अग्नि आलोक

सतरंगी समाज के गर्व करने का महीना: कितना बदला समलैंगिक समाज?

Share

 -विवेकरंजन सिंह 

पूरा जून का महीना समलैंगिक समाज के गर्व करने का महीना है। इस महीने में पूरी दुनिया के समलैंगिक समाज के लोग प्राइड मार्च निकालकर समाज में अपने अस्तित्व का संदेश देते हैं। वो बताने की कोशिश करते हैं कि उनका व्यवहार अप्राकृतिक नहीं है बल्कि वो भी अन्य लोगों की तरह सामान्य है।

पिछले एक दशक में भारत में भी एल जी बी टी क्यू समाज को लेकर थोड़ा बहुत नजरिया सामान्य हुआ है। इस समाज की स्वीकार्यता समाज में बढ़ी है मगर इस समुदाय से जुड़े लोगों के लिए यह लड़ाई अभी भी इतनी आसान नहीं है।

आइए जान लेते हैं कि क्यों जून का महीना ही प्राइड मंथ के रूप में मनाया जाता है। इसकी कहानी जुड़ी है अमेरिका के स्टोनवेल में हुए आंदोलन से, जहां 28 जून,1969 को अमेरिकी पुलिस ने स्टॉनवेल इन नाम के एक रेस्टोरेंट में छापा मारा और पार्टी कर रहे समलैंगिक लोगों पर हमला किया। इसके बाद देखते देखते भीड़ भी विद्रोही हो गई और हजारों लोग सड़कों पर उतर आए। वहीं से समलैंगिक मुक्ति आंदोलन चला और ये अपने आप में ऐसा पहला आंदोलन माना जाता है। उस दौरान यह आंदोलन कई दिनों तक चला। नतीजतन न्यूयार्क पुलिस और समलैंगिक लोगों के बीच तनाव बढ़ गया। कई संगठन भी इस आंदोलन के पक्ष में सड़कों पर उतर आए। उसी समय कई पत्र पत्रिकाएं भी समलैंगिक आवाजों को बुलंद करने के लिए छापी जाने लगीं। अगले वर्ष, 28 जून, 1970 को शिकागो में गे प्राइड रैलियां आयोजित की गईं, ताकि इस कार्यक्रम की एक साल की सालगिरह मनाई जा सके। कई जगहों और देशों में समलैंगिक संगठनों की स्थापना के बाद हर साल जून के महीने में प्राइड मंथ मनाया जाता है।

भारत में समलैंगिक समाज को हमेशा से हेय नजरिए से देखा जाता रहा है। अधिकार मिलने और धारा 377 में हुए बदलाव के बाद भी अभी नज़रिये में ज्यादा सुधार नहीं हुआ है। इतना सबल जरूर मिला है कि समलैंगिक समाज खुलकर अपने अधिकार की लड़ाई लड़ पा रहे हैं। जब तक धारा 377 के अंतर्गत प्रावधानों में समलैंगिक रिश्ते बनाने को अपराध माना जाता रहा तब तक इस समाज से जुड़े लोगों को रोज समाज में घुट घुट कर जीना पड़ रहा था। न जाने कितने लोगों को पुलिस टॉर्चर और ब्लैकमेल करती रही और मजबूरन उन्हें आत्महत्या भी करनी पड़ी। जस्टिस दीपक मिश्रा की बेच ने जब इस काले कानून में बदलाव कर फैसला सुनाया तो ये बात भी कही कि हमें इतिहास में हुई घटनाओं और उनके ( समलैंगिक समाज) साथ हुए अत्याचार के लिए माफी मांगनी चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट के 2018 में आए इस फैसले में जस्टिस मिश्रा और उनकी बेंच की ओर से साफ साफ कहा गया था कि यह किसी भी व्यक्ति के जीवन और उसकी निजता से जुड़ा मामला है। फैसला आने के बाद समलैंगिक समाज में खुशी की लहर जरूर दौड़ी मगर समाज के भीतर कोई खास बदलाव देखने को नहीं मिला। नाज फाउंडेशन जैसी संस्थाओं की लड़ाई से यह जीत तो मिली मगर जमीनी और जेहनी तौर पर अब भी भारत में लोग इस समुदाय के प्रति नॉर्मल नहीं है। सरकार भी समाज के भीतर इस समुदाय के प्रति दृष्टिकोण बदलने को लेकर कोई खास प्रयास नहीं की। भारत में दूरदर्शन ने परिवार नियोजन से जुड़े विज्ञापनों को खुलकर चलाया है मगर ट्रांस और समलैंगिक समाज के लिए अभी तक कोई विज्ञापन सरकार की ओर से नहीं चलाया गया। निजी संस्थाओं और फिल्मों ने जरूर इस मुद्दे को उठाना शुरू किया है। पिछले एक दशक में गे, लेस्बियन और ट्रांस समाज के ऊपर काफी अच्छी फिल्में बनी हैं। जिससे लोगों का नजरिया थोड़ा बहुत सही हुआ है।

