बादल सरोज
अमरीका के केनेडी सेंटर में 24 जून को बोलते हुए जब नरेन्द्र मोदी भारत में हर सप्ताह एक नई यूनिवर्सिटी, हर दो दिन में एक नया कालेज, हर दिन एक नया आईटीआई और हर साल एक नया आईआईटी और आईआईएम बनाने का दावा कर रहे थे, तब वे, जैसा कि आमतौर पर माना जाता है, दरभंगा के एम्स की तरह सफ़ेद झूठ नहीं बोल रहे थे। वे अभिधा में सच बोल रहे थे। इस सच की पुष्टि उनके भाषण के ठीक दो महीने पूरे होते ही, 24 अगस्त को, उत्तरप्रदेश के मुज़फ्फ़रनगर के शाहपुर के गाँव खुब्बापुर की प्राइमरी कक्षा के एक वीडियो से हो भी गयी। इस वीडियो को अनगिनत बार देखा जा चुका है, इसलिए ज्यादा विस्तार में जाने की आवश्यकता नहीं है। इसमें एक शिक्षिका, जो स्कूल की प्राचार्या और मालकिन दोनों है, एक मुस्लिम बच्चे को एक कोने में खड़ा करके बारी-बारी से दूसरे छात्र-छात्राओं को बुलाती है, उनके हाथों उसे पिटवाती है। पिटते-पिटते उस मासूम के गाल लाल हो जाने पर वह कमर पर मारने के लिए कहती है। इसी के साथ रनिंग कमेंट्री करते हुए पूरे मुस्लिम समुदाय के बारे में आपत्तिजनक टिप्पणियां भी करती जाती है। यह सब वे तब कर रही थी, जब उन्हें पता था कि उनकी इस कारगुजारी का वीडियो बन रहा है।
मुज़फ्फरनगर की घटना पहली नहीं है, इसके पहले, राजस्थान के चुरू जिले में सुजानगढ़ के नूरनगर के राजकीय पूनम चंद बजड़िया स्कूल के एक मुस्लिम छात्र ने शिक्षकों की प्रताड़ना से तंग आकर आत्महत्या कर ली थी। 12वीं कक्षा में पढ़ रहा 17 वर्षीय रज्ज़ाक पढ़ने में होशियार था। पिछली वर्ष कक्षा 10वीं की वार्षिक परीक्षा उसने 86 प्रतिशत अंक से पास की थी। वह पढ़ना चाहता था, लेकिन उसके शिक्षक उससे कहते थे कि पढ़ कर क्या करेगा? तू मुसलमान है। वैसे भी तुझे आतंकी बनना है। परिजनों के अनुसार, मुस्लिम होने के कारण शिक्षक रज्जाक के साथ अमानवीय व्यवहार करते थे। क्लास में सहपाठियों के सामने बेइज्जत कर बाहर खड़ा कर देते थे। धर्म को टारगेट कर लगातार अनर्गल टिप्पणी भी किया करते थे।
इसी तरह की एक वारदात 14 अप्रैल 2023 को मध्यप्रदेश के इंदौर में हुयी, जहां 11 साल के एक मासूम बच्चे को उसी के साथ पढने वाले 3 अन्य बच्चे पकड़ कर खेत में ले गए, उसे नंगा कर उसकी पिटाई की और उसे जयश्रीराम और पाकिस्तान मुर्दाबाद के नारे लगाने के लिए कहा।
बहरहाल ऐसा नहीं है कि सब कुछ बंजर हो रहा है, अगर नफरत की फसल हरेक हरियाली को रेगिस्तान में बदलने पर आमादा है, तो बड़ी संख्या में सजग भारतीय भी हैं, जो ऐसा न होने देने के लिए संकल्पबद्ध हैं। अगर उधर तृप्ता त्यागी हैं, तो इधर विश्व पदक जीतकर आने वाले नीरज चौपड़ा और उनकी माँ सरोज देवी हैं, जो इस नैरेटिव को ध्वस्त करती हैं। उधर लाइन में लगकर अपने ही साथी छात्र को पीटने के लिए विवश किये जाने वाले बच्चे हैं, तो इधर लाइन में लगकर दौड़ते हुए एक दूसरे को बैट थमाकर रिले रेस में एक दूसरे को जिताते मुहम्मद अनस, अमोज जैकब, मुहम्मद अजमल और राजेश रमेश भी हैं।
