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2024 में मोदी की अजेयता का मिथक ?

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सुभाष गाताडे 

2024 की शुरूआत में भारत एक प्रचंड बदलाव की दहलीज पर खड़ा है। सभी जनतंत्र प्रेमी, इन्साफ पसंद और अमन के चाहने वालों के सामने यही बड़ा सवाल मुंह बाए खड़ा है कि 2024 के संसदीय चुनावों में- जो मई माह के अंत तक संपन्न होगा तथा नयी सरकार बन जाएगी (अगर उन्हें पहले नहीं कराया गया तो)- का नतीजा क्या होगा?

क्या वह सत्ता के विभिन्न इदारों पर भाजपा की जकड़ को ढीला कर देगा, क्या वह जनतंत्र की विभिन्न संस्थाओं को निष्प्रभावी करने की या उनका हथियारीकरण करने की सोची समझी रणनीति को बाधित कर देगा, क्या वह धर्म के नाम पर उन्मादी तक हो चुकी जनता में इस एहसास को फिर जगा देगा कि 21वीं सदी में धर्म और राजनीति का घोल किस तरह खतरनाक है या वह भारतीय जनतंत्र की अधिकाधिक ढलान की तरफ जारी यात्रा को और त्वरान्वित कर देगा, भारत के चुनावी अधिनायकतंत्र ( electoral autocracy) की तरफ बढ़ने की उसकी यात्रा आगे ही चलती रहेगी

क्या मोदीशाही अंततः विगत सत्तर साल से अधिक समय पर जारी लोकशाही पर, संविधान आधारित ताने बाने पर अंतिम प्रहार करने में कामयाब होगी?

निःस्सन्देह एक अच्छा खासा तबका इसे ही नियति मान कर चल रहा है। उन्हें यह कहने में भी आज कुछ गुरेज नहीं कि 2024 का फैसला तो हो चुका है, ऐलान होना बाकी है। वह मान रहे हैं कि मोदी के विजय रथ को रोका नहीं जा सकता।

पत्रकारिता के क्षेत्र में मौजूद पेशेवर लेखकों से लेकर ऐसे लोगों तक जो यहीं रह कर वस्तुनिष्ठ और स्वतंत्र पत्रकारिता करने का दावा करते हैं, उन्होंने इसमें अपने सुर मिला लिए हैं। फिलवक्त़ हम यहां भक्तों की बात नहीं कर रहे हैं, लेकिन यह सुर तेज हो चला है कि ‘मोदी के विजयरथ को अब रोका नहीं जा सकता।

प्रशांत किशोर जैसे लोग यह कहने में भी संकोच नहीं कर रहे हैं कि ‘मोदी से अधिक कट्टर व्यक्ति उनका स्थान ग्रहण करेगा। कहने का तात्पर्य यह कि इस चुनाव में भाजपा की जीत तो तय है।

2024 के इर्दगिर्द चले कुछ ओपिनियन पोल्स में भी- जो एक तरह से जनमत के रूझान का आकलन करने के लिए बताए गए हैं- वह भी इसी बात को दोहराते दिख रहे हैं।

गौरतलब है कि हुकूमत के ऐसे आलोचकों की कमी नहीं है- जिन्हें विगत कुछ सालों में अपने विचारों के चलते तरह तरह की कठिनाइयों को झेलना पड़ा- उन्हें भी यही होता दिख रहा है।

प्रताप भानु मेहता जैसे बुद्धिजीवी भी यह कहते दिख रहे हैं कि ‘In India the outcome looks more certain. Prime Minister Narendra Modi is, at the moment, most likely to return to office, giving India the advantages of stability and continuity।

वह इस बात को जोड़ना भी नहीं भूलते कि मोदी की तीसरी पाली सुनिश्चित है और इससे भारत को स्थिरता और निरंतरता का लाभ होगा- India the advantages of stability and continuity।

