अग्नि आलोक

अच्छे खासे प्रश्न खड़े करती हैं देश के प्रधान मंत्री के मुंह से निकले गैर जिम्मेदाराना शब्द

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लोकेश जैन “जुनूनी”

(आर्टिकल साझा करने से पहले आपसे अपना दर्द ए संदर्भ साझा करना चाहूंगा। पिछले दिनों लोकसभा में हमारे देश के प्रधान मंत्री/ प्रधानसेवक/ नॉन बायोलॉजिकल का प्रतिपक्ष के नेता के लिए “बालक बुद्धि” की उपमा से संबोधन कर के दिए गए भाषण को सुनने के बाद, मेरे ज़हन में बालक बुद्धि को लेकर निरन्तर बहुत सी स्मृतियां, बेचैनिया, प्रश्न कुलाचें मारने लगे। देश के सर्वोच्च पद पर आसीन नेता के मुंह से निकले ये तकलीफ़देह, गैर जिम्मेदाराना शब्द, लफ्ज़, जुमले, बिंब, उपमा मुसलसल मेरे कानों में हंटर की मार की तरह गूंज रहें है। ये कैसी बदनसीबी है, हमारे देश की हमारे रहबर ए मुल्क बच्चों के बारे में उनके मन, उनकी समझ-बूझ, मानसिकता, मनोविज्ञान के बारे में इतनी कमतर समझ रखते हों, हालांकि उनके अगर इससे पहले बच्चों से संवाद करते हुए “डिफ्लेक्सिया” पर दिए गए बयान या कई मौकों पर उनके व्यवहार को ध्यान से देखें तो ये सब बातें आपकी समझ के ऊपर अच्छे खासे प्रश्न खड़े करती हैं।)

आपकी ज़ुबानी बार-बार बालक की उपमा का प्रयोग करके बोले गए वाक्यों पर अगर गौर करें तो….

“घमंड में घूमता बालक, रोता बालक,

झूठ बोलने वाला बालक,

अपनी गलतियों को छुपाने वाला बालक,

फेल होने पर जश्न मना मनाकर वर्ल्ड रिकॉर्ड बनाने वाला बालक,

स्कूल में मार खाकर आया बालक,

मां से शिकायत करता,बचकानी हरक़त करने वाला बालक,

बोलचाल और व्यवहार के बिना पते ठिकाने वाला,विलाप करता,गले पड़ता बालक

हरेक सीमाओ से परे मां की गाली देता, किताबें फाड़ता, दूसरे बच्चों की टिफिन चुराकर खानेवाला बालक,

टीचर को चोर कहने वाला बालक, चीटी मर गई, चिड़ियां उड़ गई से, मुझे इसने मारा मुझे उसने मारा, शिकायत कर करके सहानुभूति हासिल करने वाला बालक।

बालक, बालक, बालक, बालक, बालक बस ड्रामेबाज़ बालक।

आप जनाब ए अदब, एक बार भी नेता प्रतिपक्ष का नाम लिए बैगैर, इन किस्सों इन आलोचनाओं को बस “बालक, बालपन और

बालबुद्धि” के बिंब के माध्यम से ही गड़ते गए।

उफ्फ बेचारा बालक!

पिछले करीबन दो दशक से भी ज़्यादा से बालक, बालबुद्धि, बालज्ञान, बालविचार, बाल अधिकार, बाल मासूमियत, बाल समझ बाल विकास और बाल शिक्षा के साथ निरंतर काम कर रहा हूं। विपक्ष पर अपना हमला बोलने के लिए इतने वसीह और विविधता, संस्कार, संस्कृति से भरे देश में बच्चों को इस तरह मज़ाक उड़ाने का विषय बनाना आप जेसे पद पर आसीन व्यक्ति को शोभा नहीं देता।