यह माहौल स्कूलों का आम माहौल बनता जा रहा है। एक अध्ययन के अनुसार स्कूलों में पढने वाले मुसलमान छात्र-छात्राओं में से 86 प्रतिशत अपने धर्म की पहचान की वजह से परेशान और तंग किये जाते हैं, उन्हें मखौल, तानों-तिश्नों का शिकार बनाया जाता है, उत्पीड़ित किया जाता है। यह अध्ययन दिल्ली और बड़े शहरों के स्कूलों का है, बाकी स्कूलों की स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है। यही बर्ताब अब कालेज, यूनिवर्सिटी और दफ्तर, कारखानों और बाकी कार्यस्थलों को भी अपने अँधेरे की छाया में ले रहा है। ये ही हैं नफरत की वे पौधशालाएं, नर्सरी, जहां मोदी के दावे वाली आईटीआई, विश्वविद्यालय, कालेज, आईआईटी और आईआईएम की पौध तैयार हो रही हैं और बकौल उनके ‘इन संस्थानों से निकला टैलेंट दुनिया की मानवता के सामने एक मिसाल प्रस्तुत कर रहा है।’
जयपुर मुम्बई की ट्रेन में गोलीबारी करने वाले चेतन सिंह इसी में ढलकर निकल रहे हैं। मुज़फ्फरनगर की तृप्ता त्यागी, चुरू के स्कूल के ‘शिक्षक और शिक्षिकाएं’ इसी तरह की नफरती नस्ल की पौध तैयार कर रहे हैं। जहर की इस फसल को उगाने और उसे लहलहाने के काम में वे अकेले नहीं हैं, स्कूल तो बस अनुगूंज हैं। इसकी असल तैयारी, जहर बुझे बीजों की नित नयी प्रजाति बनाने और उसे खाद-पानी मुहैया कराने में लगभग समूचा मीडिया लगा है, बाबा और बाबियां जुटी हैं, नेता-नेतानी भिड़े हैं, मंत्री-संतरी और उनकी निगहबानी में पूरा तंत्र लगाया जा रहा है। जो ऐसा करने को राजी नहीं है, उन्हें निबटाया जा रहा है, अलग-थलग किया जा रहा है।
बहुत सिलसिलेवार तरीके से यह फसल बोई और उगाई गयी है। पिछले दो-ढाई दशकों में बने बच्चों के लगभग सभी कार्टून्स और ज्यादातर फिल्मों में बुरा आदमी मुस्लिम अथवा मुस्लिम जैसी वेशभूषा वाला दिखाते-दिखाते इसे हवा-पानी दिया गया और इस तरह आरएसएस की शाखाओं में जो मॉक ड्रिल हुआ करती है, उसे अब असल बनाया जा रहा है। नई शिक्षा नीति इसी का ब्लू प्रिंट है।
यह हिटलर के नाज़ी जर्मनी के स्कूलों में यहूदी बच्चों के साथ किये-धरे का भौंड़ा ड्रेस रिहर्सल है। इस तरह यह स्कूली पढ़ाई व्यवस्था की बुनियादी समझदारी का ही निषेध है। स्कूल सिर्फ एक क्लास रूम में बैठकर साथ-साथ पढ़ने की जगह भर नहीं होते, उनमें बिना किसी भेद के एक जैसी यूनिफार्म पहनकर आना, एक साथ खेलना, एक दूसरे से जुड़ना और सीखना, एक दूजे को समझना, एक साथ खाना और इस तरह सामाजिक असमानताओं के बोध और ऊँच-नीच की विकृत सोच के बोझ से मुक्त होकर उनसे बाहर आना सिखाया जाता है। एक सभ्य समाज का संवेदनशील नागरिक बनाया जाता है।
ठीक इसीलिए मुज़फ्फरनगर या बाकी स्कूलों की घटनाओं को स्थानीय अपवाद या व्यक्ति की चूक मानकर नहीं चला जा सकता और इसीलिए इसे ‘लड़ाई-लड़ाई माफ़ करो – दिल के मैल को साफ़ करो’ जैसे दोनों बच्चों के गले मिलाने के प्रतीकात्मक बालसुलभ दिखावे से पूरा हुआ नहीं माना जा सकता, क्योंकि नफरत दिल में नहीं, दिमाग में भरी है और हर रोज इसकी भारी खेप ठूंसी जा रही है। सारे स्कूलों को सरस्वती शिशु मंदिरों में बदला जा रहा है। अबोध बच्चों के निर्मल मन को विषाक्त और दिमाग को जहरीला बनाया जा रहा है।
