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कैंसर के बढ़ते खतरे को गंभीरता से लेने की जरूरत है

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सैयदा तैय्यबा काज़मी
पुंछ, जम्मू

हाल ही में बिहार के पूर्व उपमुख्यमंत्री की कैंसर से मौत के बाद एक बार फिर लोगों का ध्यान इस बीमारी के बढ़ते खतरे की ओर गया है. इसकी गंभीरता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि कई स्वास्थ्य संगठन और संस्थाएं देश में कैंसर के बढ़ते खतरे पर लगातार चिंता जता चुके हैं. पिछले महीने विश्व स्वास्थ्य दिवस के मौके पर देश के मशहूर हॉस्पिटल ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा था कि बहुत जल्द भारत दुनिया में सबसे ज्यादा कैंसर मरीजों वाला देश बन जाएगा. भारत में महिलाओं में स्तन और गर्भाशय का कैंसर सबसे आम है, जबकि पुरुषों में फेफड़े, मुंह और प्रोस्टेट कैंसर का खतरा सबसे ज्यादा है. अन्य देशों की तुलना में भारत में कैंसर का जल्दी पता लगाने की दर भी अपेक्षाकृत कम है. ज्यादातर मरीजों में कैंसर का पता आखिरी चरण में ही चल पाता है जहां इस बीमारी का इलाज काफी मुश्किल हो जाता है.
आंकड़ों के मुताबिक, साल 2022 में दुनिया भर में कैंसर के 20 मिलियन (दो करोड़) नए मामले सामने आए। जिसमें 97 लाख से ज्यादा लोगों की इससे मौत हुई है. इतना ही नहीं, शोधकर्ताओं का अनुमान है कि 2050 तक कैंसर रोगियों की संख्या सालाना 35 मिलियन (3.5 करोड़) तक पहुंच सकती है. पिछले दशक के आंकड़े बताते हैं कि भारत में इस गंभीर और जानलेवा बीमारी के मामले साल दर साल तेजी से बढ़ रहे हैं. हालांकि प्रौद्योगिकी और चिकित्सा में नवाचारों के कारण कैंसर अब एक लाइलाज बीमारी नहीं है, लेकिन चिकित्सा खर्चों के कारण इसका इलाज आम लोगों तक पहुंच अब भी मुश्किल है. शोधकर्ताओं का कहना है कि इस दशक के अंत तक देश में कैंसर के मामलों में 12 प्रतिशत की वृद्धि होने की उम्मीद है. 5000 साल पहले सबसे पहले मिस्र में सामने आई यह बीमारी अब दुनिया के ज्यादातर घरों में अपनी पकड़ बना चुकी है. कैंसर तब होता है जब कोशिकाएं असामान्य रूप से और बहुत तेजी से फैलती है. सामान्य शरीर की कोशिकाएं बढ़ती हैं और विभाजित होती रहती हैं. समय के साथ यह समाप्त भी हो जाती हैं. इन सामान्य कोशिकाओं के विपरीत, कैंसर कोशिकाएं नियंत्रण से बाहर बढ़ती और लगातार विभाजित होकर शरीर में बढ़ती रहती हैं. साथ ही ये कोशिकाएं अन्य अंगों के सामान्य कामकाज में भी बाधा डालती हैं. 
अगर केंद्र प्रशासित जम्मू-कश्मीर की बात करें तो पिछले चार वर्षों (2019-2023) में जम्मू-कश्मीर में कैंसर के लगभग 51000 मामले सामने आए हैं. केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़ों से पता चलता है कि 2019 में 12,396 मामले, 2020 में 12,726 मामले, 2021 में 13,060 मामले, 2022 में 13,395 मामले और 2023 में लगभग 13,395 मामले सामने आए थे. 

ये आंकड़े साफ दर्शाते हैं कि हर साल कैंसर पीड़ितों की संख्या में बढ़ोतरी हो रही है. इस वृद्धि के साथ कई कारक जुड़े हुए हैं जैसे तंबाकू का उपयोग, अत्यधिक शराब का सेवन, मोटापा, गतिहीन जीवन शैली और कई पर्यावरणीय कारक. मैंने स्वयं अपने परिवार में कैंसर के कारण तीन मौतें देखी हैं. इसी प्रकार पुंछ में कई अन्य लोग अपने प्रियजनों के कैंसर से प्रभावित होने की गवाही देते हैं. पुंछ जिला के बांडी चेंचियां गांव की रहने वाली सना (बदला हुआ नाम) ने पिछले साल ही अपनी मां को कैंसर से खो दिया था, वह पेट के कैंसर से पीड़ित थी. सना कहती है कि “उनकी लड़ाई साहसी थी. उनके इस गंभीर बीमारी से लड़ने के लिए बहुत अधिक पैसे की आवश्यकता थी. फिर भी हम से जहां तक मुमकिन हुआ खर्च किया. अंतिम समय में उनके संघर्ष को देखना दिल दहला देने वाला था.”
यहां सवाल यह है कि यह बीमारी क्यों बढ़ रही है और हमारी चिकित्सा प्रणाली इसके खिलाफ क्या कदम उठा रही है? क्या चिकित्सा प्रणाली इस बीमारी से प्रभावी ढंग से लड़ने में सक्षम है? या क्या हमें और अधिक सुधार की आवश्यकता है? ‘भारत में कैंसर का बोझ’ पर भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद की रिपोर्ट के अनुसार, कैंसर से होने वाली मौतों में फेफड़े का कैंसर (10.6 प्रतिशत), स्तन (10.5 प्रतिशत), ग्रासनली (5.8 प्रतिशत), मुँह (5.7 प्रतिशत), पेट (5.2 प्रतिशत), यकृत (4.6 प्रतिशत) और गर्भाशय ग्रीवा (4.3 प्रतिशत) है. 

भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) के राष्ट्रीय कैंसर रजिस्ट्री कार्यक्रम के अनुसार, भारत में विभिन्न राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में कैंसर की घटनाएं 2020 में 7,70,230 थी. यह 2021 में बढ़कर 7,89,202 और 2022 में 8,08,558 हो गई. पुंछ के कस्बा गांव के निवासी शकील रज़ा, जो आर्थिक रूप से बहुत कमजोर हैं, कहते हैं कि “उन्होंने कुछ साल पहले कैंसर के कारण अपने पिता को खो दिया था. इस दौरान वित्तीय संघर्ष और उनके पिता की बीमारी दोनों असहनीय थी.” वह कहते हैं कि हमारी वित्तीय स्थिरता बहुत नाजुक थी. पिता के इलाज के लिए बहुत कर्ज लेना पड़ गया. जिसे उतारने के लिए वह दिन रात मेहनत करते हैं.
इस संबंध में, स्थानीय पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता बशारत हुसैन कहते हैं कि जम्मू के इस सीमावर्ती जिला पुंछ में भी कैंसर का खतरा लगातार बढ़ता जा रहा है. इसके इलाज में काफी पैसा खर्च होता है. आर्थिक रूप से कमजोर परिवार के लिए इसके इलाज का बोझ वहन करना संभव नहीं रह जाता है. हालांकि सरकार की ओर से गरीबों के लिए मुफ़्त इलाज की व्यवस्था है, लेकिन बहुत कम परिवार इसका लाभ उठा पाता है. जबकि यह बीमारी सभी वर्गों में तेजी से अपना पांव पसार रही है. वह 

सुझाव देते हैं कि इस संबंध में सरकार उन लोगों की मदद के लिए और भी कई स्तर पर उपाय लागू कर सकती है जो आर्थिक रूप से कमजोर हैं और कैंसर के इलाज का खर्च उठाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. इसके लिए, सरकार को मौजूदा स्वास्थ्य देखभाल कार्यक्रमों की स्थापना या विस्तार करना चाहिए जो विशेष रूप से कैंसर के इलाज के लिए सब्सिडी या वित्तीय सहायता प्रदान करे. इसमें कम लागत वाली दवाएं, कीमोथेरेपी और सर्जरी शामिल हो सकती है. ये कार्यक्रम सभी नागरिकों के लिए सुलभ होने चाहिए, भले ही उनकी आय का स्तर कुछ भी हो. 

वह कहते हैं कि सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली के भीतर विशेष कैंसर उपचार केंद्रों को विकसित करने और बनाए रखने की आवश्यकता है जो जरूरतमंद लोगों को मुफ्त या कम लागत वाली सेवाएं प्रदान कर सके, साथ ही मुफ्त या सब्सिडी वाली दवाएं प्रदान करने के लिए दवा कंपनियों के साथ सहायता कार्यक्रम स्थापित करने को बढ़ावा दिया जाना चाहिए. बशारत कहते हैं कि कैंसर का शीघ्र पता लगाने और रोकथाम के महत्व के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य अभियानों में निवेश करने की बहुत आवश्यकता है. विशेषकर पुंछ जैसे दूर दराज के ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसे कार्यक्रमों को अधिक से अधिक प्रमोट किया जाना चाहिए. साथ ही इलाज और दवाइयों का खर्च भी कम होना चाहिए. इस मामले में फार्मास्युटिकल कंपनियां भी अहम भूमिका निभा सकती हैं. वे कैंसर की दवाओं की लागत कम कर सकते हैं और उन्हें जरूरतमंद लोगों के लिए इसे और अधिक सुलभ बना सकते हैं. इन उपायों को मिलाकर, सरकार कैंसर के इलाज तक पहुँचने में वित्तीय चुनौतियों का सामना करने वाले व्यक्तियों और उनके परिवारों के लिए अधिक सहायक वातावरण बना सकती है क्योंकि अब कैंसर के बढ़ते जोखिम को बहुत अधिक गंभीरता से लेने का समय आ गया है. (चरखा फीचर)

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