डा0 जगदीश गाँधी, शिक्षाविद् एवं संस्थापक-प्रबन्धक,
सिटी मोन्टेसरी स्कूल, लखनऊ
(1) संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा प्राकृतिक आपदाओं तथा मानव निर्मित संकटों से निपटने के लिए जनजागरण:-
संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा प्रतिवर्ष 13 अक्टूबर को अन्तर्राष्ट्रीय प्राकृतिक आपदा कटौती दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की गयी है। इस दिवस का उद्देश्य सदस्य देशों के बीच प्राकृतिक आपदा के समय एक-दूसरे देश के बीच सहयोग, शान्ति तथा सहायता को बढ़ावा देना तथा प्राकृतिक आपदाओं के बढ़ते खतरों की संख्या में कटौती करने के लिए सार्थक कदम उठाने के लिए नागरिकों को प्रेरित करना है। यूनाइटेड नेशन्स डेवलपमेन्ट प्रोग्राम इसमें अह्म भूमिका निभा रहा है। धरती पर पलने वाले मानव जीवन सहित समस्त जीवों के ऊपर कोरोना महामारी, अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद, तृतीय विश्व की आशंका, परमाणु शस्त्र बनाने की होड़, ग्लोबल वार्मिंग, ओजन परत का क्षरण, प्रौद्योगिकी का दुरूपयोग, तेल संकट, अत्यधिक जनसंख्या, सुपरवोल्केनो, उल्का प्रभाव, हिम युग, वृहत सुनामी, आकाल, भूकंप, मरुस्थलीकरण, प्रकृति का अनियंत्रित तथा अत्यधिक उपभोग, सूखा, बाढ़, जल संकट, वनों की कटाई आदि का सदैव संकट मंडराता रहता है। प्राकृतिक आपदा एक स्वाभाविक परिणाम है (जैसे ज्वालामुखी विस्फोट या भूकंप) जो मनुष्य को प्रभावित करते हैं। वर्तमान वैश्विक युग में अधिकांश समस्याऐं विश्वव्यापी स्वरूप धारण कर चुकी हैं। एक देश में किसी प्रकार की आपदा या संकट आने पर उसका प्रभाव पूरे विश्व पर पड़ता है क्योंकि आज एक देश का उत्पादन आवागमन की सुविधा तथा संचार-सूचना तकनीक के विकास के कारण एक देश से दूसरे देश में आसानी से तथा शीघ्रता से आ-जा रहा है। उदाहरण के लिए खाड़ी देशों में तेल का संकट आने पर तेल की बढ़ी कीमतों का प्रभाव विश्व के प्रत्येक व्यक्ति के जेब पर पड़ता है।
(2) जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र संघ की चेतावनी:-
संयुक्त राष्ट्र की एक वैज्ञानिक समिति के प्रमुख ने चेतावनी दी है कि अगर ग्रीनहाउस गैसों का प्रदूषण कम नहीं किया गया तो जलवायु परिवर्तन का दुष्प्रभाव बेकाबू हो सकता है। ग्रीनहाउस गैसें धरती की गर्मी को वायुमंडल में अवरूद्ध कर लेती हैं, जिससे वायुमंडल का तापमान बढ़ जाता है और ऋतुचक्र में बदलाव देखे जा रहे हैं। जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी समिति के अध्यक्ष राजेन्द्र पचैरी ने इस विषय पर 32 खंडों की एक रिर्पोट जारी की है। यह रिर्पोट 2610 पृष्ठ की है। पचैरी ने बताया, समय की पुकार है कि अब कार्रवाई की जाये। पचैरी ने कहा कि ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम नहीं किया गया, तो हालात बेकाबू हो जाएंगे। नोबल पुरस्कार विजेता वैज्ञानिकों के दल द्वारा तैयार इस रिर्पोट में कहा गया है कि यूरोप में जानलेवा लू, अमेरिका में दावानल, आस्ट्रेलिया में भीषण सूखा और मोजाम्बिक, थाईलैंड और पाकिस्तान में प्रलयकारी बाढ़ जैसी 21वीं शताब्दी की आपदाओं ने यह दिखा दिया है कि मानवता के लिए मौसम का खतरा कितना बड़ा है। रिर्पोट में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन का प्रभाव अधिक बढ़ा तो खतरा और बढ़ जाएगा।