इस विषय की गंभीरता को ध्यान में रखते हुए मैं आप सभी पाठकों के साथ, अभी हाल ही में किए गए अपने नाटक के “रंग ए बहारा” के बालकों, बालिकाओं के कुछ अनुभव साझा करना चाहूंगा। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है बच्चों के इस नाटक में ये सभी बच्चे बिल्कुल हाशिए पर पड़े हुए, सड़क फुटपाथ पर, मेट्रो स्टेशन पर, आश्रय गृह में रहने वाले बेघर शहरी गरीबी में अपना जीवन यापन करने वाले गुमनाम बच्चे हैं। जो हर पल संघर्ष करके, मजदूरी या छोटा-मोटा काम करके अपना जीवन चलाते हैं। ये हौसले से भरे आपकी भाषा से विपरीत वाले “बालक” हैं।

बालक की इन टिप्पणियों को सुनते हुए मुझे कई बार अपनी वर्कशॉप में काम करने वाले उन बालकों को याद करते हुए रोना आया है गुस्सा और छटपटाहट भी महसूस किया है। बहरहाल, मैं उम्मीद करता हूं इस श्रेष्ठतम सर्वोच्च आसीन व्यक्ति से वो अपने पद और भाषा की मर्यादा और गरिमा का ध्यान रखे। आप सभी पाठकों के साथ अपना ये आर्टिकल साझा कर रहा हूं कृपया इस बाल बोध, दर्द, संघर्ष को पढ़े और अपनी राय भी ज़ाहिर करे)

धुंधली…बेसबब..….
बेतरतीब… सुगबुगाहट…
“रंग ए बहारा की तलाश में”

भाषा की पैदाइश में सबसे पहले सिर्फ़ चित्र दिखाई देते हैं, उस जन्म के वक्त को अगर गौर से देखे तो इंसान उन्हीं चित्रों के माध्यम से लिपि को तलाशता, तराशता दिखाई देता है। ऐसा लगता है वो अपनी निर्गुण, निराकार भावनाओं को आकार देना चाहता है उसमें उसकी सोचने समझने की ताक़त सभी कुछ अभिव्यक्त करने की इच्छा ,उसका संघर्ष, कल्पनाशीलता, कहानी काव्य, विज्ञान खोजने की तड़प, ललक, बैचैनी सब दिखाई देती है। भोपाल के क़रीब भीमबेटका की गुफाओं में हज़ारों वर्ष पुराने गेरुआ, लाल, सफेद, पीले, हरे खनिज रंगों से शिलाओं पर बने चित्र, लिपि की उत्पत्ति ओर उसके जीवन की अभिव्यक्ति के सुरों का संगम हैं। नाचते, गाते, शहद जमा करते, घोड़ों और हाथियों की सवारियों के साथ आभूषणों को सजाता सौंदर्यबोध, सिंह, जंगली सुअर, हाथियों, कुत्तों और घड़ियालों की आकृति में रचे बसे चित्र इंसान की भावनाओं की बेचैनी और लिपि की उत्पत्ति दोनों के इज़हार का संगम हैं।

ये मिलन ये क़ैफ़ियत उसके अंदर एक अजब और बेशुमार अनोखे रंग ए बहारा के जश्न को पैदा करती है। जो गुफाओं में रहते वाले उस इंसान से लेकर, आज तक के विज्ञान से भरे हुए इंसान में अंदर, साफ़-साफ़ दिखाई देता है। यही इच्छा, यही ख्वाहिश, उसे पशु से इंसान बनाती है। इंसान के लिए सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में शामिल रहना, उसका बहुत ही मूलभूत और स्वभाविक मिजाज़ है।

मनुष्य के हजारों सालो के इतिहास में ये संघर्ष साफ़-साफ़ दिखाई देता है। वो सदा सीखता, सिखाता रहा है। उसकी अंदर की बैचैनी, निरंतर उत्तर ढूंढने की ख्वाहिश या प्यास, उसको सदा आगे बढ़ाती रही हैं। उसके अंतरमन से उपजे प्रश्न, कल्पनाओं की उड़ान, तार्किक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से फूटे, अनोखे उत्तर, समाधान को ढूंढने की तृष्णा उसकी सूक्ष्म दृष्टि को विकसित करती रहीं हैं। सबसे महत्त्वपूर्ण हैं सीखने की प्रक्रिया, जो प्रकृति की प्रेरणा में से निकल कर आती है। रंगों और आकृति के स्वरों में रची बसी कायनात की यही विविधिता या अस्पष्टता, हमारे को सदा अपनी और आकर्षित करती रहीं है। उसके नए-नए रंग,खुश्बू, लज़्जत, छूअन के अनुभव बेशुमार गुत्थियों को सुलझाते रहे हैं।

