शेन्डे आदि नवग्रह रहे हैं. उनके बौद्धिक उद्दीपन के लिए मुक्तिबोध की सूर्य-स्थिति रही. उन सबके प्रयत्नों के बावजूद मुझ पर लाल रंग नहीं चढ़ा.

साहित्य, संस्कृति, कविता, कला वगैरह की समझ को लेकर मेरी अपनी अस्थिर, कच्ची, बेतरतीब और अधकचरी वाचाल मान्यताएं तब भी थी. उन्हें मैं तार्किक वामपंथी आक्रमणों की प्रतिरक्षात्मक मुद्रा के इस्तेमाल में लाता. एक दिन रमेश याज्ञिक के उस समय के शानदार पैतृक घर में तमाम वामपंथी काॅमरेडों की अंतरंग गोष्ठी में मुझे बुलाया गया. साम्यवाद और माक्र्स को लेकर मैं अपने शहर में स्कूली जीवन में व्याख्यान प्रतियोगिताओं में असुविधाजनक रही हुई टिप्पणियां करता रहता.

ये समझ दक्षिणपंथी साहित्य पढ़ने से नहीं बल्कि लोहिया-साहित्य सहित कुछ और आलोचनाओं के कारण थी, जो बुनियादी तौर पर मार्क्स के समर्थक लेकिन भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की समझ के कायल नहीं थे. तब तक भाकपा का विभाजन भी नहीं हुआ था. मैं भगतसिंह से भी संसूचित था कि आर्थिक और सामाजिक गैरबराबरी को दूर करने की अपनी मार्क्सवादी मुहिम के बावजूद भारतीय कम्युनिस्टों ने आज़ादी के आंदोलन में अपेक्षित सार्थक प्रतिभागिता क्यों नहीं की.

अपने मित्र तथा सलाहकार काॅमरेड सोहनसिंह ‘जोश‘ की समझाइश के बावजूद भगतसिंह कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल नहीं हुए. एक रूसी किताब में तो यह भी लिखा था कि भारतीय कम्युनिस्टों का प्रतिनिधि मंडल जब काॅमरेड लेनिन से मिला तो उन्होंने सलाह दी थी कि साम्यवादियों को गांधी की अगुवाई वाले आज़ादी के आंदोलन में कूद पड़ना चाहिए. बाद में गांधी जैसे बूर्जुआ नेतृत्व को उसमें से हटाने की मुहिम भी छेड़नी चाहिए.

ये सब तर्क मैंने उस दिन की बैठक में दिए थे जो मेरी समझ के अनुसार मेरे मार्क्सवादी बपतिस्मा के लिए बुलाई गई थी. आतिथेय सदस्य संतुष्ट नहीं हुए. मुक्तिबोध ने मुझे ध्यान से सुना. उन्होंने मुझे काॅमरेड बनने की वामपंथी सलाह को लेकर कोई समझाइश या दबाव व्यक्त नहीं दिखाया.

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पता नहीं क्यों मुक्तिबोध ने एक दिन शोध परीक्षा के गाइड की तरह मुद्रा बनाकर मुझसे कहा कि मैं नरेश मेहता को पढ़ूं. नगरपालिका के पुस्तकालय से ‘यह पथ बंधु’ था, लाकर मैंने पढ़ने की कोशिश की. उनसे पूछा कि क्या नरेश मेहता की सभी रचनाएं इसी तरह भारीभरकम होंगी. मुक्तिबोध से नरेश मेहता उम्र में पांच वर्ष छोटे थे. देश के कई बौद्धिक आज़ादी के पहले वामपंथी विचारधारा के चुंबकत्व के लिए लोहे के कण ही थे. उनमें से कुछ को चुंबकत्व बांधे नहीं रख सका. वे मध्यममार्गी, दक्षिणपंथी या आज़ाद ख्याल के भी हो गए.

नरेश मेहता और निर्मल वर्मा कई नामों में दो बड़े नाम हैं जिन पर वामपंथ से छिटककर छद्म दक्षिणपंथी होने के आरोप तक लगाए गए. इन दोनों की भारतीय संस्कृति की अकाट्य समझ का लोहा वे चुंबक भी मानते हैं जो भारतीय ज्ञानशास्त्र के वांग्मय में पसरे पड़े हैं. धीरे धीरे नरेश मेहता को पढ़ने की इच्छा कुलबुलाती रही. तीस वर्षों बाद में नरेश जी से मेरा परिचय मुक्तिबोध की सलाह को संजोए रखने के कारण यत्नपूर्वक हो ही गया. शायद नरेश जी के  लेखन में अपने विचारों को ढूंढ़ पाने के कारण ही उन्हें बड़ा लेखक मानता रहा हूं. हो सकता है यह सही नहीं हो. मैं कई मुद्दों पर नरेश जी को लेकर असहमत, तटस्थ या नासमझ भी रहा हूं.

अल्प अध्ययन के बावजूद मैंने मार्क्स को कभी खारिज नहीं किया. मुझे यह जानकर अचरज होता है कि बीसवीं सदी की दुनिया को ज्ञान की अलग अलग विधाओं के ज़रिए मूल्यगत तथा ढांचागत स्तर पर जिन चार महान बौद्धिकों ने बनाया है वे चारों यहूदी ही निकले. कार्ल मार्क्स, फ्रेडरिक नीत्शे, सिग्मंड फ्रायड और अलबर्ट आइंस्टीन के बिना बीसवीं सदी का इतिहास लिखा ही नहीं जा सकता. नरेश मेहता को यह सब बता चुकने के बाद भी मैं उन्हें समझने की क्रिया मैं जारी रखे हुए था.

बड़े लेखकों की सोहबत का बौद्धिक फायदा उठाने से खुद के बांझपन से लड़ने का अवसर तो मिल जाता है. नरेश जी से आत्मीयता हो गई. उसे मुक्तिबोध की सिफारिश के अभाव में मैंने शायद नहीं पाला होता. कालजयी कवि अकालकवलित एक सामान्य पाठक की मानसिक चैहद्दी का भी निर्धारण आत्मविश्वास के साथ क्यों कर देते हैं ! नरेश जी से उनके जीवनपर्यंत मेरा अंतरंग रिश्ता कायम रहा. नरेश मेहता का मुक्तिबोध पर लिखा गया ‘मुक्तिबोधः एक अवधूत कविता’ वाला निबंध संस्मरणात्मक होते हुए भी कई अनछुए आयाम अनावृत्त करता है.

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मैं मुक्तिबोध की उपस्थिति में आग्नेयस्का से नहीं मिला. एक बार रमेश ने उनसे भेंट कराई थी. जाहिर है मैं उनके किसी काम का नहीं था. श्रीकांत वर्मा, अशोक वाजपेयी, हरिशंकर परसाई, प्रमोद वर्मा, विनोद कुमार शुक्ल आदि से निकटता रही है. वे राजनांदगांव आकर मुक्तिबोध से मिलते रहे. मैं वहां नहीं रहने के कारण किसी भेंट या बैठक में शरीक नहीं हुआ. वर्षों बाद कांग्रेस के ‘राष्ट्रीय लेखक मंच’ में डाॅ. राजेन्द्र मिश्र के कारण संयोजक बना दिए जाने से श्रीकांत वर्मा के निकट आया.