सवाल यह उठता है कि क्या आने वाले चुनाव इन दावों को अंततः पुष्ट करेंगे और जनाब मोदी की तीसरी पारी को सुगम करेंगे या उन्हें एक तरह से भाजपा के दो दशक पहले उस मुक़ाम की याद दिलाएंगे, जब आत्मविश्वास से बेहद लबरेज तत्कालीन प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने लोकसभा चुनावों की तारीखों को नियत समय से पहले करने का ऐलान किया था, तो उन्हें यह लगा था कि उनका ‘इंडिया शाइनिंग’ का अभियान भारत की आम जनता को भी लुभाएगा, मगर नतीजा उल्टा निकला था। भाजपा दस साल के लिए सत्ता से बाहर हो गयी थी।

जितनी बड़ी चुनौती हमारे सामने उपस्थित है, इसके बावजूद देश के अंदर ऐसी समझदार आवाज़ें धीमी नहीं पड़ी हैं, जो दावे के साथ यह कहें कि ‘There’s Nothing ‘Inevitable’ About Narendra Modi’s Return in 2024’/‘आखिर 2024 में नरेंद्र मोदी की वापसी के बारे में कुछ भी अनिवार्य नहीं है’।

हिन्दू के संपादक रहे हरिश खरे इस बात को भी स्पष्ट करते हैं कि जहां मोदी/भाजपा की कोशिश होगी कि इन चुनावों को गांधी परिवार के इर्द गिर्द केन्द्रित रखा जाए वहीं विपक्षी गठबंधन की जिम्मेदारी होगी कि वह मोदी के दस साल के रिकाॅर्ड पर- जो कतई चमकता नहीं दिखता- फोकस करे, अब तक वह इन जिम्मेदारियों से बचते रहे हैं-

“अब तक, मोदी ऐसी आलोचनाओं से बचते रहे हैं। अगर चीज़ें गड़बड़ हुई हैं, अगर वायदे पूरे नहीं हुए हैं, अगर अपराधियों-जालसाजों को नहीं पकड़ा गया है, अगर पहले हमारे नियंत्राण में रहे इलाकों पर चीन का नियंत्रण हुआ है, अगर काला पैसा लौट नहीं पाया है, अगर आज भी आतंकी सैनिक अधिकारियों को निशाना बना रहे हैं, अगर मणिपुर में आज भी तनाव है तो वह किसी अन्य की जिम्मेदारी है।”

वहीं योगेन्द्र यादव जैसे कुछ लोग इस बात से अपनी असहमति प्रगट कर रहे हैं कि “2024 की बाजी में ‘शह और मात’ का फैसला हो चुका है।” उनका मानना है कि ‘अगर विपक्ष के पास रणनीति हो और उस पर अमल करने की राजनीतिक इच्छा-शक्ति और कल्पना-शक्ति हो तो फिर 2024 के लिए ऐसे चुनावी नतीजे की संभावना बरकरार है। जहां तक आज की तारीख का सवाल है, 2024 के लिए मुकाबले का मैदान अब भी खुला हुआ है।

अग्रणी राजनीतिक विश्लेषक आनंद के सहाय- जिनके आलेख प्रमुख अख़बारों, पत्र पत्रिकाओं में लम्बे समय से छपते रहे हैं, वह ‘द वायर’ के अपने अपने ताज़ा लेख में बताते हैं कि “भले ही मुख्यधारा की मीडिया भाजपा की बढ़त दिखाने के लिए जबरदस्त तरीके से सक्रिय दिखे, लेकिन राजनीतिक परिद्रश्य उतना एक तरफा नहीं दिखता। अगर बारीकी से देखें तो भाजपा खेमे के अंतर्विरोध कई मायनों में सीटों के बंटवारे को लेकर उठे मतभेदों से अधिक दिखते हैं।”