एहसास से जानने की इच्छा ही उसे मृत्यु और जीवन से परे बुद्ध के “अनित्यवाद दर्शन” के पल-पल में बदलते स्वरूप के चुंबक की ओर बढ़ने के लिए राह दिखाती रही हैं। लुब्ब-ए-लुबाब ये है की “कुदरत का ज़र्रा-ज़र्रा अनोखा है, वैसे ही हर इंसान की जानने, बूझने की ललक भी अनोखी है”। हर एक आदम हौवा का बच्चा अपने आप में मुख़्तलिफ़ है। यही वो शिक्षा का मूल सिद्धांत हैं जो हमारे को विविधता की ओर ले जाने के लिए प्रेरित करता रहा है।

कुदरत के इस सिद्धांत से एक बात तो बिलकुल साफ़ हो जाती है की शिक्षा की चाहे कोई भी पद्धति हो, इंसान सबसे पहले कुदरत के इस खुले आसमान की पाठशाला से ही सीखता, सिखाता रहा है और बिला शक ये सिलसिला आगे भी यूं ही चलता रहेगा क्योंकि यह उसका मूल स्वभाव उसकी फितरत है।”ख़ला”(ख़ाली जगह) को रंग ए बहारा की आकृति से भरना ही उसका मूल स्वभाव है।

रंग ए बहारा लिखने के सफ़र में चंद बातें और दिखाई दीं, अगर गौर से देखे तो मौजूदा हालात में फिरका परस्ती, तंग नज़रिया, जब सारी दुनिया मे ज़ोर पकड़ता चला जा रहा है तब अचानक से पहले दिन ही वर्कशॉप में बच्चों की मुस्कुराहट, उनकी मस्ती, उनकी उद्दंडता नोक-झोंक, लड़ाई-झगड़ा देखते हुए, रंगों का ख्याल आ गया। रंगों की विविधता में एक अजीबो गरीब पशोपेश हैं जो इस वक्त हमारे मुल्क में भी घट रही है।

हमारे देश की सबसे बड़ी ताकत सिर्फ़ यहां की विविधता ही नहीं है बल्कि यहां की अस्पष्टता भी है। यह मुल्क क्या है इसे अभी तक खोजा ही जा रहा है। फिर एक रंग, एक ख़्याल को ही सच मानने वाले लोग, दुनिया के बेशुमार अलग-अलग रंगों से, अपने आप को सिर्फ उससे अलग ही नहीं समझते बल्कि उससे बेइंतहा नफ़रत भी करते हैं। अगर हम ध्यान से देखें तो बच्चे बेशुमार रंगों से भरी दुनिया में ही जीना चाहते हैं और उसे ही बहुत पसंद करते हैं।

महावीर का “अनेकांतवाद” का जो सिद्धांत है जो हमारे मनुष्यता की जड़ों में रचा बसा हुआ है वह भी हमें यही तालीम देता है। जैसे इस दुनिया में हर रंग अनोखा है वैसे ही इस दुनिया में हर एक इंसान भी अनोखा है। यह दुनिया कितनी बदमज़ा होगी अगर सारी की सारी दुनिया एक ही रंग में रंगी हुई दिखाई देती, तो फिर इन वादियों इन झरनों पेड़ पहाड़ इंद्रधनुष किसी का कोई मतलब नहीं रह जाता। इसी ख्याल की मोहब्बत की कशिश से गुजरते हुए नाटक को बनाते-बनाते रोज कलम घिसने लगा, इसमें प्रकृति के साथ साथ मौजूदा हालात भी अपने आप आने लगें।