मुक्तिबोध की मृत्यु के करीब पंद्रह वर्षों बाद भी उनकी याद करने से तीखे स्वभाव के समझे जाते श्रीकांत वर्मा में उस टीस को देखा जा सकता था, जो कवि को नहीं बचा पाने की हताशा के कारण पैठ गई थी. यह श्रीकांत वर्मा की मुख्य पहल थी जिसके कारण मरणासन्न और फिर मरणोत्तर मुक्तिबोध की ओर पढ़ी लिखी दुनिया का ध्यान खींचा गया. अपनी कथित विवादचर्चित छवि के बावजूद अशोक वाजपेयी ने मुक्तिबोध की स्मृतियों को अनुसंधित्सु तथा प्रोन्नत बनाए रखने के लिए सचेष्टता को निरंतर रखा है. ऐसा कम लोग कर पाते हैं.

बाद में मध्यप्रदेश के संस्कृति विभाग के उन्नायक और नियामक बने अशोक ने मुक्तिबोध की वास्तविक छबि-स्थापना के लिए जो तटस्थ, निरपेक्ष लेकिन कर्तव्यनिष्ठ अभियान शुरू किए और जारी रखे उस कारण मुक्तिबोध को उनकी अगली पीढ़ी के बीज-विचार के रूप में रोपा जा सका. मैं प्रमोद वर्मा का अंतरंग रहा हूं. प्रमोद वर्मा की सेवानिवृत्ति के बाद उनकी रचनात्मक ऊर्जा को कायम रखने के लिए अनायास मिले राजनीतिक पद का लाभ उठाकर मैंने मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह पर दबाव डालकर छत्तीसगढ़ के वरेण्य साहित्यिक बुजुर्ग पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी की स्मृति में सृजनपीठ की भिलाई में स्थापना करवाई.

यह दुखद संयोग हुआ कि मध्यप्रदेश शासन साहित्य परिषद द्वारा आयोजित मुक्तिबोध स्मृति समारोह के सत्र का मैं संचालन कर रहा था. उसमें बगल में बैठे प्रमोद वर्मा अचानक अचेत होकर मुझ पर ही गिर पड़े. प्रमोद वर्मा फिर चले ही गए, मानो मुक्तिबोध-स्मृति में विलीन हो गए. प्रमोद वर्मा ने मुक्तिबोध पर जो मोनोग्राफ ‘पहल’ के लिए लिखा, वह इस कवि के सर्वश्रेष्ठ आकलनों में है. वह पुस्तिका मुक्तिबोध की रचनात्मकता का गंभीर शोधप्रबंध है. यह अलग बात है कि मुक्तिबोध की सहसा हुई लोकप्रियता के कारण उन पर सैकड़ों घटिया लेख भी लिखे गए. ‘बहती गंगा में हाथ धोना’ इसी को कहते हैं. प्राध्यापकीय शोधप्रबंधों वगैरह में जो मुक्तिबोध उकेरा गया है, उसका चेहरा उन्नतोदर या नतोदर दर्पणों में झांकते विद्रूप की तरह भी नज़र आता है.

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मेरे गृहनगर के अग्रज कवि विनोदकुमार शुक्ल छात्र जीवन से मुक्तिबोध के संपर्क में रहकर उनसे प्रेरित भी हुए हैं. उनका विकास अनुकृति का नहीं अनुकरणीय शैली का है. विनोद जी जबलपुर निवास में भी मुक्तिबोध और हरिशंकर परसाई की बैठकों में अपने मित्र कवि नरेश सक्सेना के साथ शामिल होते रहते. राजनांदगांव में विनोद कुमार शुक्ल अकेले रहे हैं, जिन्हें मुक्तिबोध की निगाहों ने एक संभावित श्रेष्ठ कवि होने का अलिखित प्रमाणपत्र जारी किया था.

मुक्तिबोध की तरह के कवि नहीं होने की सभी संभावनाएं उन्होंने शुरू से संकेतित की होंगी. बड़ा कवि वही होता है जो दूसरे बड़े कवि से भिन्न होकर भी कहीं दृष्टि की अंतरंगता का साथी साक्षी बने. डाॅ. राजेन्द्र मिश्र सहकर्मी के रूप में  विज्ञान महाविद्यालय रायपुर में हिन्दी साहित्य पढ़ाते. मैं वहां अंगरेज़ी साहित्य का प्राध्यापक होकर उनकी मुक्तिबोध-कार्यशाला का प्रशिक्षु बनने में आह्लादित होता रहता.

मुक्तिबोध के द्वितीय पुत्र दिवाकर छोटे भाई होने के अतिरिक्त उन्हीं दिनों मेरे छात्र भी हो गए थे. मुक्तिबोध के पुत्रों में अपने स्वनामधन्य पिता की भद्रता, विनयशीलता, अध्यवसाय और उनसे भी बढ़कर उपेक्षा के प्रति सहिष्णु रहने के जीन्स पूरी तौर पर अवतरित हुए हैं. बड़े पुत्र रमेश ने मुक्तिबोध के फक्कड़पन, व्यवस्थाविद्रोह और अनिश्चय के कारण कठिनाइयां झेली हैं. उसके मूल गुण भी पिता द्वारा उत्तराधिकार में दिए गए थे.

रमेश ने बहुत जतन के साथ मुक्तिबोध के लिखे पुरजे पुरजे को संभालकर उसे इन पचास वर्षों तक प्रकाशित करते रहने का धीरज, संबल और कर्तव्य का उदाहरण पेश किया है. रमेश के मुक्तिबोध इसलिए सबके हैं. कई लेखकों के वंशज अंततः अपने पूर्वजों के मारक सिद्ध होते रहते हैं. वे निजी पितृत्व और सार्वजनिक पितृत्व की विभाजक रेखा को समझ नहीं पाते. पत्रकारिता के व्यवसाय में रहकर भी दिवाकर में उस शाइस्तगी को देखा जाता रहा है, जिसका मुक्तिबोध भी एक उदाहरण रहे हैं.

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शाता ताई अब नहीं हैं. एक दिन मुझे चाय पिलाने के बहाने पकड़कर ले गए मुक्तिबोध ने ताई को चाय बनाने कहा. खुद हमारी ओर पीठ कर उस पुरानी हवेलीनुमा मकान की आखिरी सीलनभरी दीवार से सटी छोटी सी मेज पर बैठकर कुछ लिखने लगे. वे अपने में डूब गए. चाय पीते मैंने उनकी चाय को ठंडा होते देखा. मुंह खोला, लेकिन ताई की उंगली ने मना कर दिया. बरसाती दिन थे. मुक्तिबोध के सामने दीवार पर लगा पलस्तर का एक टुकड़ा सहसा मेज के आसपास गिर गया. उनके मन में इतना बड़ा भूचाल था कि वे हिले तक नहीं.