(3) पर्यावरण असंतुलन आज वैश्विक चर्चा और चिंता का विषय बना हुआ है:-
अभी हाल में गरीब कैरेबियन देशों में एक हैती तथा अमेरिका में मैथ्यू तूफान के विनाश ने कहर बरसाया है। अभी पिछले वर्ष उत्तराखण्ड में आई भीषण प्राकृतिक आपदा, जापान के पिछले 140 सालों के इतिहास में आए सबसे भीषण 8.9 की तीव्रता वाले भूकंप की वजह से प्रशांत महासागर में आई सुनामी के साथ ही यूरोप में जानलेवा लू, अमेरिका में दावानल, आस्ट्रेलिया में भीषण सूखा और मोजाम्बिक, थाईलैंड और पाकिस्तान में प्रलयकारी बाढ़ जैसी 21वीं शताब्दी की आपदाओं ने सारे विश्व का ध्यान इस अत्यन्त ही विनाशकारी समस्या की ओर आकर्षित किया है। कुछ समय पूर्व पर्यावरण विज्ञान के पितामह श्री जेम्स लवलौक ने चेतावनी दी थी कि यदि दुनियाँ के निवासियों ने एकजुट होकर पर्यावरण को बचाने का प्रभावशाली प्रयत्न नहीं किया तो जलवायु में भारी बदलाव के परिणामस्वरूप 21वीं सदी के अन्त तक छः अरब व्यक्ति मारे जायेंगे। संसार के एक महान पर्यावरण विशेषज्ञ की इस भविष्यवाणी को मानव जाति को हलके से नहीं लेना चाहिए।
(4) जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दे भौगोलिक सीमाओं से बंधे हुए नहीं होते हंै:-
आज जब दक्षिण अमेरिका में जंगल कटते हैं तो उससे भारत का मानसून प्रभावित होता है। इस प्रकार प्रकृति का कहर किसी देश की सीमाओं को नहीं जानती। वह किसी धर्म किसी जाति व किसी देश व उसमें रहने वाले नागरिकों को पहचानती भी नहीं। वास्तव में आज पूरे विश्व के जलवायु में होने वाले परिवर्तन मनुष्यों के द्वारा ही उत्पन्न किये गये हैं। परमात्मा द्वारा मानव को दिया अमूल्य वरदान है पृथ्वी, लेकिन चिरकाल से मानव उसका दोहन कर रहा है। पेड़ों को काटकर, नाभिकीय यंत्रों का परीक्षण कर वह भयंकर जल, वायु और ध्वनि प्रदूषण फैला रहा है। जिस पृथ्वी का वातावरण कभी पूरे विश्व के लिए वरदान था आज वहीं अभिशाप बनता जा रहा है।
(5) मानव निर्मित संकटों से निपटने के लिए आपदा प्रबन्धन:-
मानवीय कार्य से निर्मित आपदा लापरवाही, भूल या व्यवस्था की असफलता मानव-निर्मित आपदा कही जाती है। मानव निर्मित आपदा तकनीकी या सामाजिक कहे जाते हैं। तकनीकी आपदा तकनीक की असफलता के परिणाम हैं। जैसे – इंजीनियरिंग असफलता, यातायात आपदा या पर्यावरण आपदा, ब्लैक होल्स आदि। सामाजिक आपदा की श्रेणी में आपराधिक क्रिया, भगदड़, दंगा और युद्ध आदि आते हैं। मानव को प्राकृतिक आपदा का सामना प्राचीन काल से ही करना पड़ रहा है। अपनी विशिष्ट भू-जलवायु के चलते परंपरागत रूप से भारत का एक बड़ा क्षेत्र प्राकृतिक आपदाओं के दृष्टि से अति संवेदनशील रहा है। इसके अलावा बड़ी दुर्घटनाएं भी कई बार आपदा का रूप ले लेती हैं। बीस सालों में आपदाएं पांच गुना बढ़़ी हैं। आपदा प्रबन्धन में भविष्य में उत्पन्न होने वाले विभिन्न खतरों, उनसे बचाव के पूर्व उपायों और उनका सामना करने के लिए पहले से तैयार रहने की आवश्यकता पर जोर दिया जाना चाहिए। इन उपायों में ऐसे ढांचागत और गैर-ढांचागत उपाय करने पर भी विशेष रूप से ध्यान जाना चाहिए जो ऐसी आपदाओं का सामना करने के लिए जरूरी हैं।
(6) आपदा प्रबन्धन में शैक्षिक प्रयास:-