जैसा मैने कहा और स्पष्ट रूप से कहना चाहूंगा, रंगों की यही विविधिता या अस्पष्टता से हमारे देश की जड़ों में रचे बसे अनेकों दर्शन दिग्दर्शन, फ़लसफे, ज्ञान के अनेकों रास्ते विकसित हुए हैं। इसको सिर्फ विविधता से नहीं समझा जा सकता बल्कि ये एक ऐसी गुत्थी है, ऐसी अस्पष्टता है जो हमारे इस देश को निरंतर खोजती ही रहती है तभी तो अल्लामा इक़बाल फरमाते हैं,

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए-ज़मां हमारा
लेकिन आज के इस दौर में मैं गुलज़ार देहलवी साहिब की ज़ुबानी साफ़ साफ़ कहूंगा
“किसको सुनाए गंगा अज़मत की दास्ताने,
है डाकुओं का हमसर्फ अब कारवां हमारा
सारे जहां में रुसवा, हिन्दोस्तां हमारा
हम इसके चील कव्वे, यह बेज़बा हमारा”
हर रंग को सरेआम लूटा जा रहा है, जम्हूरियत के नाम पर वोट बटोरकर सेवक से बादशाह बनकर बैठे हुए, रहनुमा और सरपरस्त की सबसे बड़े लुटेरे हैं।

बात सिर्फ़ इतनी सी है रंगो से भरे मुल्क रंगिस्तान में बच्चों को रंगों से भरी दुनिया पसंद है और अल्हब्बू नाम के बादशाह को एकरंगी दुनियां, तू तू मैं मैं का यहीं सिलसिला बच्चों के हर रंग पर विचार पर पाबंदी लगा देता है। उनके हर खेल को सिर्फ़ बादशाह के ही पसंदीदा खेल में बदलना चाहता है। उनके स्कूल पढ़ाई सोच सवाल सब पर काबू करना चाहता है। सारे बच्चे मिलकर इसका विरोध करते हैं और गांठों को खुद ब खुद सुलझा देते हैं। बच्चों की फितरत ही रंगो के साथ जश्न मनाने की है उन्हें कौन रोक सकता है।

रंग ए बहारा को बनाते हुए इस सफ़र में हम जिन बेघर आश्रय गृह में बच्चों के साथ काम कर रहे हैं वहां पर भी ये स्वाभाविक सीखने की प्रक्रिया का सिद्धांत, सभी बच्चों के मूलाधार के साथ ही लागू हो रहा है। उनके जीवन को अगर ध्यान से देखें तो घर जो एक शैक्षिक संस्था के बतौर हमारे को हर लम्हा बहुत कुछ सीखता-सिखाता है वह टूटा-फूटा उजड़ा-बिखरा पड़ा है। सड़क पर फुटपाथ पर मेट्रो पर या फिर नाइट शेल्टर्स में रहते हुए स्कूल में पढ़ पाना शिक्षा के प्रति रुझान को बढ़ा पाना उतना ही मुश्किल है जितना चांद को छू पाना। लेकिन इन बच्चों में जो हौसला, जो जज़्बा दिखाई देता है, तो उसमें आज का अभी की सड़क किनारे पर पढ़ता हुआ अंबेडकर, फूले भी दिखाई देता है।

सामाजिक और राजनीतिक ढांचे में चारों तरफ अराजकता, हिंसा, झूठ, कपट, बेईमानी और भ्रष्टाचार का ही बोलबाला है। ऐसी स्थिति में बिल्कुल हाशिए पर पड़े हुए गरीब ही नहीं, बल्की साथ में बेघर जीवन को अभिव्यक्ति की आज़ादी और सृजनात्मक शिक्षा के रास्ते की तलाश को पाना वह भी रंगमंच के माध्यम से अपने आप में मुश्किल अनूठा नामुमकिन संगम हैं।

लगभग ढाई दशक से निरन्तर, किसी सीमाओं को ना मानने वाले बच्चों के साथ काम कर रहा हूं। जैसे ही नाटक के द्वारा उनके अनुभव को व्यक्त करने का रास्ता खुलता है उनके अंदर एक बहुत अनोखी अजूबी खुशबू पैदा होने लगती है। उनके अपने अनोखे व्यक्तित्व पसीने और मैल से लबालब खुश और दुखबू उनका जीवन, जो बहुत सारे हिंसक बहिष्कृत अनुभवों से भरा हुआ है बेशुमार रंगों की बरखा करने लगता है। इसमें कभी गुस्सा फूट कर निकलता है, तो कभी पीड़ा, तो कभी प्यार, तो कभी अकेलेपन की टूटन।