दूसरे दिन मैंने मज़ाक के कच्चेपन में कहा कि दीवार पर पलस्तर इस तरह झरा है मानो ब्रह्मराक्षस का चेहरा उकेरा गया है. आपके  लेखन में इतना पुण्यप्रताप है ? मुक्तिबोध मुझे फिर पकड़कर चाय पिलाने घर ले गए. अब वे अंतर्मुखी कवि नहीं, बहिर्मुखी मनुष्य थे. हम बहुत देर खड़े होकर ब्रह्मराक्षस की आकृति के कंटूर समझते रहे. उन्होंने सहमति व्यक्त की ‘पार्टनर यह ब्रह्मराक्षस ही दिख रहा है. लेकिन कल से अब तक इस पर मेरी निगाह क्यों नहीं पड़ी ?’

ब्रह्मराक्षस, ओरांग उटांग, क्लाॅड ईथर्ली जैसे बीसियों अटपटे नाम मुक्तिबोध की रचनाओं में अटे पड़े हैं. यह कवि विकृतियों के कबाड़खाने में जाकर भी बीने गए पदार्थों की सुसंगतता निर्धारित कर उन्हें अभिव्यक्ति की धमनभट्टी में गलाकर कविता के उत्पाद में बदल देने की वैज्ञानिक वृत्ति का प्रयोगधर्मी भी रहा है. मुक्तिबोध के प्रतीकों में अंधेरा, काला जल, सर्प, पत्थर, मृत्यु, चीत्कार वगैरह की परछाइयां नहीं झाइयां हैं. वे कविता के चेहरे पर इस तरह उगीं कि इन्सानी विकृतियों में काव्यात्मकता बूझने की समझ भले विकसित की जाए अस्थिविहीन अभिव्यक्तियों के कोलाज़ को ही केवल कविता नहीं कहा जा सकता.

ब्रह्मराक्षस मुक्तिबोध के उपचेतन में उकडूं बैठा रहता है. विक्रम के कंधे पर बार बार आकर बेताल बैठता और फिर पेड़ पर चढ़ जाता है. ब्रह्मराक्षस मुक्तिबोध से लगातार सवाल पूछता है. सही जवाब नहीं मिलने की हालत में उनकी खोपड़ी उड़ा देने की धमकी देता है. कालकवलित हो गए मुक्तिबोध के बाद ब्रह्म ही अनुत्तरित हो जाने के कारण राक्षस होकर तब्दील हो गया लगता है.

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मैं 23 का था, मुक्तिबोध 46 के और बख्शी जी 69 के. मेरे कुछ स्कूली सहपाठी पढ़ाई में व्यवधान होने के कारण संयोगवश मेरे छात्र हो गए थे. वे मुंहलगे मित्र-शिष्य हम तीनों अध्यापकों को काॅलेज से निकलकर खपरैल से बनी झोपड़ी में चाय की दूकान की ओर आते जाते देखने पर 23 का पहाड़ा पढ़ने लगते. सश्रद्ध, (क्योंकि मुक्तिबोध पितातुल्य उम्र के थे और बख्शीजी मेरे पिता के शिक्षक रहे) अविवाहित तथा पारिवारिक जिम्मेदारियों से मुक्त होने के कारण मेरे दो सौ नब्बे रुपये मासिक वेतन का बड़ा हिस्सा होटलों में ही खर्च होता.

मुक्तिबोध अमूमन चाय पीते, बख्शी जी कई बार काॅफी. मुक्तिबोध सिगरेट और बिड़ी दोनों पी सकते थे, बख्शी जी लगातार बिड़ी. बख्शी जी को इमरती भी भाती और भजिए कचैरी भी. मुक्तिबोध खाने से बचते, लेकिन दूसरा कप चाय पीने से पहले कप के बनिस्बत ज़्यादा खुश होते. तीन पीढ़ियों का यह काफिला खाली पीरियड के पैंतालीस मिनटों में लौट आने की मर्यादा में बंधा रहता क्योंकि बख्शी जी के शिष्य, मुक्तिबोध के नियोक्ता और मेरे चाचा जी ही तो प्राचार्य थे.

मुक्तिबोध के निधन के तीस वर्षों बाद मध्यप्रदेश गृह निर्माण मण्डल का अध्यक्ष पद मुझे मिला. मैंने अध्यक्षीय आदेश के तहत गृह निर्माण मण्डल की राजनांदगांव स्थित तीन काॅलोनियों का नामकरण बख्शीनगर, मुक्तिबोधनगर तथा बलदेवनगर रखा. राजनांदगांव को छत्तीसगढ़ का सांस्कृतिक केंद्र कहते नहीं अघाते भद्रजनों को अब तक यह अहसास नहीं है कि इन काॅलोनियों को इनके अधिकृत नामों से ही पुकारा जाए. रायपुर में तो माधवराव सप्रे नगर और कबीरनगर नामधारी हैं लेकिन मेरे गृहनगर ने ही इन शलाका पुरुषों को विस्मृत कर नाम धरा लिया है.

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एम.ए. के लिए आधुनिक कविता का परचा हमारे पाठ्यक्रम में शिक्षकों और पुस्तकों के अभाव के कारण नहीं था. हम बमुश्किल टी.एस. इलियट, एफ.आर. लेविस, डी. एच. लारेन्स, स्टीफन स्पेंडर, अर्नेस्ट हेमिंग्वे जैसे बीसेक नामों से परिचित भर थे. मुक्तिबोध शेक्सपियर के पूर्वज मिल्टन तक ही मेहदूद नहीं थे. उन्होंने आधुनिक कवियों और आलोचकों की संस्कृत महाविद्यालय में उपलब्ध पुस्तकों की बिब्लियोग्राफी खंगाल डाली. उनके लिए हरकारा बने रायपुर आने जाने का मेरा क्रम जारी रहा.

अंगरेज़ी और हिन्दी दोनों की नई कविता के वे उन्मेषक, अन्वेषक और आग्रही प्रवक्ता की तरह कई बार पुस्तक हाथ में लिए घूम घूमकर स्टाफ रूम में वाचन करते. ऐसा करते वक्त वे कुरसी पर बैठे मुझ श्रोता की परिक्रमा भी करते. अधलेेटे बख्शी जी का स्मित चेहरा उनसे कहता कि चलो तुम्हें एक वांछित (भले मजबूर) श्रोता तो मिला. मुक्तिबोध का मौन शरारत भरी मुस्कान में बख्शी जी पर पलटवार करता कि यदि यह श्रोता नहीं मिलता तो फिर आपका क्या होता.

बख्शी जी के निबंधों को यदि ध्यान से पढ़ा जाए तो ऐसा लगता है कि उनकी सहज प्रेषणीयता की पृष्ठभूमि में विक्टोरिया युग की अंगरेज़ी का प्रेरक भावार्थ रूपांतरित हुआ है. गद्यकार होने के नाते अंगरेज़ी तथा यूरोपीय भाषाओं के अंगरेज़ी में अनूदित साहित्य को युवा बख्शी ने घोख डाला था. मुक्तिबोध के गद्य साहित्य में दुनिया के महान चिंतकों के विचारों को साझा करने की गहरी कशिश झलकती है.