वह यह भी लिखते हैं कि “छदम धार्मिकता और सांप्रदायिक भावना से उपजे वातावरण से चुनावी लाभ की उम्मीद कम ही दिखती है”, जिसके पीछे वह दो कारकों का विशेष उल्लेख करते हैं- एक ‘सर्वोच्च नेतृत्व स्तर पर दिखने वाली मनमानी जिसके तहत उनके करीबी दायरे के बाहर के लोगों की राय को तवज्जो नहीं दी जाती’ और हालिया चुनाव के मददेनज़र ‘क्षेत्रीय स्तर के नेतृत्व में उठते असंतोष के स्वर’।

वहीं जानकार लोग इस बात को अच्छी तरह समझ रहे हैं कि हिन्दुत्व वर्चस्वादियों के उभार की परिणति किस तरह सामाजिक और धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए एक अभिशाप में परिणत हुई है। क्रोनी पूंजीवाद/ दरबारी पूंजीवाद के उनके माॅडल के तहत- जहां सत्ताधारी समूहों के करीबी चंद बिजनेस घरानों ने जबरदस्त मुनाफा कमाया है और भारत की अर्थव्यवस्था के चुनिन्दा अहम क्षेत्रों पर उनका नियंत्रण भी हो चुका है।

वह यह भी देख रहे हैं कि ऐसे कदमों के चलते भले ही शेअर मार्केट में समय समय पर उछाल दिखता रहा हो, मगर उसका असर आज जनता की बढ़ती बदहाली में भी नज़र आ रहा है।

अब जबकि हमारे सामने ‘सब का इंडिया’ बनाम मोदी के ‘निहित स्वार्थी तत्वों और धर्मांधता के गठजोड़’ की लड़ाई आसन्न है, तब इस बात की पड़ताल करना बेहद जरूरी होगा कि मुख्यधारा की मीडिया द्वारा निर्मित सत्ताधारी पार्टी की इमेज और हक़ीकत में वाकई कुछ अंतराल है या नहीं।

यह जानने के लिए किसी विशेषज्ञ के अध्ययन की जरूरत नहीं कि भाजपा/राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ 2024 के चुनावी जंग के लिए अपनी तरफ से बहुत पहले से ही तैयार है। दिसम्बर में हुए विधानसभा चुनावों में तीन उत्तरी राज्यों- राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश- के विधानसभा चुनावों में उन्हें मिली सफलता से- जिनमें दो राज्यों में उन्होंने राज्य में सत्ताधारी कांग्रेस को शिकस्त दी और तीसरे राज्य में वह बीते अठारह साल से अपना शासन बनाए हुए है (बीच में थोड़े समय के लिए कांग्रेस को भी सत्ता मिली थी) उनके आत्मविश्वास की कोई सीमा नहीं है।

इन विधानसभा चुनावों में उन्होंने जिस अलग किस्म के ‘गुजरात माॅडल’ को अपनाया उसने भी उनके मनोबल को बढ़ाया है कि मोदी करिश्मा अभी बना हुआ है। मालूम हो कि गुजरात में भाजपा ने मुख्यमंत्री ही नहीं बल्कि पूरे मंत्रिमंडल को बदल दिया और बिल्कुल नए चेहरों को वह ले आए थे, यही तरीका उन्होंने मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ में अपनाया- वहां के स्थापित नेता शिवराज सिंह चौहान, वसुंधरा राजे और रमन सिंह के स्थान पर वह नए नेतृत्व को नियुक्त किए है।

विगत लगभग एक दशक के मोदी काल की यह एक खासियत कही जा सकती है कि इस शासनकाल में नागरिक की स्थापित अवधारणा- जिसके तहत वह एक ‘अधिकार संपन्न व्यक्ति’ के तौर पर उपस्थित होता है और राज्य के बीच के रिश्ते को एक तरह से धूमिल कर दिया है, अब नागरिक एक किस्म का अधिकारविहीन व्यक्ति है जो राज्य का लाभार्थी बन गया है।

वह पुराने दौर के ‘प्रजा’ का स्थान ग्रहण करता जा रहा है- जिसे मोदी की गारंटी मिलनी तय है, जिसे चुनावों के वक्त यह याद भी दिलाया जा सकता है कि वह ‘नमक’ के प्रति वफादार रहे- यह न भूले कि उसने ‘मोदी का नमक खाया है’।