उनके जीवन की जटिलताएं, संघर्ष किसी रोज़ बसंत की बहार लेकर आते हैं तो किसी दिन मूसलाधार बारिश को तो किसी दिन लू के थपेड़े को और बड़े मजे की बात यह है यह सब कुछ हो रहा होता है हमारे भीड़-भाड़ से भरे हुए, ट्रैफिक जाम से चीखती चिल्लाती मार्केट व्यवस्था के बीचों बीच। जहां एक के साथ एक फ्री कमीज़ बेचता हुआ शाहनवाज़ खड़ा हुआ है तो दूसरी ओर उर्दू पार्क के बकरों के साथ सोते हुए नौशाद, शमीम, सबीना ज़रीना, वर्षा, नूरी, अली हुसैन का बचपन सरे राह लुढ़क रहा है। रिहर्सल के लिए रोज़ नए संघर्ष होते हैं आज पता चला बकरा ईद के मौके पर कुर्बान होने के लिए जो बकरों का बाज़ार लगा हुआ है बकरों के लिए के गूलर और पाकड़ के पत्ते लेने भाग गए, कमा कर चार सौ रुपए आएंगे नाटक की रिहर्सल करके क्या मिलेगा।

कल की रिहर्सल में नवरंग कांग्रेस पार्टी के पैंफलेट बांटने भाग गए, पता चला पैंफलेट कूड़ेदान में फेंक कर पैसे कमा लिए गए, शाम का निवाला तो आएगा इससे आगे और क्या सोचना समझना। मैं अपने शो के क़रीब आने के डर से छटपटा रहा हूं, उन पर चीख चिल्ला रहा हूं, क्या होगा चार दिन बाद शो है लेकिन वो सब शहंशाह गायब। लीजिए जनाब झक मारिए, रात को रिहर्सल से सर पीटकर घर वापस जा रहा हूं तो देखा जरीना और वर्षा दौड़ती आ रही है पूछा कहां से आ रही हो, भईया आज की कमाई से मोमोज की पार्टी है…..।

मैं निरुत्तर खुद पर हंसता हुआ अपनी मंजिल अपने घर की ओर बढ़ने लगता हूं, सहसा सवाल गूंजता है “बच्चे कहां जाएंगे उर्दू पार्क के खड्डों में? सवाल दर सवाल आते रहते हैं। सवालों से पूछता हूं, क्यों करें हम थिएटर? क्या होगा थिएटर करके? फालतू की खुजली हैं, खुजाते रहिए। चलो कल शाम को मिलते हैं, सबको खुदा हाफ़िज़ कह कर रिहर्सल से निकल जाता हूं।

शबाना, चांदनी, वर्षा जामा मस्जिद गरीब नवाज़ होटल वाले के गोदाम में मसाला पीसकर आती है। सारे बच्चे ज़ोर से चिल्लाते हैं मसाले की बू वाली मिर्ची आ गई, हा हा हा हंस हंसकर सर पीटकर रोज़ की रिहर्सल के रोज़ नए संघर्ष बेसबब, बेझिझक बेखौफ आते रहते हैं।

धुंधली…बेसबब..….बेतरतीब… सुगबुगाहट… के साथ।
सब मिलकर गाना गाने लगते हैं
“तेरे मेरे प्यार ने रंगों से सवारा है”।
क्या प्यार ने? गूंगे बहरे नफ़रत के इस दौर में प्यार ने?

