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छत्तीसगढ़ में आदिवासियों की नाराजी के मायने

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 कुमारी प्रतिभा ठाकुर गोंड

हाई कोर्ट के फैसले के बाद छत्तीसगढ़ में आरक्षण की स्थिति अब 2011 वाली बन गई है, जिसके अनुसार एसटी का आरक्षण 32 प्रतिशत से घटकर 20 प्रतिशत, ओबीसी का आरक्षण 14 प्रतिशत और एससी का आरक्षण 12 से बढ़कर 16 प्रतिशत हो गया है। छत्तीसगढ़ की राजनीति में खासा दखल रखने वाला आदिवासी समुदाय इससे आक्रोशित है।

वर्ष 2024 में होनेवाले लोकसभा के आम चुनाव से पूर्व भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) बेहद सधे अंदाज में आदिवासी कार्ड खेल रही है। उसके निशाने पर अगले वर्ष 2023 में छत्तीसगढ़ और 2024 में उड़ीसा में होनेवाला विधानसभा चुनाव भी है। इन परिस्थितियों को केंद्र में रखकर भाजपा ने संथाल समुदाय की महिला को राष्ट्रपति बनाया है। उल्लेखनीय है कि उड़ीसा और पश्चिम बंगाल भाजपा के लिए लंबे अर्से से चुनौती वाले राज्य बने रहे हैं। इन दोनों ही राज्यो में आदिवासी समुदाय सीमावर्ती झारखंड और छत्तीसगढ़ की ही तरह राज्य सरकार के चयन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। 

उड़ीसा और पश्चिम बंगाल के बाद पूर्वी भारत में छत्तीसगढ़ एक ऐसा राज्य है, जो भाजपा को रह-रह कर टीस देता रहता है। जिस बहुमत के साथ यहां कांग्रेस ने वर्ष 2018 में सरकार बनाई थी, उसने तमाम राजनीतिक पंडितों को भी हैरत में डाल दिया था। और संभवतः बहुमत ही वह कारण कि लाख कोशिशें के बावजूद भाजपा यहां सत्ता बदलने के खेल में कामयाब नहीं हो सकी। भले ही बघेल सरकार में कभी नंबर दो की हैसियत रखने वाले टीएस सिंहदेव की नाराजगी ही क्यों न रही हो। 

गौरतलब है कि मैदानी राज्यों में छत्तीसगढ़ ही एक ऐसा राज्य है, जहां तीस प्रतिशत से अधिक आबादी विभिन्न आदिवासी समुदायों की है। ऐसे में भूपेश बघेल, जो अविभाजित मध्य प्रदेश की दिग्विजय सरकार में मंत्री रह चुके हैं, ने मुख्यमंत्री बनने के बाद बेहद सधे कदमों से आदिवासी समुदाय के साथ राजनीतिक कदम ताल शुरु किया। मगर, समय बीतने के साथ उन्होंने ऐसे फैसले लेने शुरु कर दिए, जिससे आदिवासी समुदाय के कांग्रेस से छिटकने का खतरा मंडराने लगा है। फिर चाहे वह बस्तर के आदिवासियों का मामला हो अथवा अप्रत्यक्ष तौर पर अडाणी को लाभ पहुंचाने के आरोपों के मध्य हसदेव जंगल की कटाई का मामला या राम वनगमन पथ परियोजना। इन सबके अलावा अब बघेल सरकार द्वारा आरक्षण को लेकर जो कार्ड खेला गया, अब वह छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के लिए नासूर बनता नजर आ रहा है।

भूपेश बघेल, मुख्यमंत्री, छत्तीसगढ़

दरअसल, छत्तीसगढ़ गठन के बाद सबसे पहले रमन सिंह सरकार ने वर्ष 2012 में राज्य में सरकारी नियुक्तियों से लेकर मेडिकल, इंजीनियरिंग और अन्य कालेजों में दाखिले में आरक्षण की सीमा को 50 से बढ़ाकर 58 प्रतिशत कर दिया था। तब अनुसूचित जनजातियों (एसटी) का आरक्षण 20 प्रतिशत से बढ़ाकर 32 प्रतिशत तथा अनुसूचित जाति (एससी) का आरक्षण 16 प्रतिशत से घटाकर 12 प्रतिशत कर दिया गया था। जबकि पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) का आरक्षण को यथावत 14 प्रतिशत रखा गया था। 