हम भले ही यकीन करें ना करें कि लेकिन आज की तारीख में भाजपा हिन्दुओं की ‘स्वाभाविक पार्टी’ बनती दिख रही है और राममंदिर के उदघाटन के साथ वह इस इमेज को और मजबूत करने में आमादा है। उद्घाटन की तारीख को लेकर चार पीठों के शंकराचार्यों की सलाह को जिस तरह ठुकराया गया और उनके खिलाफ भी मुहिम चलायी गयी, इससे हिन्दुओं के एकमात्र प्रतिनिधि के तौर पर उनके आत्मविश्वास में निश्चित ही बढ़ोत्तरी हो गयी होगी।

पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में जाति जनगणना का मसला- जिसे बिहार की सरकार द्वारा संपन्न की गयी जनगणना से नयी गति मिली दिखती थी- जिस तरह से प्रभावी नहीं हो सकी- जबकि कांग्रेस पार्टी ने भी इस मुददे को उठा कर एक नयी हवा बनाने की कोशिश की थी, वह शायद इसी बात की ताईद कर रहा है कि मंडल जातियों का एक हिस्सा भी अब हिन्दुत्व के विचारों से सम्मोहित उठा है।

धर्मनिरपेक्षता का विचार- जिसे आज़ादी के संघर्ष के महान नेताओं ने आगे बढ़ाया- जिसके तहत ‘राज्य और धर्म के अलगाव’ की बात स्पष्टता के साथ की गयी थी, जो स्वाधीन भारत में सर्वधर्म समभाव के तौर पर व्यवहार में आया, उस संकल्पना को गोया भाजपा ने पूरी तरह छोड़ दिया है।

बीच का ऐसा कालखंड था जब वह कांग्रेस पार्टी आदि को छदम धर्मनिरपेक्षतावादी बोलती थी, साथ ही साथ पॉजिटिव सेक्युलरिज्म अर्थात सकारात्मक धर्मनिरपेक्षता को लाने की बात करती थी, जबकि अब उस छलावे की भी जरूरत नहीं रही है।

राम मंदिर उदघाटन के बहाने जिस तरह राज्यसत्ता, राजनीतिक पार्टी अर्थात भाजपा तथा हिन्दू धर्म की हिमायत करने वाले समूचे संघ परिवार एवं उसके तमाम आनुषंगिक संगठनों के बीच तमाम विभाजक रेखाएं धूमिल कर दी गयी हैं या भुला दी गयी हैं, यह इसी बात का परिचायक है।

कहां आज़ादी के बाद सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण को लेकर गांधी, नेहरू आदि द्वारा अपनाया गया रुख- कि एक धर्मनिरपेक्ष राज्य का यह काम नहीं है कि वह प्रार्थना स्थलों का निर्माण करे, यहां तक कि सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण के बाद उसके उदघाटन के अवसर पर तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद द्वारा उसमें शामिल होने के लिए मिले निमंत्रण पर सहानुभूतिपूर्वक विचार और प्रधानमंत्री नेहरू द्वारा उन्हें बाकायदा पत्र लिख कर इससे किया गया इन्कार, अंततः एक राष्टपति के तौर पर नहीं बल्कि एक नागरिक के तौर पर राजेंद्र प्रसाद उस कार्यक्रम में शामिल हुए थे।

कहने का तात्पर्य कि राज्य के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को बनाए रखने को लेकर चीजें बिल्कुल 180 डिग्री पलट गयी हैं, जबकि प्रधानमंत्री मोदी खुद राममंदिर के उदघाटन में प्रमुख भूमिका अदा कर रहे हैं।