यह अपने आप नहीं हो रहा है। संविधान और उसमें लिखी समतामूलक, समानता आधारित समझदारी से बैर रखने वाले इन दिनों सत्ता में है। वे केवल अपने अनुकूल इतिहास को गढ़ने तक महदूद नहीं हैं। वे वर्तमान ही नहीं जीतना चाहते, भविष्य भी हमेशा के लिए बदल देना चाहते हैं। ऐसी घटनाओं में अपने हस्तक्षेप के रूप और तरीकों से वे इस तरह के अपराधों को स्वीकृति और मान्यता देकर साफ़ सन्देश दे रहे हैं। मुज़फ्फरनगर की घटना में सब कुछ रिकॉर्ड है, जिसमें खुद दोषी द्वारा वह सब किया जाना साफ दिख रहा है। दोषी द्वारा कबूल करने के बाद भी सिर्फ पुलिस हस्तक्षेप अयोग्य,असंज्ञेय अपराध का दर्ज किया जाना और दूसरी ओर इस वीडियो को दिखाने भर के जुर्म में पत्रकार मोहम्मद जुबैर के खिलाफ गंभीर अपराधों में एफआईआर दर्ज किया जाना, या फिर कठुआ के एक स्कूल की घटना में मुस्लिम शिक्षक के खिलाफ मुकदमा दर्ज कर लेना, इसी सरकारी संरक्षण के उदाहरण हैं। प्रशासन की जो भूमिका कठुआ में थी, वह खुब्बापुर में पूरी तरह बदली हुई थी। यहाँ पीड़ितों पर दवाब बनाया जा रहा था, बच्चे को स्कूल से निकालने और फीस वापस करवाने जैसे समझौते करवाये जा रहे थे।
इसी तरह के संदेश दूसरी तरह से भी दिए जा रहे थे। इसी 15 अगस्त को मेहसाणा गुजरात के एक स्कूल में दूसरे-तीसरे नम्बर पर आये विद्यार्थियों को मंच पर बुलाकर सम्मानित किया जा रहा था, मगर 10वीं में स्कूल की टॉपर रही अर्जना बानू को सिर्फ इसलिए नहीं बुलाया गया, क्योंकि वह मुस्लिम थी। यही संदेश मध्यप्रदेश के दमोह जिले में वहां के हिन्दू-मुस्लिम दोनों समुदायों के बीच सबसे लोकप्रिय स्कूल गंगा जमुना विद्यालय को, जिला प्रशासन की सकारात्मक रिपोर्ट के बावजूद बंद करके दिया जा रहा था। 65 से 25 और फिर 125 तथा कब्रिस्तान और शमशान जैसे रूपकों तक को आजमाने से न चूकने वाले हुक्मरानों द्वारा यही संदेश नूंह मेवात में अल्पसंख्यक समुदाय की दुकानों और मकानों पर बुलडोजर चलाकर दिया जा रहा था। कश्मीर फाइल्स जैसी बुरी और झूठी, उन्माद भड़काने और वैमनस्य फैलाने वाली फिल्म को सरकारी पुरस्कारों और तमगों से लादकर यही बात कही जा रही थी।
मसला मुज़फ्फरनगर नहीं है, मुद्दा मुसलमानों के खिलाफ भड़काई जा रही उन्मादी मानसिकता भर भी नहीं है। नफ़रत बस नफ़रत होती है, वह धर्म और मज़हब नहीं देखती, सबको निगलना उसकी फ़ितरत में होता है, वह सबको निगल भी रही है।
शिक्षा परिसरों में भेड़ियों की गश्त का आगाज़ 26 अगस्त 2006 को उज्जैन के एक महाविद्यालय में जिन प्रोफेसर सब्बरवाल की दिनदहाड़े की गयी हत्या से हुआ था, वे मुसलमान नहीं थे। हत्या के आरोपी एबीवीपी के नेता 3 साल में ही बाइज्जत बरी हो गए। होना ही था, जब वे जेल के नाम पर अस्पताल में थे, तब प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह बाकायदा कैमरा टीम साथ लेकर उनसे मुलाक़ात करने गए थे।