पत्रकार मुक्तिबोध ने भारतीय सरहद के बाहर की घटनाओं पर अपनी टिप्पणियों में अंतर्राष्ट्रीय समझ का खाका खींचने की कई कोशिशे की हैं. भाषा उनके लिए माध्यम ज़रूर रही है लेकिन साहित्य किसी के एकाधिकार की वस्तु को नहीं कहते. पूरा मार्क्सवादी दर्शन ही यूरोपीय समझ की प्रतिकृति है लेकिन केवल भूगोल में नहीं. इतिहास प्रक्रिया भूगोल की सरहदों को यदि नहीं तोड़ती तो मार्क्सवादी दुनिया के बीसियों मुल्कों में कैसे फैलता ?

मुक्तिबोध में अपने समय से आगे चलकर इतिहास को बूझने की शक्ति थी. उसकी भी वैज्ञानिक अभिव्यक्ति उन्होंने खुद से जद्दोजहद करती तराशी हुई भाषा में परवर्ती पीढ़ियों और विश्व बिरादरी के लिए परोसने की कोशिश की है. यही कारण है कि उनके साहित्य का दुनिया की तमाम भाषाओं में अनुकूलता की समझ के साथ अनुवाद हुआ है. वह केवल पढ़ा नहीं जाता, आत्मसात भी किया जा रहा है.

ऐसा हर रचनाकार के साथ नहीं होता. कई अनुवाद पढ़ने पर आयातित या अतिथिभाव के लगते हैं, नामों, स्थानीय संस्कृति, सामाजिक आदतों वगैरह कारणों से. यदि केन्द्रीय भाव व्यापक मनुष्यता को ही अपना प्रतिनिधि आयाम समझता हो तो अनुवादित रचना मूल का आस्वाद देती है. मेरी समझ से मुक्तिबोध भौगोलिक सीमा में बंधे केवल भारतीय कवि नहीं हैं. उन्हें विश्व कविता की समझ के एक प्रयोगशील हस्ताक्षर की तरह समझा जाना चाहिए.

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1963 में ही अमेरिकी प्रेसिडेंट जाॅन केनेडी की हत्या हुई. केनेडी भारतीय राजनीति में सहसा लोकप्रिय हो गए थे. महाविद्यालय के प्राचार्य किशोरीलाल शुक्ल ने शोकसभा आयोजित की. आश्चर्यजनक रूप से मुक्तिबोध ने केनेडी की प्रशंसा की और कह दिया कि उनके नहीं रहने से भारत के सम्बन्धों को नुकसान होगा. इतने दिनों तक मुक्तिबोध ने ही मुझे वामपंथ की दीक्षा देने की कोशिश की थी. मैं अंततः वामपंथी हुआ तो नहीं लेकिन मुक्तिबोध के शिक्षण का कुछ प्रभाव मस्तिष्कस्थ तो था.

स्कूली ज़माने से मंचीय वक्ता होने के कारण अपने भाषण में मैंने अनावश्यक ही केनेडी और मुक्तिबोध दोनों की आलोचना की. मैं अमेरिका को मुख्यतः विवेकानन्द के अनुभवों के जरिए जानता था. अब भी शायद उतना ही जानता हूं. शुरुआती विवेकानन्द अमेरिकी समाज की चकाचैंध से हतप्रभ हो गए थे. उन्होंने आखिर में अमेरिकी दंश के कारण उस महादेश की बखिया उधेड़ी. मुझे तबसे अमेरिका की बुराई करना सुहाता रहा है. सभा के बाद मुक्तिबोध मुझे अपने घर ले गए. उन्होने अंतर्राष्ट्रीय राजनयिक रिश्तों को विस्तार से समझाने की कोशिश की.

अमेरिका के विरोध में मेरे पास विवेकानन्द के बहुत से वाक्यों का आर्केस्ट्रा था. मैंने उन्हें तीर की तरह दागना शुरू किया. मुक्तिबोध आश्वस्त होने का संकेत देते रहे. दूसरे दिन आकर कहा कि शायद तुम कुछ कुछ ठीक कहते हो. हमने फिर यह तय किया कि हर अमेरिकी प्रेसिडेंट अलग अलग रंग और प्रकृति का सर्प हो सकता है, लेकिन ज़हर सबका एक ही होगा. मैंने कभी विवेकानन्द के वामपंथ को लेकर मुक्तिबोध से ज़िरह नहीं की थी. मुझमें इतनी तमीज़ तब कहां थी. मैं भी उन्हें हिन्दूहृदय सम्राट की तरह ही समझता रहा था.

अब लगता है कि कई हुई या नहीं हुई मुलाकातें भी इतिहास का निर्माण करती हैं. यदि विवेकानन्द अपने यूरोप प्रवास में प्रिंस क्रोपाटकिन से नहीं मिले होते तो रूसी साम्यवाद की समझ उनमें अंकुरित नहीं हुई होती. उसकी वजह से उन्होंने सफल रूसी क्रांति की भविष्यवाणी की थी. बेलूर मठ में गांधी से यदि विवेकानन्द की भेंट हुई होती तो वह बौद्धिक मुठभेड़ बीसवीं सदी के हिन्दुस्तान के लिए कुछ बदला हुआ रास्ता सुझाती.

यदि मुक्तिबोध ने विवेकानन्द की वामपंथी समझ का भारतीय संस्कृति के संदर्भ में कोई संभावित अनुशीलन किया होता तो बौद्धिक इतिहास को कोई दृष्टि मिलती. उन्होंने गांधी और नेहरू सहित कई भारतीय नेताओं और समस्याओं पर विपुल पत्रकारिक  लेखन किया है. वह सब आकार, समय और अन्य सीमाओं के चलते मुक्तिबोध को वैज्ञानिक समाजशास्त्री की तरह प्रतिष्ठित नहीं कर पाया, जिसकी उनमें पूर्वपीठिका थी.

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मुक्तिबोध का मेरे लिए अनायास प्रेम मेरे कुपठित व्यक्तित्व के बावजूद एक निजी गोपनीय कारण से था. मैं दो वर्षों के लिए जिस मेधावी प्राध्यापक की जगह नियुक्त किया गया था, वे पार्थसारथी पीएच.डी. करने संभवतः बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय गये थे. दिग्विजय महाविद्यालय के अपने अवलोकन, अनुभव और आकलन को लेकर मुक्तिबोध ने अपनी उपन्यासिका अथवा लंबी कहानी ‘विपात्र’ लिख रखी थी. इस बात के संकेत मुझे किसी सहयोगी से मिले थे कि उस कथा में महाविद्यालय के एक एक किरदार का फोटोग्राफिक चित्रण है. मुक्तिबोध-कथा में वे सब के सब अपने निगेटिव की तरह दिखाए गए हैं.

‘विपात्र‘ का नायक जगत लेकिन सुपात्र था. पार्थसारथी की विलक्षण प्रतिभा के कारण मुक्तिबोध उन पर फिदा थे. ऐसा उन्होंने मुझसे कहा भी था. मैंने पार्थसारथी का उत्तराधिकारी होने के कारण उनसे मूर्खतावश मिथकीय जुमले में कहा कि यहां तो कृष्ण का अवतार राम के पहले हो गया. पार्थसारथी जब दिग्विजय महाविद्यालय की धरती पर आए तो वे सोलह कलाओं से बने थे. मैं त्रेता युग को बाद में लेकर आया, जो केवल आठ कलाओं से बना है. इसीलिए पार्थसारथी के जाने के बाद दिग्विजय काॅलेज मुक्तिबोध के लिए सूना हो गया है.