भारत सरकार ने इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण पहल की है। मानव संसाधन मंत्रालय ने दसवीं पंचवर्षीय परियोजना में डिजास्टर मैनेजमेंट को स्कूल और प्रोफेशनल एजुकेशन में शामिल किया था। केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) ने आठवीं कक्षा के सामाजिक विज्ञान विषय के पाठ्यक्रम में इसे शामिल किया है। इसके बाद आगे की कक्षाओं में और सरकारी व गैर सरकारी उच्च शैक्षणिक संस्थाओं में भी डिजास्टर मैनेजमेंट की पढ़ाई होने लगी है। सर्टिफिकेट कोर्स के लिए न्यूनतम योग्यता बारहवीं पास है, जबकि मास्टर डिग्री या पीजी डिप्लोमा के लिए न्यूनतम योग्यता स्नातक है। इस कोर्स में एडमिशन लेने वालों में हर परिस्थिति में काम करने का जज्बा जरूर होना चाहिए। कुछ संस्थान प्रोफेशनल्स के लिए भी सर्टिफिकेट कोर्स चलाते हैं। अध्यापकों से हमारा अनुरोध है कि वे विद्यार्थियों को पढ़ाते समय आपदा प्रबन्धन से जुड़ी जानकारियों का उपयोग करें। आपदा प्रबंधन विषय को बेहतर ढंग से समझने के लिए उनका अध्ययन काफी महत्वपूर्ण है। बाल एवं युवा पीढ़ी ही विश्व के भावी नागरिक, स्वयं सेवक और आपदा प्रबंधक भी है। उन्हें आपदाओं का सामना करने में समर्थ बनने के साथ-साथ बेहतर आपदा प्रबंधक भी बनना है और मानव जाति के अत्यन्त उपयोगी जान-माल की रक्षा करनी है। आपदा प्रबन्धन को एक विषय के रूप में बल्कि एक अनिवार्य जीवन रक्षा कौशल के रूप में भी इस विषय को स्कूलों में लागू करने का हर संभव प्रयास किया जाना चाहिए। साथ ही स्कूल भवनों से बाहर जाकर माता-पिता और समुदाय में भी जागरूकता पैदा करने का प्रयास करना चाहिए। आपदा प्रबंधन के बारे में छात्रों में व्यावहारिक समझ पैदा करना। सूनामी पैदा होने के कारणों और इन विनाशकारी लहरों का सामना करने के लिए पहले से तैयार रहने के लिए किए जाने वाले उपायों के बारे में उपयोगी सूचना स्कूलों व मीडिया के माध्यम से समाज को दिया जाना चाहिए।
(7) विश्वव्यापी संकटांे से निपटने के लिए एक विश्व व्यवस्था बनाने का समय अब आ गया है:-
नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री जान टिम्बरजेन ने कहा है कि राष्ट्रीय सरकारें विश्व के समक्ष उपस्थित संकटों और समस्याओं का हल अधिक समय तक नहीं कर पायेंगी। इन समस्याओं के समाधान के लिए विश्व संसद आवश्यक है, जिसे संयुक्त राष्ट्र संघ को मजबूती प्रदान करके प्राप्त किया जा सकता है। इसलिए प्रभावशाली वैश्विक प्रशासन के लिए भारत को आगे बढ़कर संयुक्त राष्ट्र संघ को प्रजातांत्रिक एवं शक्तिशाली बनाकर विश्व संसद का स्वरूप प्रदान करने की अगुवायी करनी चाहिए। महान विचारक विक्टर ह्नयूगो ने कहा है कि ‘‘इस दुनियाँ में जितनी भी सैन्यशक्ति है उससे कहीं अधिक शक्तिशाली वह एक विचार होता है, जिसका कि समय अब आ गया हो।’’ वह विचार जिसका कि समय आ गया है। वह विचार है भारतीय संस्कृति की ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की महान विचारधारा और भारतीय संविधान का ‘अनुच्छेद 51’ जिसके द्वारा एक न्यायपूर्ण विश्व व्यवस्था बनाकर मानव जाति को अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद, तृतीय विश्व की आशंका, परमाणु शस्त्र बनाने की होड़, ग्लोबल वार्मिंग, ओजन परत का क्षरण, प्रौद्योगिकी का दुरूपयोग, तेल संकट, अत्यधिक जनसंख्या, सुपरवोल्केनो, उल्का प्रभाव, हिम युग, वृहत सुनामी, आकाल, भूकंप, कोरोना महामारी, मरुस्थलीकरण, प्रकृति का अनियंत्रित तथा अत्यधिक उपभोग, सूखा, बाढ़, जल संकट, वनों की कटाई आदि सेे बचाया जा सकता है।
- ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ – जय जगत’’ –