भाजपा के समर्थकों के लिए, अब यह गोया पूर्वनिश्चित फैसला है कि हिन्दू फर्स्ट एजेण्डा के साथ और बेहतर संगठन और कल्याणकारी कदमों के चलते- जैसे लाड़ली बहना, 80 करोड़ जनता के लिए पांच किलो राशन, मकान बनाने के लिए वित्तीय सहयोग- भाजपा के लिए तीसरी बार जीतना लगभग तय है।

उन्होंने यह भी कयास लगाया होगा कि अयोध्या में राममंदिर के उदघाटन के बहाने चली मुहिम के बलबूते- जिसने एक तरह से धर्म और राजनीति के बीच की रेखाएं भी मिटा दी हैं, और ईडी, सीबीआई जैसी संस्थाओं के आधार पर- जिसमें लगभग 95 फीसदी छापे विपक्षी नेताओं पर ही डाले जाते रहे हैं और ऐसे ‘भ्रष्ट नेता’ जब भाजपा के साथ जुड़ जाते हैं तो वह सारे मामले ठंडे बस्ते में डाल दिए जाते हैं। यही अनुभव है, लिहाजा धीरे धीरे उनके खिलाफ आवाजें भी धीमी होती जाएंगी, विपक्षी ताकतों के लिए इतना भी मौका नहीं मिलेगा कि वह ठीक से प्रचार कर सकें।

लेकिन जैसे जैसे चुनाव नजदीक आ रहे हैं शायद मोदी सरकार को यह एहसास हो रहा है कि उसके द्वारा समय समय पर ऐलान की गयी योजनाओं और उनके अमल में दिखने वाला अंतराल अब लोगों की नज़र में भी आ रहा है और शायद सबकुछ जमीनी स्तर पर ठीक नहीं है।

छत्तीसगढ के चुनाव प्रचार में ही सरकार ने इस बात का संकेत दिया था कि विकास के तमाम दावों के बावजूद जनता के बड़े हिस्से में आर्थिक विवंचना बढ़ रही है और चुनावी वर्ष में यह स्थिति उसके लिए प्रतिकूल होगी, लिहाजा उसकी तरफ से ऐलान किया गया जनवरी 2014 से पांच साल तक 80 करोड़ लोगों को पांच किलो मुफ्त अनाज दिया जाता रहेगा।

साफ है कि अपने विजय दुंदुभी अभी से बजाने में लगी भाजपा के लिए मुख्यधारा के मीडिया के रूपांतरण से जबरदस्त फायदा हुआ है। आपातकाल के दिनों में मीडिया के आचरण को लेकर यह वाजिब आलोचना की जाती थी कि ‘उन्हें झुकने के लिए कहा गया था और वह रेंगने लगे’।

मगर आज की तारीख में मीडिया ‘रेंगने’ से बहुत परे चला गया है, वह न केवल शासन के चीयरलीडर्स की भूमिका में दिखने में फक्र महसूस करने लगा है बल्कि हुकूमत से असहमति रखने वालों के प्रति बेहद नकारात्मक रवैया रखने में उसे गुरेज नहीं होता। वह ऐसे लोगों को ‘एंटीनेशनल कहने में या अर्बन नक्सल’ के तौर पर सम्बोधित करने में भी गुरेज नहीं करता।

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में शुमार भारत को- जिसकी आबादी 140 करोड पार करने को है, उसका लोकतंत्र के प्रहरी की भूमिका के बजाय, ‘वाॅचडाॅग ऑफ डेमोक्रेसी’ के रोल के बजाय ‘लैपडाॅग ऑफ डेमोक्रेसी’ में रूपांतरण निश्चित ही उसकी अपनी भूमिका के साथ जबरदस्त खिलवाड़ है।

मीडिया के इस गोदीकरण का ही नतीजा है कि मोदी के तमाम वायदों की, मोदी सरकार द्वारा किए गए तमाम नयी योजनाओं के ऐलान की न कोई समीक्षा होती है, न ही मीडिया में इतना साहस बचा है कि वह ऐलानों एवं हक़ीकत के फर्क को समझे, रेखांकित करे।

