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बदलनी होगी आक्रांताओं को नायक मानने की मानसिकता

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बलबीर पुंज

हाल ही में एक अदालत द्वारा ज्ञानवापी परिसर स्थित व्यासजी के तहखाने में हिंदुओं को पूजा का अधिकार मिलने से हिंदू-मुस्लिम संबंधों में तनाव की चर्चा है। 31 जनवरी को वाराणसी जिला न्यायालय के निर्णय के बाद हिंदुओं को 30 वर्ष पश्चात पुन: नियमित पूजा का अधिकार मिला है। तब से वहां पूजा-अर्चना जारी है। भारतीय पुरातत्व विभाग की ज्ञानवापी पर सर्वेक्षण रिपोर्ट सार्वजनिक होने के बाद यह न्यायिक आदेश मिला है।

सदियों से इस परिसर के पश्चिमी दीवार पर खुली आंखों से (हिंदू वास्तुशिल्प-रूपांकन) दिख रहा है कि यह हिंदू मंदिर था। इससे पहले अयोध्या में रामजन्मभूमि को लेकर स्वतंत्रता के बाद भी सात दशकों से अधिक समय तक विवाद रहा था, जिसकी देश को मानवीय जीवन और अथाह संपत्ति के रूप में कीमत चुकानी पड़ी थी। मथुरा-काशी के साथ गौकशी आदि को लेकर भी यदा-कदा सांप्रदायिक तनाव के समाचार आते रहते हैं। क्या इस पृष्ठभूमि में देश में समरसता और सद्भाव कभी नहीं हो सकता ?

एक फरवरी, 2024 को प्रकाशित खबर के अनुसार, ज्ञानवापी में आदि विश्वेश्वर की पूजा का इतिहास 473 वर्ष पुराना है। व्यास परिवार ने वर्ष 1551 में आदि विश्वेश्वर की पूजा प्रारंभ की थी, जो दिसंबर 1993 तक व्यासजी के तहखाने में जारी रही। परंतु तत्कालीन मुलायम सिंह सरकार में बिना किसी लिखित आदेश के पूजा को बंद करा दिया गया। यह स्थिति तब थी, जब मंदिर के पुनर्निर्माण और हिंदुओं को पूजा-पाठ करने का अधिकार देने हेतु 15 अक्तूबर, 1991 को सिविल न्यायाधीश की अदालत में मुकदमा दाखिल किया था। इसमें दावा था कि विवादित स्थल प्राचीन मूर्ति स्वयंभू ज्योतिर्लिंग भगवान विश्वेश्वर के मंदिर का अंश है, इसलिए उस स्थान पर हिंदुओं को पूजा-पाठ का अधिकार है।

यदि इस मामले में अदालती इतिहास की बात करें, तो ब्रितानी राज में भी 1843, 1852, 1886, 1906, 1935 और 1936 में मुकदमे दाखिल हुए थे। जो समूह ज्ञानवापी में हिंदू पक्ष का विरोध कर रहे हैं, वे इस मामले को ‘पूजास्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम-1991’ के चश्मे से देखने या दो पक्षों के बीच संपत्ति विवाद तक सीमित करने या फिर इसे राजनीतिक महत्वाकांक्षा के रूप में प्रस्तुत करते हैं। स्वतंत्रता के बाद से भारतीय संविधान में 100 से ज्यादा संशोधन हो चुके हैं। जहां 1971 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने संविधान द्वारा प्रतिबद्ध ‘राजभत्ता’ (प्रिवीपर्स) को समाप्त किया, तो 1986 में तत्कालीन राजीव गांधी सरकार द्वारा शाहबानो मामले में सर्वोच्च न्यायालय के ऐतिहासिक निर्णय को संसद में प्रचंड बहुमत के बल पर पलटा जा चुका है। इस लिहाज से 1991 के उपरोक्त अधिनियम का हवाला देकर चर्चाएं रोकना शायद ही संभव है।