हालांकि इसके विरोध में परंपरागत तौर पर कांग्रेस का समर्थक माने जाने वाला सतनामी समाज (एससी) का एक धड़ा उच्च न्यायालय पहुंच गया था। इसके बाद मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने 15 अगस्त, 2019 को आरक्षण का दायरा और बढ़ाते हुए छत्तीसगढ़ में ओबीसी (जिसमें वे खुद भी आते हैं) का आरक्षण प्रतिशत 14 से बढ़ाकर 27 और एससी का 12 की जगह 13 प्रतिशत करने का ऐलान कर दिया। उच्च न्यायालय में इसे यह कहते हुए चुनौती दी गई कि इससे आरक्षण की कुल सीमा पचास प्रतिशत से अधिक हो जाती है। इसके बाद बिलासपुर उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश पी.आर. रामचंद्र मेनन की पीठ ने 19 सितंबर, 2022 को राज्य सरकार के उस फैसले पर रोक लगा दी, जिसमें अन्य पिछड़ा वर्ग को 14 की जगह 27 प्रतिशत आरक्षण देने की बात कही गई थी।

इस फैसले के बाद छत्तीसगढ़ में आरक्षण की स्थिति अब 2011 वाली बन गई है, जिसके अनुसार एसटी का आरक्षण 32 प्रतिशत से घटकर 20 प्रतिशत, ओबीसी का आरक्षण 14 प्रतिशत और एससी का आरक्षण 12 से बढ़कर 16 प्रतिशत हो गया है। छत्तीसगढ़ की राजनीति में खासा दखल रखने वाला आदिवासी समुदाय इससे आक्रोशित है। अगले वर्ष होनेवाले प्रस्तावित विधान सभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए कांग्रेस और भाजपा दोनों ही इस मुद्दे के आधर पर राजनीतिक रोटियां सेंकने में लग गई हैं। एक तरफ भाजपा का आरोप है कि बघेल सरकार ने अदालत के समक्ष राज्य का पक्ष सही तरीके से नहीं रखा। वहीं कांग्रेस सीधे तौर पर कुछ भी कहने से बचती नजर आ रही है। हालांकि बघेल सरकार नेशनल सैंपल सर्वे आर्गेनाइजेशन (एनएसएसओ) की एक सर्वेक्षण रपट का हवाला देते हुए ओबीसी आरक्षण में वृद्धि को जायज करार दे रही है। मगर, आदिवासी समुदाय का आरोप है कि ओबीसी को खुश करने के लिए भूपेश बघेल ने उनके हितों को राजनीति के दांव पर लगा दिया है। वह आरोप लगाते हैं कि राज्य सरकार द्वारा जान-बूझकर सर्वोच्च न्यायालय में एक माह की देरी से विशेष अनुमति याचिका दायर की गई। जबकि यह समय रहते किया जाना चाहिए था ताकि उच्च न्यायालय के निर्णय के संबंध में स्थगन आदेश प्राप्त हो सके। 

राजनीति से इतर छत्तीसगढ़ में आदिवासी समाज के वे युवा जो वर्ष 2012 में आदिवासी समुदाय के लिए आरक्षण में हुई वृद्धि का लाभ लेकर विभिन्न शासकीय नियुक्तियां पा चुके हैं, के लिए एक अलग ही संकट उत्पन्न हो गया है। अब जब उच्च न्यायालय उक्त आरक्षण वद्धि पर ही रोक लगा चुका है तो ऐसे में उनकी नियुक्तियों का क्या होगा? वहीं पुराने यानी 2011 के आरक्षण के आधार पर भर्तियां होने से उन्हें सीधे 12 प्रतिशत का नुकसान होता दिख रहा है। 

आदिवासी समाज के कई संगठनों द्वारा इस बाबत उच्च न्यायालय में याचिकाएं दायर की जा चुकी हैं। मगर, आरक्षण को लेकर उपजा विवाद इतनी आसानी से थमता नजर नहीं आ रहा। विभिन्न मंचों पर आदिवासी समुदाय के विभिन्न संगठन खुलकर अपनी नाराजगी व्यक्त कर रहे हैं, जिसका खामियाजा आगामी चुनाव में कांगेस को भुगतना पड़ सकता है और इसका लाभ उठाने के लिए भाजपा पहले से तैयार है।

 

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