शमीम और उसका पूरा परिवार जामा मस्जिद के दो नंबर मेट्रो स्टेशन पर खुले में रहता है। शमीम रिहर्सल में आता है तो एक रात पहले दिए गए डायलॉग को पूरी रात खुली सड़क पर याद करके काले चेहरे में लाल आंखों के साथ आता है, दूसरी ओर
शाहनवाज़ अपने अब्बा आमिर मियां की रिक्शे पर मच्छर जाली लगाकर सोता है इस छोटी सी उमर में भी वो अपने अंदर एक अलग तरह का जोश और दीवानगी की आग का सैलाब लेकर आता है।

शबाना, सबीना, ज़रीना, बरकत, गुलफ्शा, वर्षा, नूरी और भी बहुत सी लड़कियां औरतों के आश्रय गृह में रहती है। मगर सपनों के ताप से भरी हुई ये सारी की सारी बच्चियों कुछ कर गुज़रने की तमन्ना रखती हैं। बहुत सी सीमाएं टूट रही है बच्चे आज़ादी का मज़ा चख रहे हैं, बहुत कम सुनते हैं, सिर्फ कहानियां को सुनते हैं या गीतों को गाते हुए सुन लेते हैं। बाकी अल्लाह ताला भी अपनी ऐसी कम तैसी करा लें अगर वह सुन ले तो। आजकल एक दूसरे से बेधड़क सवाल कर रहे हैं झगड़ा कर रहे हैं और एक दूसरे से सीखने-सिखाने की पीयर लर्निंग की प्रक्रिया का भी कुछ कुछ बदलाव हो रहा है।

एडवर्ड मुनच की चीख की पेंटिंग मीना बाज़ार में आकर खड़ी हो जाती है, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद भीगी आंखों से अपनी कब्र से बाहर निकल के आसपास मोबाइल, मेवा, कच्छा बनियान आमलेट बिरयानी बेचते इन बच्चों के करीब आकर खड़े हो जाते हैं, कल के मुस्तकबिल के लिए, कनपटी कर खींच कर रहपट पड़ता है “साले काम के लिए बुलाया है या झक मारने के लिए”, अचानक दूसरी ओर झूठ के आगे कभी न झुकने वाली सूफ़ी सरमद की सरकटी रूह वहीं से गुज़र जाती है, जामा मस्जिद के गुमनाम कब्रिस्तान से जर्नल शाहनवाज कहते हैं “तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा”, सुभाष चंद्र बोस के पार्क ऐन पीछे बसा हुआ यह उर्दू पार्क जागी आंखों से ख़्वाब देख रहा है उम्मीद है ये “रंग ए बहारा” उनके जीवन में प्यार, दोस्ती,अमन, ईमान, मोहब्बत,बराबरी के पैग़ाम को बूंद-बूंद इकट्ठा करके स्थापित करेगी और शायद सदा के लिए इन सब बच्चों की यादों में रंगों के जश्न के उत्सव को भी। पंद्रह अगस्त आने वाला है पंडित नेहरु की रूह लाल क़िले के बुर्ज से भारत एक खोज खोजने लगती है। लाल मंदिर से महावीर खामोश ज़ुबान से बुदबुदाते है “अहिंसा परमो धर्म”, जियो और जीने दो।

मीना बाज़ार की ज़िंदगी में मुफलिसी और झगड़ों का चोली दामन का साथ है। जीवन में अभाव लड़ने का संघर्ष खुद ही पैदा कर देते है। यह बात मुझे काम करते हुई बार-बार दिखाई देती है कोई दिन ऐसा नहीं गुज़रा, जब आश्रय गृह, बच्चों के मां बाप में और खुद बच्चों के बीच में कोई झगड़ा ना हुआ हो। लड़ना-झगड़ना, गंदगी, अंधविश्वास, जहालत यहां के जीवन का स्थाई हिस्सा है, स्वभाव के अंदर की बसी हुई चिड़चिड़ाहट बार-बार उभर कर आती है। और उस चिड़चिड़ाहट की वजह है, भूख, नींद की कमी, हर मौसम की अति की मार और बेइंतहा पॉल्यूशन और शोर। हर वक्त भीड़ से भरी हुई जिंदगी।

शहरी गरीबी, ट्रैफिक की आवाज़ों, धुएं, शोरोगुल, बाज़ार के माल, पानी की कमी, हानिकारक जंक फूड से भरा पड़ा है, तेज मिर्ची और तीखे के साथ हर हाशिए पर पड़ा मशीनी इंसान इस गरीबी की तहज़ीब का सेवन कर रहा हैं और इसी को अपनी संस्कृति का हिस्सा बनाते चले जा रहे हैं। शहरी गरीबी इसका वीभत्स रूप लेकर सड़े हुए गटर की बदबू के साथ हमारे सामने पड़ी हुई है।