अपने एक ताज़ा आलेख में प्रख्यात पत्रकार पी रमण ने जनाब मोदी की तमाम फलैगशिप स्कीम्स और उनकी असफल गारंटियों की असलियत को उजागर करते हुए एक लेख लिखा है, जिसमें वह आकलन करते हैं, कि ‘विगत लगभग दस साल के अपने शासनकाल में प्रधानमंत्री मोदी ने लगभग 142 योजनाओं की शुरुआत की है, और चूंकि हर दूसरे दिन मोदी की छवि चमकाने के लिए नयी नयी योजनाओं का ऐलान हो रहा है, इसलिए ऐसे तमाम प्रोग्राम्स की कोई समीक्षा या मूल्यांकन भी नहीं हो सका है।

वहीं एक तरफ अपनी योजनाओं के मूल्यांकन के नाम पर मीडिया में खामोशी दूसरी तरफ आसन्न चुनावों को देखते हुए मोदी सरकार ने अपनी इन योजनाओं का ढिंढोरा पीटने के लिए ऐलान किया कि सरकार की तरफ से हर राज्य के ढाई लाख पंचायतों तक को समेटने के लिए विकसित भारत संकल्प यात्रा निकलेगी, जिसमें सरकारी अधिकारी सवार होंगे और मोदी सरकार की योजनाओं का प्रचार होगा।

निश्चित ही सरकार ने यह सोचा नहीं होगा कि इस यात्रा के जरिए मोदी सरकार की ‘उपलब्धियां और योजनाओं’ की जानकारी लोगों तक पहुंचाने की इस मुहिम को जगह जगह प्रतिरोध का सामना करना पड़ेगा।

महाराष्ट के कई जिलों में ही नहीं पंजाब तथा उत्तर भारत के कुछ इलाकों में मोदी सरकार की इस प्रचार गाड़ियों को लोगों ने घेरा और न केवल यह पूछा कि इसे मोदी सरकार क्यों कहा जा रहा है, जबकि यह भारत सरकार का प्रचार है। इतना ही नहीं इन प्रचार वाहनों पर भाजपा का झंडा क्यों फहरा रहा है, जबकि तिरंगा फहराना चाहिए था।

फिर रातों-रात ख़बर आयी कि अब इन प्रचार वाहनों को विकसित भारत संकल्प यात्रा नहीं कहा जाएगा बल्कि ‘मोदी की गारंटी वाहन’ कहा जाएगा। निश्चित तौर पर प्रचार वाहनों के जरिए जो ढिंढोरा पीटा जा रहा था, जिस पर सवाल उठ रहे थे, उस गुस्से का शमन करनेे के लिए यह कदम उठाया गया।

हर खाते में 15 लाख रूपये और 2 करोड़ नौकरियों की बात जनाब मोदी ने 2014 के चुनाव प्रचार में की थी, जब वह अभी प्रधानमंत्री नहीं बने थे, बाद में जब 15 लाख रूपये की बात उठायी गयी तो खुद उनके सहयोगी अमित शाह ने बताया था कि वह एक ‘चुनावी जुमला’ था।

पी रमण अपने उपरोक्त आलेख में स्मार्ट सिटी से लेकर स्किल इंडिया तक, आयुष्मान भारत से लेकर उज्जवला योजना तक मोदी सरकार द्वारा ऐलान की गयी तमाम योजनाओं के दावे तथा उनकी हक़ीकत पर रोशनी डालते हैं।

याद रहे अगस्त 2023 में संसद के पटल पर CAG द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट में आयुष्मान भारत और द्वारका एक्स्प्रेसवे योजनाओं में कथित तौर पर हुई अनियमितताओं की बात पेश की गयी थी। बाद में पता चला कि जिन ऑडिटर्स ने इन योजनाओं की जांच की थी, उनका तबादला सितम्बर में किया गया हालांकि सरकार की तरफ से आधिकारिक बयान में यही बताया गया कि यह ‘रूटिन टान्सफर’ थे।

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