दरअसल यह संघर्ष  परिसर में किसी जमीन के टुकड़े भर के लिए नहीं है। इसकी पृष्ठभूमि जटिल है। यह राजनीतिक नहीं, अपितु विश्वास पर आधारित मामला है। पूरा वैचारिक उपक्रम आत्म-सम्मान, पहचान और सदियों से चले रहे सभ्यतागत संघर्ष से जुड़ा है, जो अरब आक्रांता मोहम्मद बिन कासिम द्वारा वर्ष 712 में सिंध पर आक्रमण के बाद शुरू हुआ था। तब यहां स्थानीय बहुलतावादी संस्कृति को नष्ट करने का मजहबी उपक्रम चला, साथ ही इस भूखंड की अस्मिता और सामाजिक जीवन के मानबिंदुओं को भी रौंद डाला गया। हजारों पूजास्थल धूल-धूसरित हो गए, तो असंख्य निरपराध हिंदू-बौद्ध-जैन या तो तलवार के भय से मतांतरित हो गए या फिर मजहबी उत्पीड़न के बाद उन्हें मौत के घाट उतार दिया गया।

इस्लामी आक्रांता हिंदू मंदिरों को क्यों ध्वस्त करते थे? क्या केवल लूट के लिए या उन्माद के कारण? वास्तव में, लूट से बड़ी वजह उनकी मजहबी कट्टरता थी। इस मानसिकता का विवरण वर्ष 1908 में जी.रुस-केपेल और काजी अब्दुल गनी खान द्वारा अनुवादित तारीख-ए-सुल्तान महमूद-ए-गजनवी पुस्तक में मिलता है। इसके अनुसार, जब महमूद गजनवी (971-1030) को एक पराजित हिंदू राजा ने मंदिर ध्वस्त नहीं करने के बदले अकूत धन देने की पेशकश की, तब उसने कहा था- ‘हमारे मजहब में जो कोई मूर्तिपूजकों के पूजास्थल को नष्ट करेगा, वह कयामत के दिन बहुत बड़ा इनाम पाएगा और मेरा इरादा हिंदुस्तान के हर नगर से मूर्तियों को पूरी तरह से हटाना है…।’

काशी का प्राचीन मंदिर भी वर्ष 1194 से 1669 के बीच कई बार इस्लामी आक्रमण का शिकार हुआ और हर बार हिंदू प्रतिकार का साक्षी भी बना। औरंगजेब ने जब जिहादी फरमान जारी करके काशी के प्राचीन मंदिर को ध्वस्त कर उसके अवशेषों से मस्जिद बनाने का आदेश दिया था, तब उसका उद्देश्य मुस्लिमों के लिए  इबादतगाह बनाना न होकर पराजितों को अपमानित करना था।

इस्लामी आक्रमणकारियों के अक्षम्य पापों को छिपाने के लिए जो कुतर्क दिए जाते हैं, उनमें सबसे प्रमुख है-आक्रांताओं ने भारत को अपना घर माना और लूट का समान वापस लेकर अपने उद्गमस्थान पर नहीं लौटे। यदि इसे आधार बनाएं, तो ब्रितानी राज को किस श्रेणी में रखा जाएगा? अंग्रेज वह विदेशी हमलावर थे, जिन्होंने 200 से अधिक वर्षों तक भारत को लूटा, यहां की मूल सनातन संस्कृति को बौद्धिक रूप से विकृत किया और स्वदेश रवाना हो गए। परंतु जब पहले इस्लामी आक्रांता भारत आए, तब कुछ भारी मात्रा में लूटी गई संपत्ति के साथ असंख्य ‘काफिरों’ को गुलाम बनाकर अपने साथ ले गए और बाद में आने वालों ने देश के बड़े हिस्से पर ही कब्जा कर लिया। अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश उसी आधार पर जनित क्षेत्र हैं, जो कभी बहुलतावादी सांस्कृतिक भारत का हिस्सा थे।

लेकिन वह इतिहास है और वर्तमान पीढ़ी उसकी दोषी कैसे हो सकती है? निश्चित ही सोमनाथ, अयोध्या, ज्ञानवापी या फिर मथुरा आदि में इस्लाम के नाम पर आततायियों द्वारा किए गए अत्याचारों के लिए वर्तमान भारतीय मुस्लिमों को दोषी ठहराने का कोई औचित्य नहीं है। आज के मुसलमान उन  आक्रांताओं के साथ स्वयं को क्यों जोड़ें? दरअसल भारत में एक वर्ग न केवल गजनवी, गौरी, बाबर, औरंगजेब या टीपू को अपना नायक मानता है, बल्कि उनके कामों को भी न्यायोचित ठहराने का प्रयास करता है। इसी वजह से जटिलताएं खड़ी होती हैं। जब तक यह मानसिकता हावी रहेगी, तब तक देश में सद्भाव और समरसता का रास्ता बाधित होता रहेगा।  
(-लेखक पूर्व राज्यसभा सांसद और भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय-उपाध्यक्ष हैं।)

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