पिछले साल आए एक फैसले में कहा गया कि समलैंगिक समुदाय में विवाह को लेकर कोई कानून नहीं बनाया जा सकता। आपको बता दें कि देश के भीतर कई ऐसे मामले आ चुके हैं जिसमे समलैंगिक समाज के कपल एक दूसरे से शादी रचा चुके हैं मगर उन्हें कानूनी मान्यता मिलना अभी थोड़ा मुश्किल लग रहा है।

2009 में दिल्ली हाईकोर्ट ने इस कानून को रद्द किया जिसे बाद में 2013 के एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने पुनः अपराध की श्रेणी में रख दिया। बाद में कुछ संस्थाओं और इस समुदाय से जुड़े लोगों ने याचिकाएं डाली जिसके बाद सुनवाई शुरू की गई और अंततः 2018 में इस काले कानून को खतम कर दिया गया।

शहर में यह समाज अपने मुक्ति और अपने अधिकार की लड़ाई थोड़ी आसानी से लड़ लेता है मगर ग्रामीण क्षेत्रों में इस समाज के खुलकर जीने में अभी भी कठिनाई है। अगर यह समाज खुलकर सामने आ भी जाता है तो उसके प्रति समाज का व्यवहार तुरंत ही बदल जाता है। ऐसे में उन्हें अकेलेपन की जिंदगी जीनी पड़ती है। समाज के भीतर इस समुदाय को दोहरी लड़ाई लड़नी पड़ रही है। आज पांच साल हो गई है धारा 377 को हटे हुए मगर ये लड़ाई अभी भी खुद इस समाज की लड़ाई बनी हुई है।

दिल्ली और मुंबई की सड़कों पर सतरंगी झंडा लेकर, अपने खुशी और प्रेम का खुला इजहार करते हुए ये लोग समाज में बस यही संदेश देते हैं कि उन्हें भी अपने बीच का मानें। उनके भी प्रेम और इमोशंस को समझें। धीरे धीरे लोग बदल रहे हैं मगर समस्या अभी भी काफी बनी हुई है जिसको आने वाले समय में संघर्ष के बल पर ही ठीक किया जा सकेगा।

हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में कई सारी फिल्मों ने लोगों की मानसिकता बदली है। शुभ मंगल ज्यादा सावधान,बधाई दो,अलीगढ़,ताली जैसी फिल्मों के माध्यम से इस वर्ग का संघर्ष और उनका नायकत्व काफी प्रभावशाली रहा है। अभिनेताओं ने भी खुलकर इस समाज के लिए आवाज उठाया। साहित्य जगत में भी काफी कुछ इस समुदाय के लिए लिखा जा रहा है। अमित गुप्ता की किताब ‘ डेहरी पर ठिठकी धूप ‘ में इस विमर्श को काफी गहराई से समझाया गया है। पिछली साल आई कोबाल्ट ब्लू नामक फिल्म ने इस समुदाय के भीतर पल रही एक बड़ी समस्या से अवगत कराया। ज्यादातर समलैंगिक समाज से जुड़े लोगों को उनके ही किसी साथी या पार्टनर द्वारा इमोशनली टॉर्चर किया जाता है। 

अब समय है कि मानसिकता बदली जाए। सड़कों पर प्राइड मंथ की रैली में प्रेम का इजहार करते इन लोगों को प्रेम के नजरिए से देखा जाए। इनके प्रति घृणा भावना का त्याग कर इनको गले लगाया जाए। उन्हें औरों की तरह अपना दोस्त बनाया जाए। उन्हें भी अपने आस पास और साथ बेझिझक बिठाया जाए। उनसे बातें की जाएं। कुछ उनकी सुनी जाएं और कुछ अपनी सुनाई जाए। शायद वो भी ऐसा ही सोच रहे होंगे। वो इंतजार कर रहे होंगे कि कब ये समाज उनका सहारा बनेगा। उनके हक और अधिकार की लड़ाई में उनके साथ कदमताल करेगा। समय परिवर्तन का है और इस नए युग के परिवर्तन में हम सबको साझीदार बनना चाहिए।

छात्र, पत्रकारिता विभाग 

महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा महाराष्ट्र

Exit mobile version