मुक्तिबोध ने कहा था कि मैं नहीं सोचता था कि जगत के चरित्र चित्रण में उसकी सहसा अनुपस्थिति के कारण कथाभेद भी करना पड़ेगा. बहरहाल आपकी सोहबत में मुझे उस खालीपन से कुछ रिलीफ तो मिल रही है. मैंने संधि में कटाक्ष किया, ‘यही तो मुक्ति-बोध है.’ उन्होंने मजाक किया ‘नहीं यह बोध से मुक्ति है.’ ‘विपात्र’ को लेकर मुक्तिबोध विवादित भी हुए हैं. कथा के मुख्य चरित्र किरदार ‘बाॅस’ संस्था के प्राचार्य हैं जिनमें खलनायत्व भी झलकता है. बाकी चरित्र अलग अलग विभागों के प्राध्यापक हैं.

यह एक निजी महाविद्यालय की पचास वर्षों पुरानी कहानी है. पांच दशकों बाद आज उच्चशिक्षा में निजी क्षेत्र का एकल हस्तक्षेप हो गया है. मुक्तिबोध दरअसल शोधवृत्ति को उच्चशिक्षा का उत्स मानते थे. उसका भारतीय संदर्भ में बार बार अवसान होता रहा है. यही वजह है कि दुनिया के दो सौ प्रथम विश्वविद्यालयों में भारत कहीं नहीं है.

केवल स्नातक स्तर तक भी पढ़ाते मुक्तिबोध जिन साहित्यिक अवधारणाओं के आकाश को अपने छात्रों के लिए विस्तारित करते वह ब्रह्मांड अनिच्छुक विद्यार्थियों की मुट्ठी की पकड़ के बाहर होता. बख्शीजी औैर मुक्तिबोध पारंपरिक परिभाषा के अनुसार बहुत श्रेष्ठप्रदायकर्ता अध्यापक नहीं थे. फिर भी बीसवीं सदी के छठवें दशक के एक कस्बे के छात्रों की अनुशासनसंहिता और दबंग प्राचार्य के प्रशासन के कारण ऊंघते छात्र भी ध्यानस्थ होने का अभिनय करते होते.

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पश्चिम की ओर लगभग दो तीन किलोमीटर तक शाम को पैदल चलना मुक्तिबोध की राह पर रेंगने का एक और यादनामा है. सड़क पर चलते ‘एक साहित्यिक की डायरी’ के टूटते जुड़ते विवरण रास्ते भर किसी दूसरी दुनिया में भेजते. वे सर्कस के रिंग मास्टर थे. मेरी चेतना, समझ और बौद्धिक हरकतों पर प्रहार के लेकिन कोड़े देह पर नहीं पड़ते थे. हिन्दी साहित्य के प्रति अपने विश्वसनीय अज्ञान से उत्पन्न नासमझी के कारण मैं बार बार अपने प्रिय रूमानी कवि और आलोचक काॅलरिज़ को रक्षाकवच के रूप में खड़ा करता.

मैं लगातार मुक्तिबोध के ‘तीसरे क्षण’ की समालोचनात्मक उत्पत्ति को उस दुर्लभ अंगरेज़ी आलोचक की थ्योरी के समानांतर बताने लगता क्योंकि इसके अतिरिक्त और कुछ मुझे कहां आता था. मैं कहता आप आलोचना की दृष्टि से शायद हिन्दी के काॅलरिज़ हैं. मैं उनके साथ राजनांदगांव और साहित्य की धरती पर अन्यथा कदमताल कैसे कर पाता. मैं कहता कि काॅलरिज़ की प्रतिनिधि महान कविताएं तो अफीम की पीनक में लिखी गई हैं. उसकी सबसे रूमानी कविता ‘कुबला खान’ अफीम के नशे में संवेदनाओं के क्षरण का साहित्यिक उतारा ही तो है.

अपने शरीर के स्थूल से मुक्तिबोधीय आलोचना के सूक्ष्म तक जाने की यात्रा में उनके ही शब्दों से बनी सड़क पर मैं धीरे धीरे पैर जमाकर चलता कि कहीं फिसल नहीं जाऊं. कई बार मुक्तिबोध गंभीर होने पर भी ठहाके लगाते. पता नहीं तब वे मुझे अनुमोदित या खारिज कर रहे होते. यह तो मुक्तिबोध की मृत्यु-पूर्व अचेतन अवस्था ने सिद्ध किया कि उनके काव्य-बिंब बेहद असामान्य मानसिक स्थितियों में उपचेतन के कोलाज़ की तरह उभरते होते थे.

साधारण सा जुमला है कि निराला ने व्यवहारगत एब्नाॅर्मल होने के बावजूद नाॅर्मल कविताएं लिखीं. अपने व्यवहार में बेहद अनुशासित, तमीज़दार और करुणामय होने के बावजूद मुक्तिबोध की कविता का बहुत बड़ा अंश ऐब्नाॅर्मेलिटी के लिबास में मनुष्यता का जनस्वीकृत हलफनामा है. यह भी मुक्तिबोध की ख्याति के साथ विसंगति है कि कई वामपंथियों ने उन्हें तकनीकी आधारों पर खारिज करने में गुरेज नहीं किया है. ऐसा सलूक डाॅ. रामविलास शर्मा के साथ भी हुआ है.

भारतीय संस्कृति, धर्म, परंपराओं, नामों, रूढ़ियों, उपासनापद्धतियों, पर्वों, मान्यताओं वगैरह को प्रतीकों, प्रतिमानों या प्रयोगों के बतौर यदि इस्तेमाल किया जाए तो ठर्र किस्म के मार्क्सवादियों को यह सब भारतीय अतीत में लौट जाने का ढकोसला लगता है. वे इन शब्दार्थों को दक्षिणपंथ की तर्कशाला के हथियार करार देते हैं. गहरी, बुनियादी, तटस्थ और वस्तुपरक तथा प्रतिनिधि भारतीय समझ के वैश्विक विस्तार की साझा संभावनाओं के चलते एक अंतर्राष्ट्रीय बौद्धिक काॅरिडाॅर मार्क्स को आने की दावत देता है. यह बात मार्क्स-अनुयायियों को जिस लचीलेपन, तटस्थता औैर बोधगम्यता के साथ समझनी चाहिए उसका उल्लेख अच्युत मेनन वगैरह की कई आत्मस्वीकृतियों में हो भी रहा है.

मुक्तिबोध रचनात्मक अर्थों में मार्क्सवादी रहे हैं. भारतीय संस्कृति संबंधी उनकी प्रामाणिक पुस्तक पर लगे प्रतिबंध को लेकर भोपाल के काॅमरेड शाकिर अली खान ने मुनासिब प्रतिरोधात्मक पहल की थी. शासकीय कांग्रेस पार्टी सहित अन्य कई तबकों की कूढ़मगजता के कारण मुक्तिबोध के सामासिक विश्वास को तो नहीं दूसरों पर भरोसा करने के आत्मविश्वास को धक्का लगा था.