रिक्शे पर सोते हुए साहिर लुधियानवी का गीत नए अर्थ के साथ फिर से बज जाते हैं। चीन-ओ-अरब हमारा, हिन्दोस्तां हमारा, रहने को घर नहीं है, सारा जहां हमारा। अबे चल क्या बड़बड़ा रहा है रास्ता दे, दिखाई नहीं देता जाम लगा पड़ा है। जिंदा लाशें एक दूसरे को पछाड़ कर आगे बढ़ती चली जा रही है। यहां पर काम करने वाली एनजीओ इसे बखूबी जानती समझती है पर लचारगी उनकी ये है इसका हल उनके पास भी नहीं हैं। इन विचारों को अपने फंड रिपोर्टिंग मिनट्स का लिखना प्रपोज का बनाना बहुत सारे काम भी तो करने पड़ते हैं क्या करें? झगड़े की वजह भी कमाल की है:

“मदरसे ज़रूर जाना है, दीन की तालीम देनी है, वरना अल्लाह मियां को क्या मुंह दिखाएंगे”

“स्कूल का होमवर्क पूरा करना है, उसीसे कुछ होगा इस नाटक-वाटक, खेल तमाशे की कलंदरी से क्या होगा भाईजान”
“अरे पैसा नहीं कमाएंगे तो रोटी कहां से खाएंगे”

“ठीक है भैया नाटक करके बोलना सीख जाएंगे पर भूखे और प्यासे बदन में बोलने की ताकत कहां से लाएंगे”

बेशुमार सवाल है नाटक ना करने का जवाब सिर्फ एक है, खुजली

“अरे छोड़ो इस सब टेंशन को थिएटर से देखो कितने बड़े-बड़े एक्टर निकले हैं” बड़े-बड़े में सारे एग्जांपल फिल्मी हैं, बाकी नाटक करने वाले सारे गुमनाम अभिनेता भूली बिसरी यादों के कब्रिस्तान ” बेवजह खुद ही अपने फ़िज़ूल के तखल्लुस जुनूनी से बुदबुदाता हूं। लेकिन सारे बच्चे खुश हो गए एनएसडी के शो में राजपाल यादव से मिलकर और मुझे कई बार कोसा “भैया आपने हमारे को सेल्फी नहीं लेने दी”।

चल जुनूनी नाटक करते हैं, बच्चों को तो मज़ा आ ही रहा है और साले तुझे भी तो मज़ा आ रहा है फिर से हड्डियां घिसने का खेल शुरू हो जाता है। बाज़ार सीताराम की जायकों से भरी हुई चाट पकौड़ी के साथ, सारे के सारे नदीदे कलाकर टूट पड़ते हैं लज़ीज़ खोमचे पे। खाते-खाते गर्दन घुमा कर देखता हूं तो बहुत सारी चट्टानों पर बिल्कुल किनारे पर खड़ी हुई आकृतियां दिखाई देती है।

“एक चट्टान पर कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी वाले खड़े होकर अपने पाप धोकर फंड फेंक फेंककर अपना फर्ज निभा रहे हैं”

“दूसरी चट्टान एनजीओ वाले समाज को बेहतर बनाने वाले सपनों से भरे बालों से जुएं निकाल रहे हैं”

“तीसरी चट्टान पर खड़े होकर एनएसडी अपना नाटकीय योगदान का फ़र्ज़ अदा कर रहा है निरंतर नाटक की बांसुरी बजती रहनी चाहिए”

“चौथी चट्टान पर हम जैसे कलाकार दो वक्त की गुजर बसर की मजदूरी ढूंढ रहे हैं “हर माल मिलेगा चार आने हां ले जा बेटा/बिटिया चार आने।”

“पांचवी चट्टान पर सारे के सारे बच्चे चिड़िया के दाने का इंतजार कर रहे हैं, चिड़िया आएगी दाना उगाएंगी और सारी दुनिया रंगो से हरी भरी हो जाएगी।”

