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कार को टूल के बजाय स्‍टेटस सिंबल से जोड़ दिया है बाजार तंत्र ने 

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लक्ष्मीकांत पांडेय

मेरे एक वणिक मित्र हैं, मित्र क्‍या हैं, मुझसे उम्र में बहुत बड़े हैं और गाढ़ा स्‍नेह रखते हैं। वणिक हैं, स्‍वाभाविक है, पैसे वाले हैं, बहुत अधिक नहीं तो सामान्‍य करोड़पति जितने तो होंगे ही, लेकिन उनके पास कार नहीं थी।

रोजाना घर से अपने काम के स्‍थान पर बारह किलोमीटर मोटरसाइकिल पर जाते, किसी दिन कुछ तबीयत नासाज होती तो किसी के पीछे बैठकर आते। सर्दी, गर्मी, बारिश कैसा भी मौसम हो समय पर काम पर पहुंचना पड़ता, सो मोटरसाइकिल से होने वाली परेशानी को झेलते हुए काम पर पहुंचते।

एक दिन ट्रैफिक और पॉल्‍यूशन के कारण काम पर पहुंचे, मैं पहले से वहीं बैठा था, तो बोला कि 

अब कार ले लीजिए, ताकि हैजार्ड से बचा जा सके, 

उन्‍होंने पूछा कार क्‍यों चाहिए, पंडित जी मुझे….?

मैंने कहा रास्‍ते की समस्‍या का समाधान हो जाएगा, 

तो बोले ये तो कभी कभार होता है, इसके लिए दस लाख के नीचे आने का क्‍या फायदा,

मैंने तर्क दिया कि घर वालों को कहीं घूमने जाना हो तो, 

उन्‍होंने कहा इसके लिए ऑटो है, अधिक दूर जाना हो तो कार किराए पर ले सकते हैं

मैंने कहा मौसम खराब हो तो, 

उन्‍होंने कहा घर काटता थोड़े है, थोड़ी देर में आ जाएंगे। 

मैंने कहा शरीर में तकलीफ हो तो, 

उन्‍होंने कहा पहले शरीर ठीक करेंगे, बाकी तकलीफ होगी तो कार भी उतनी ही बुरी है।

वास्‍तव में बाजार तंत्र ने कार को टूल के बजाय आम लोगों के स्‍टेटस सिंबल से जोड़ दिया है। जितना बड़ा ओहदा, जितनी अधिक संपन्‍नता, उतनी बड़ी कार, कोई पूछ ही नहीं रहा कि इसकी जरूरत क्‍यों है???

                 एक किस्‍सा रतन टाटा के साथ ही बताया जाता है, जिसमें उनकी किसी एक कंपनी का सीईओ टाटा की देखादेखी एक छोटी सी कार में आने लगता है, टाटा का उस कंपनी में दौरा होता है, तो सीईओ की छोटी सी कार देखकर भड़क जाते हैं, उसे बुलाकर अच्‍छी झाड़ पिलाते हैं, इस पर सीईओ जिरह करता है कि आप भी तो छोटी कार चलाते हैं, इस पर टाटा का जवाब होता है, मेरा स्‍टेटस मेरी कार से नहीं जुड़ा, लेकिन मेरी कंपनी के सीईओ का जुड़ा है।

कुछ मामले हो सकते हैं कि शो ऑफ करने के लिए कार की जरूरत हो, कुछ मौसमी कारण हो सकते हैं कि कभी कार की जरूरत पड़े, कभी इमरजेंसी हो सकती है कि कार की जरूरत पड़े, लेकिन 99 प्रतशित मामलों में कार एक बड़ी परेशानी के अलावा और कुछ नहीं, लेकिन प्रचार माध्‍यमों, फिल्‍मों, टीवी आदि ने यकीन दिला दिया है कि कार है तो ही संपन्‍नता है, इसका नतीजा यह है कि पत्‍नी के गले में भले ही नौलखा हार न हो, नौ लाख की कार और प्रतिमाह दस हजार का खर्च गले में बांधे लोग घूम रहे हैं।

परिणाम यह है कि  छोटे से शहर में जहां तंग गलियां और संकरी सड़कें हैं, वहां भी हर गली में चार पांच कारें दीवार से सटी खड़ी मिल जाएंगी, दिल्‍ली और बैंगलोर जैसे शहरों में ट्रैफिक से हलकान लोग अपनी कार घर में खड़ी करके कम्‍युनिटी ट्रांसपोर्ट पर अधिक निर्भर हैं। बाकी के लिए खुद की गाड़ी से बेहतर ओला ऊबर का ऑप्‍शन है। मैट्रो आपको जितनी देर में जितनी दूरी तक ले जा सकती है, कार में वही दूरी चार गुना समय लेती है।

हम कहां जा रहे हैं, क्‍यों इतना ट्रैफिक है, क्‍यों गाडि़यां बढ़ती जा रही है, बिना उत्‍पादकता के इस बढ़ी हुई थोथी समृद्धि से क्‍या हासिल होने वाला है…

कोई पूछ ही नहीं रहा..!! 

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