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मेरे जीवन में वह शाम यादध्यानी योग्य है जो मुक्तिबोध की प्रसिद्धि का डंका नहीं बजने के पहले किसी अव्यक्त बानगी का शिकार हो गई होती. दिग्विजय महाविद्यालय के परिसर में अपने जिस पहले मकान में वे रहे थे, ठीक उसके पीछे बूढ़ासागर की पथरीली पटरियों पर बैठकर उस वक्त के शीर्षक ‘आशंका के द्वीपः अंधेरे में’ वाली कविता का एकल श्रोता बनना मेरे नसीब में आया. वह कविता उनके मुझ युवा श्रोता-शिष्य में घबराहट, कोलाहल, आक्रोश और जुगुप्सा भरती गई थी.

मैं राजनीतिक-सामाजिक विचारधारा के लिहाज़ से राममनोहर लोहिया के सबसे करीब था. मुक्तिबोध से लोहिया को लेकर कभी कभार सामान्य बात हुई होगी. उनके नहीं रहने के लगभग तीन वर्षों बाद लोहिया जी को मैंने मुक्तिबोध के बारे में बताया था. उन्हें इस बात का मलाल था कि ऐसे दुर्लभ कवि से उनका उतना प्रगाढ़ परिचय क्यों नहीं हो पाया जैसा उनके समकालीन अज्ञेय से था. साथ साथ अन्य कवियों से भी जिनमें श्रीकांत वर्मा, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना और विजय देवनारायण साही वगैरह कई थे.

मुक्तिबोध का वह अविस्मरणीय काव्यपाठ तब तक चलता रहा, जब तक सूरज पूरी तरह बूढ़ासागर में डूब नहीं गया. एक अमर कविता के अनावृत्त होने के रहस्य को देखना कालजयी क्षण जीना था. मैं कविता का अमर श्रोता बना दिया गया. मैं एक साथ हतप्रभ, आतंकित और भौंचक था. बूढ़ासागर का वह रहस्यमय रचना-परिप्रेक्ष्य पूर्वजन्म की घटना या उपचेतन के विस्फोट की तरह मुक्तिबोध की यादों में गूंजता रहता है. वह कविता मैंने ‘चांद का मुंह टेढ़ा है’ के संग्रह में शमशेर बहादुर सिंह की टिप्पणी के साथ कई बार पढ़ी. वह वाकई ‘गुएर्निका इन वर्स’ ही है.

उस कविता का मुझ पर इतना प्रभाव हुआ है कि मैं उसे किसी भी समाजचेता कविता का टचस्टोन (कसौटी) बनाता रहता हूं. मुझे पहली बार लगा था कि कविता हमारे पूरे अस्तित्व को न केवल झकझोर सकती है, बल्कि वह हमें अपनी वंशानुगत और पूर्वग्रहित धारणाओं तक की सभी मनःस्थितियों से बेदखल भी कर सकती है. पाठक या श्रोता का व्यापक मनुष्य समाज में गहरा विश्वास हो जाए और खुद उसमें किसी अणु के विस्फोट का संसार बन जाए-यह मुक्तिबोध की उस कविता का बाह्यांतरिक भूचाल है.

वस्तुतः ‘अंधेेरे में’ आंतरिक उजास की कविता है. यह कविता भारतीय जनता का लोकतांत्रिक घोषणापत्र है. उसकी अभिव्यक्ति, निष्पत्ति और उत्पत्ति सभी कुछ उन तानोंबानों से बुनी है, जो एक मनुष्य को दूसरे से अविश्रृंखलित मानव तारतम्यता से जोड़ती है. यह एक आंशिक और अपूर्ण लेकिन आत्मिक-लयबद्धता का ऐलान है. उसके पौरुष के उद्घाटन का वक्त हिन्दुस्तान की लोकशाही में जनता की यंत्रणा भोगती अनुभूतियों में न जाने क्यों उग नहीं रहा है !

मुक्तिबोध संभावित जनविद्रोह की निस्सारता से बेखबर नहीं थे. इसलिए इस महान कविता में लाचारी का अरण्यरोदन नहीं उसकी हताशा की कलात्मक अनुभूति है. पराजित, पीड़ित और नेस्तनाबूद हो जाने पर भी आस्था और उद्दाम संभावनाओं की उर्वरता के यौगिक बिखेर देना भी कविता की रचनात्मक ज़िम्मेदारी होती है. यह तयशुदा पाठ इस विद्रोही कवि का ऐसा उद्घोष है जिसे जनसमर्थन तो चाहिए लेकिन जनआकांक्षाओं की अभिव्यक्ति के लिए वह प्रतीक्षा करने की स्थिति में नहीं है. ‘अंधेरे में’ को जितनी बार और जितनी तरह से पढ़ा जाए उसकी दृष्यसंभावनाओं, नाटकीयता और अतिरेक लगती संभाव्यता में मुक्तिबोध की कलम की बहुआयामिता का अनोखा और अकाट्य साक्ष्य गूंजता रहता है.

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1963 की दीवाली के आसपास मुक्तिबोध के पैर में एक्ज़िमा जैसा कोई चर्मरोग होने से पोलीफाइबर की बाथरूम में इस्तेमाल होने वाली चप्पलें पहनने से डाॅक्टर ने मनाही कर दी थी. मुक्तिबोध अमूमन वही चप्पल पहने रहते थे. उन्हें किसी तरह लंगड़ाते हुए नंगे पैर काॅलेज आना पड़ा. मैंने उनसे अनुनय किया कि यदि वे चमड़े की चप्पल पहन सकते हैं तो डाॅक्टर की बात और उनकी सुविधा दोनों के बीच संतुलन हो सकता है.

ज़ाहिर है आर्थिक कारणों से मुक्तिबोध ने मेरी बात अनसुनी कर दी. मैंने उनसे पूछे बिना दूसरे दिन बाटा की दूकान से पच्चीस रुपए में एक जोड़ी चमड़े की चप्पलें खरीदकर स्टाफ रूम में उनकी प्रतीक्षा की. जब उन्होंने मुझे डिब्बा खोलते देखा तो वे नाराज़ हो गए. उन्होंने कहा कि क्या मैं समझता हूं कि वे चप्पलें नहीं खरीद सकते. उनसे पूछे बिना मैंने यह सब क्यों किया. वे मुझसे पहली बार नाराज़ हो रहे थे. बाद में नियति ने ही मौका नहीं दिया. मैंने बेहद विनम्र होकर पहली बार उनके चरण छुए और पूरे अभिनय के साथ अपने हाथों उन्हें चप्पल पहनाने की कोशिश की.

मैं उन आंखों का ताप आज तक झेल रहा हूं. ताप में नमी का अहसास अजीब सा स्पंदन पैदा कर गया. उन्होंने मुझसे चप्पल के दाम पूछे और उसकी कीमत लौटाने की शर्त पर ही चप्पल पहनना कबूल किया. वे बाद में सहज हो गए. तब मैंने कहा कि मैं बस इतना ही काबिल हूं कि उनके चरणों का ध्यान रख सकूं. हम उस मामूली घटना को भूल गए. उसमें याद रखने लायक आज भी कुछ नहीं है. लेकिन उनकी आंखों से एक साथ कई मौसम जिस तरह बरसे थे उसमें भीग जाने का अनोखा अनुभव मुझमें उस साहस का संचार कर गया कि मैं रिश्ते में एक कदम और बढ़ा सकता था.