“रंग कहते ही सबसे पहले जहन में गाने आ गए, तो गानों को लिखना शुरू कर दिया, हालांकि एनएसडी वालों ने कलम पर समय की लगाम लगा दी थी की आप आधे घंटे की समय सीमा से ज़्यादा बड़ा नाटक नहीं कर सकते, तो इसी सीमाओं को ध्यान में रखते हुए बहते हुए रंगों की बहार में डूबना शुरु कर दिया। मेरे सभी दोस्त बहुत खुश हैं बस आधा घंटा ही पकाएगा।

रंग ए बहारा में मैंने ग़ज़नफ़र अली, हफ़ीज़ जालंधरी के चंद कलाम, उनकी नज़्म के कुछ हिस्सों और प्रकाश मनु साहिब की दो कविताओं को भी शामिल किया है। मैं आप सभी का बहुत बहुत शुक्रगुजार हूं, आपके ख्याल के रंगत के बिना ये अधूरा था।
नाटक में साथ में करते हुए प्रदीप कांबले, का. इंदु प्रकाश सिंह जी का, छवि जैन, पाखी जैन जमघट, सोफिया से सुहैल, जन्नत रवि, समरजहां और पैंतीस बच्चों और उनके मां बाप का भी बहुत शुक्रगुजार हूं और साथ में नेशनल स्कूल आफ ड्रामा की इस पहल का, बेघर बच्चों के साथ ये क़दम पहली बार एनएसडी के द्वारा उठाया गया है जिसके लिए मैं गौरी देवाल, चितरंजन त्रिपाठी एनएसडी की सारी टीम के इस पहल और सहयोग को सराहें बगैर नहीं रहा जा सकता।

बहरहाल कम्युनिटी में नाटक का एक शो हो चुका है मां-बाप और सारे लोगों को बहुत पसंद आया है, बच्चों को भी रंग बिरंगी कॉस्टयूम नाटक के म्यूजिक और अपनी वाह-वाही से हौसला बुलंद हुआ है। नेशनल स्कूल ड्रामा के शो को भी लोगों ने बहुत पसंद किया है। मगर नौ बरस का अली अभी भी थकान से चूर-चूर होकर जामा मस्जिद के दो नंबर गेट की मेट्रो स्टेशन पर सोया पड़ा है। वहीं खेलते हैं वहीं सोते हैं जब भी घर वापस जाता हूं तो शमीम की अम्मी को वहीं पर देखता हूं बोलती हूं “भैया हवा लेने के लिए बैठी हूं”, मेट्रो की हवा का सबब सिर्फ़ मेरा दिल ही जानता है।

जामा मस्जिद मीना बाज़ार के उर्दू पार्क के बेघर आश्रय गृह में से ये रंग बिरंगी उड़ाने पैदा हुई। सभी को प्यार ओर गर्मजोशी के साथ सलाम ए इश्क़ के साथ रंग ए बहारा की होली की मुबारकबाद।

सृजनात्मक ऊर्जा का ये नाटक का सफ़र किस ओर जाएगा पता नहीं, मगर एक बात में कोई शक ओ शुबहा नहीं है ये उन्हें उनके के जीवन को जीने के लिए कुछ रंगो की खुशियां ज़रूर बख्शेगा , जिसमें हौसला होगा, जश्न होगा और राह तलाशने के लिए रौशनी भी।

धुंधली-धुंधली बेसबब..…. बेतरतीब… सुगबुगाहट… “रंग ए बहारा की तालाश में”

सारे जहां से अच्छा मेरे हिंदुस्तान को तलाशना शुरू कर देती है, चारों तरफ बुलबुले फूट रहे हैं इस गुलिस्तान में, देखते हैं आने वाली सियासत इन पेचीदा ख्यालों को कैसे सुनती है या फिर अडानी-अंबानी के ही गीत गाती रहती है, बाकी जनता दो चार किलो अनाज में तुलती रहेंगी।

साहिर लुधियानवी रेडियो से गुनगुनाते हैं-वो सुबह कभी तो आएगी….. वो सुबह? चल सो जा…. नाटक का नया सीन नए सवाल लेकर आ जाता है?

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