राम रहीम जिन शिष्याओं के साथ बलात्कार और जिस शिष्या की हत्या के आरोप में आख़िरी साँस तक की सजा पाकर भी सातवीं-आठवीं बार पैरोल पर छुट्टा घूम रहा है, वे भी तृप्ता त्यागी के शब्दों में ‘मोहम्मडन’ नहीं थी।
अगस्त 2022 में राजस्थान के जालौर में स्कूल के मटके से पानी पीने के अपराध में हुई पिटाई की वजह से मर गया, मासूम छात्र इन्द्र मेघवाल का तो नाम ही वर्षा के देवता के नाम पर था, मुस्लिम वह भी नहीं था, मगर मेघवाल होने के कारण उसे भी जान से हाथ धोना पड़ा।
फरवरी 2023 में उत्तर प्रदेश के एक स्कूल में प्यास लगने पर प्रिंसिपल की बोतल से दो घूँट पानी पीने की वजह से बुरी तरह पिटने वाला विद्यार्थी भी मुसलमान नहीं था।मणिपुर की महिलाएं भी मुस्लिम नहीं थी।
हालिया खबर मिली है कि सागर में बलात्कार की शिकार बहन के भाई को मार डाला गया, पूरा परिवार तबाह कर दिया गया। मुसलमान वे भी नहीं थे। इसलिए सवाल मुस्लिम होने का नहीं बचा है, असल में तो सवाल मुस्लिम या ईसाई, सिख या बौद्ध होने का कभी था ही नहीं। असल सवाल उस मनुस्मृति के नुकीले सांचे में कसकर राष्ट्र को बाँधने का है, जो तब की है, जब न इस्लाम था न ईसाईयत थी। नापाक इरादा हिंदुत्व पर आधारित एक ऐसा हिन्दू राष्ट्र बनाने का है, जिसका खुद हिन्दू धर्म, समाज या उसकी परम्परा के साथ दूर-दूर का कोई रिश्ता नहीं है।
इसलिए यह यहीं तक नहीं रुकेगा, यह घर में, सबके घर में भी घुसेगा और देगा अपनी ही माँ को स्त्री होने के गुनाह की शास्त्र सम्मत सजा। गोद दी जायेंगी, दड़बे में बन्द होने से ना करने वाली बहनें, बेटियां और बिस्तर की बंधुआ बनने में नानुकुर करने वाली पत्नियां। इसलिए ये सब की बात है, दो चार दस की बात नहीं ।
बहरहाल ऐसा नहीं है कि सब कुछ बंजर हो रहा है, अगर नफरत की फसल हरेक हरियाली को रेगिस्तान में बदलने पर आमादा है, तो बड़ी संख्या में सजग भारतीय भी हैं, जो ऐसा न होने देने के लिए संकल्पबद्ध हैं। अगर उधर तृप्ता त्यागी हैं, तो इधर विश्व पदक जीतकर आने वाले नीरज चौपड़ा और उनकी माँ सरोज देवी हैं, जो इस नैरेटिव को ध्वस्त करती हैं। उधर लाइन में लगकर अपने ही साथी छात्र को पीटने के लिए विवश किये जाने वाले बच्चे हैं, तो इधर लाइन में लगकर दौड़ते हुए एक दूसरे को बैट थमाकर रिले रेस में एक दूसरे को जिताते मुहम्मद अनस, अमोज जैकब, मुहम्मद अजमल और राजेश रमेश भी हैं। अगर उधर मोनू मानेसरों और बिट्टू बजरंगियों के साथ मिलकर साजिश रचते खट्टरों के गिरोह हैं, तो इधर नूंह से शुरू कर हरियाणा भर के गाँव-गाँव में किसानों को सदभाव को खंडित न होने देने की शपथ दिलाने वाली पंचायतें भी हैं।
इसी मुहिम का एक शानदार उदाहरण थी 24 अगस्त को देश के किसान-मजदूरों की महापंचायत। खचाखच भरे दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में, भारत के इतिहास में पहली बार इतनी बड़ी तादाद में किसानों और मजदूरों के संगठन इकट्ठा होकर मिलजुल कर लड़ने और भारत को बचाने का मंसूबा साध रहे थे।
बादल सरोज पाक्षिक ‘लोकजतन’ के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा में संयुक्त सचिव हैं।