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 साइंस काॅलेज रायपुर के अंगरेज़ी विभाग के प्रोफेसर प्रेमनारायण श्रीवास्तव मेरे दिग्विजय महाविद्यालय में पदस्थ होने के बाद मुक्तिबोध से मिलने के लिए उतावले हो उठे थे. नवम्बर 1963 के आसपास मेरे आग्रह पर वे एक दिन मुक्तिबोध से मिलने राजनांदगांव आए. मैंने अपने घर पर दोनों के लिए दोपहर के भोजन का प्रबंध किया. समय पर आने का वायदा करके भी मुक्तिबोध नहीं आए. उन दिनों महाविद्यालय प्रशासन से छात्र संघ के चुनाव तथा अन्य स्वायत्तताओं को लेकर मेरा मतभेद हो गया था. छात्रों का पक्ष लेने के आरोप लगाता प्रशासन मुझसे खफा था. वह दिन छुट्टी का था. फिर भी महाविद्यालय प्रशासन समिति के कुछ सदस्यों तथा प्रमुख अध्यापकों की एक बैठक प्राचार्य के निवास पर अचानक आयोजित कर ली गई. मुक्तिबोध भी उस बैठक में शामिल किए गए.

जानकारी मिलने पर मैंने हिम्मत करके प्राचार्य के टेलीफोन पर मुक्तिबोध से बात करने की कोशिश की. प्राचार्य खुद ही टेलीफोन उठाते थे. उन्होंने मेरी अनसुनी कर दी. कुछ ठहरकर मैंने दोबारा कोशिश की. उन्होंने मुक्तिबोध को टेलीफोन पकड़ा दिया. मुझे सुनाई पड़ा कि मैं आपके यहां भोजन पर नहीं आ सकता. मैंने जिद की और याद दिलाया कि मैंने तो इजाजत ले ली थी. उन्होंने जवाब दिया कि मुझे यह समझना चाहिए कि एक प्राचार्य के घर का भोजन का आमंत्रण और एक अध्यापक के घर का भोजन का आमंत्रण एक जैसा नहीं होता. मुझमें प्रशासनिक तामझाम की इतनी समझ होनी चाहिए कि प्राचार्य के घर से एक अध्यापक का अचानक उठ आना अनुशासनहीनता के दायरे में भी आता है. यह संकेत भी मुक्तिबोध ने ही दिया था.

दूसरे दिन काॅलेज में मिलने पर उन्होंने मुझसे कहा था कि वे खेद प्रकट करने या माफी मांगने का ढोंग नहीं करेंगे. हम दोनों को व्यवस्थाजनित प्रतिबंधों की निर्ममता को निर्विकार ढंग से समझ लेना चाहिए. उन्होंने अलबत्ता यह कहा कि मुझे प्रोफेसर श्रीवास्तव से माफी मांगते वक्त उनका भी प्रतिनिधित्व कर लेना चाहिए था. उनकी आंखों में जो भाव था उसकी स्याही से ही शायद ‘विपात्र’ की कथा का मुख्य किरदार रचा गया होगा.

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मुक्तिबोध के निधन का समाचार मुझे बालाघाट में मिला था. उनके अंतिम संस्कार में तत्काल पहुंच जाने का समय, प्रबंध और उद्यम कुछ भी हासिल नहीं था. उसी रात मैंने कवि के अवसान पर अपने जीवन की एकमात्र कविता लिखी और उसे जबलपुर के एक दैनिक में प्रकाशन के लिए भेज भी दिया. वह कविता पता नहीं कहां है.

मुक्तिबोध परिवार के लिए पत्र लिखना भी मेरे लिए न जाने क्यों संभव नहीं हो पाया. थक हारकर मैंने एक तार रमेश के नाम से भेजा. मुझे मालूम था कि बालाघाट में मेरे नाम का अन्य कोई उनका परिचित नहीं होगा. इसलिए मैंने पूरा नाम लिखने के बदले तार में अंगरेज़ी में प्रेषक का नाम केवल तिवारी ही लिख दिया. तार विभाग की लापरवाही के कारण अंगरेज़ी के पहले दो अक्षरों ‘टी.आई.’ के बदले ‘आई.टी.’ लिख दिया गया. तार अपने लक्ष्य तक पहुंचा लेकिन मेरी संवेदना नहीं पहुंची.

एक अरसा बाद रमेश से मुलाकात हुई. उन्होंने सभी सूचनाओं, चिट्ठियों और प्रतिक्रियाओं आदि को सहेजकर रखा था. रमेश ने उलाहना दिया कि मेरे लिए मुक्तिबोध का जाना मानो कोई घटना ही नहीं है. मैंने सफाई दी कि मैंने उसी दिन तार भेजा था. रमेश की फाइल में वह तार पड़ा था. उसे मुझ ‘तिवारी’ के बदले किसी ‘इतवारी’ ने भेजा था. रमेश को यह समझ ही नहीं आया था कि बालाघाट में कौन इतवारी है जो मुक्तिबोध के नहीं रहने पर त्वरित गति से द्रवित हो गया था. अंगरेज़ी में छपे हुए सूत्रबद्ध संदेषों का संबंधित नम्बर डालकर मैंने केवल अपना उपनाम लिख दिया था.

मुक्तिबोध भी तो गजानन माधव नामक अपनी व्यक्तिवाचक संज्ञा के परे होकर पारिवारिक उपनाम के सार्थक ब्रांड अंबेसडर हो गए थे. इस घटना के कारण लेकिन मुझे अपने उपनाम से कोफ्त हो चली थी. कवि के परिवार से आज तक आत्मीय रूप से जुड़े रहने का मुख्य कारण रमेश का मुझे मेरे प्रथम नाम से पुकारना है. मुक्तिबोध मुझे इस नाम से नहीं पुकारते थे. वे अमूमन तो नाम से संबोधन ही नहीं करते थे. कभी करते तो मेरे नाम के पीछे ‘जी’ लगा देते. वह ध्वनि उनकी कविता की पंक्ति में गूंज रही है ‘मुझे पुकारती हुई पुकार खो गई कहीं.’

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इस कवि की कविता की एक पंक्ति कहती है ‘पता नहीं कब कौन कहां किस ओर मिले.’ मुझे अब तक पता नहीं ‘यादें’ और ‘कभी कभी’ एक दूसरे के समानार्थी क्यों होने लगते हैं. कोई पचास बरस बाद मैं उन्हें नहीं शायद मुक्तिबोध मुझे खोज रहे हैं. इस कवि से मेरा निजता का रिश्ता रहा है, लेकिन शायद कविता से उतना नहीं. इसलिए भी वे मेरे साथ रहकर खुद को महफूज़ महसूस करते थे. राजनांदगांव के कस्बे में मुक्तिबोध कविता के लोकव्यापीकरण के संदर्भ में तो निस्संग ही थे. मैं अपने पारिवारिक कारणों से. हम दोनों की अलग अलग निस्संगताएं अनिवार्य सोहबत का कारण बनीं. वे जब भी अपनी कविता को स्पष्ट करना चाहते, मैं कविता से ज़्यादा कवि के निकट हो जाता.

मुक्तिबोध की कविताओं में स्वप्न की जटिल इमेजरी (बिम्ब विधान) अनायास है. जीवन के यथार्थ उनके सपनों से भी झरते थे. बाद में यह प्रामाणिक सिद्ध हुआ कि उनके सपनों में भी कविता ही तो रही है. कवि के साथ रहते लोग उसकी कविता के कारक, वाचक या पाठक रहे होंगे लेकिन उनकी कविता के स्वप्न के यथार्थ को उनके जीवनकाल में नहीं समझ पाए. हमें अक्सर लगता कि वे बातें करते करते अपनी कविता में खो जाते.

बख्शी जी कहते कि उनकी कविता की कई पंक्तियां समझ ही नहीं आतीं. फिर कहते वे दुरूह होने पर भी सारगर्भित तो होंगी. वे अपनी निश्छल भाषा के जरिए कविता को बहुआयामी बना देने के समर्थ शब्द-कारीगर भी लगते. मुक्तिबोध सूक्ष्म को भी इस तरह तराशते चलते कि कविता के मर्म पर गड़ी आंखें चुंधियाने लगतीं. आंखों की पुतलियां कविता के आखेट में चिड़िया की आंख के काले धब्बे को देखने को तरसती रहती. वह छोटा होता होता सूक्ष्म होता और फिर अदृष्य, लेकिन कुछ दिखते रहने का बोध या भ्रम ज़रूर पैदा करता.

मैंने एक बार लिखा था ‘जब आकाश धुंधलाने लगे, तब कविता सितारों की तरह थिरकने लगती है. एक एक कविता आसमान में टंके हुए तारे की तरह होती है. उस पर दृष्टि स्थिर करो तो वे सूक्ष्म तारे वृहद आकार में बदल जाते हैं. उनमें एक एक विश्व दिखाई देता है. पाठक की दृष्टि में संसार समेटने की क्षमता कहां होती है. इसलिए वे तारे सूक्ष्म नोक में बदलकर आंखों में गड़ने लगते हैं. आंखें छलछला आती हैं, लेकिन कविता दृष्टि से ओझल नहीं होती. अपने में इंद्रधनुषी रंग लिए झिलमिलाने लगती है. यदि यही सब कविता है तो कविता की समझ का दायरा दृष्टिदोष पर भी निर्भर होता है.’

विशेषणों का समुच्चय हर कवि के लिए आलोचकों के जतन में होता है. यह तो प्रतिपाद्य कवि के लिए साधारणीकरण करने का चोचला है. मुक्तिबोध की कविता को पढ़ते हुए कवि का नाम नहीं बताए जाने पर भी विश्वासपूर्वक उन पर उंगली रखी जा सकती है. कई तत्सम और तद्भव शब्दों के गुम्फन के भी ज़रिए बल्कि कई बार शास्त्रीय नस्ल की भाषा का इस्तेमाल करते मुक्तिबोध आधुनिक किस्म की जनवादिता का आह्वान करते हैं. ऐसे शब्दों का इस्तेमाल नीयतन नहीं किया गया होता. उसमें से उनकी वाग्मिता का निर्झर भी बहता है.

वह लेकिन विद्रोह का जनदस्तावेज़ इस तरह भी रचना चाहते हैं जिसके लिए टकसाल में गढ़ी हुई किसी समकालीन या अंतर्राष्ट्रीय भाषा के विन्यास के लिए सायास उत्प्रेरण नहीं करना होता. मुक्तिबोध का काव्य  लेखन उनका साहित्य-धर्म रहा होगा. उसे लेखकीय कर्म भी लोग कहते हैं. लेकिन दरअसल वह ऐसा मानवीय मर्म है जिसे मुक्तिबोध की इबारत में पढ़ने से अहसास होता है जो उनके पहले हिन्दी कविता ने अपनी स्याही का पसीना बहाकर तब तक तो उस तरह हासिल नहीं किया था.

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कविता में सूक्ष्म होने के कारण उसे ढूंढ़ना आरोप की भाषा है या यह कविता पर भाषा का आरोप है-कहा नहीं जा सकता. रचना की सार्थकता यही है कि वह जिन उपादानों से रची जाए, उन्हें फलितार्थ में रचना की प्रतिकृति बना दे. पाठक या श्रोता इन्द्रियों की प्रयोगशाला है. कविता का होना लेकिन इन्द्रियातीत होना है.

मुक्तिबोध जैसे कवि सदैव मनुष्य बने रहे. उनकी निजी ग्रंथियां तक मानवीय मूल्यों की उत्प्रेरक रही हैं. उनके पारिवारिक भौतिक जीवन में असंगत ज़्यादा रहा है. नहीं रहता तो कवि में जीवन भले होता, कविता कहां रहती ! उनके मन में जो कुछ छूट जाता रहा, वही चकरघिन्नी की तरह घूमता रहता. फिर कविता के गर्भगृह में तब्दील होता. अनुशासनबद्ध चलने के विरुद्ध संभवतः सृष्टि के आदेश के विद्रोह को मुक्तिबोध का काव्य कहा जा सकता है. यह वह मदारी है जो बीन बजाकर सांप की तरह फन काटती अनुभूतियों को भी कविता का पेट पालने के लिए कच्चा माल बना लेता है. विष हरने की मंत्रबुद्धि को भी कविता क्यों नहीं समझा जा सकता ?

वार्तालाप-निपुण मुक्तिबोध की आंखों से कई बार सम्मोहन जैसा कुछ झरता रहता था. मैं तब कविता के बाल प्राइमर की पाठशाला में था. मुक्तिबोध उसका खुला विश्वविद्यालय थे. लगता उनमें सांसों का जो उतार चढ़ाव प्रवहमान है, वही कविता है. मुझे कवि से ज़्यादा उसके कवि होने की पृष्ठभूमि पर भरोसा रहता है. इसलिए मैं कवि तो क्या कविता का पाठक भी कहां बन पाया. मुझे भ्रम होता कि कहीं कविता को समझाने के अय्यार बने वे अपनी वैयक्तिकता को मेरी आंखों में ठूंस तो नहीं रहे हैं.

उनकी विनम्रता में सबसे पहले और सबसे ज़्यादा समाज-सार्थक व्यंग्य आज भी मुझे दिखाई पड़ता है. वे जब अपने सपने में भी सचेतन होते तो हम उसे यथार्थ कह सकते थे. मुक्तिबोध की दृढ़ हनु का फलितार्थ तब समझ नहीं आया था. वह उनकी कविता के रूपक का केवल चोचला नहीं है. अपनी निस्संगता महसूस करते मुक्तिबोध हर वक्त रचनात्मक उर्वरता की स्थिति में जीते. व्यापक भारतीय जीवन के कोलाहल की जो ध्वनि हहराती थी, उसे भी उन्होंने अपनी कविता की सिम्फनी बना दिया. वे शास्त्रीय संगीत के आदिम ध्रुपद राग की तरह के बेलौस गायक थे. किसी सेठिए की पुत्री के विवाह के वक्त फीस के लिए बुलाए गए किसी अनमने गायक की तरह नहीं. ज्ञानेन्द्रियां ही तो उनकी कविता को समझने का माध्यम हैं.

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