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राजनीति और धर्म का गठजोड़ करता है नुकसान

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इतिहास गवाह है कि चाहे श्रीलंका हो, बांग्लादेश हो या पाकिस्तान, जिन देशों की राजनीति और सार्वजनिक जीवन में धर्म ने पैर पसारे, उन्होंने नुकसान ही उठाया है।

रामचंद्र गुहा

हाल ही में बंगलूरू में एक संवाद के दौरान लेखक परकाला प्रभाकर ने राजनीतिक विमर्श की बदलती भाषा पर एक बेधक बात कही। 1980 के दशक के अंत में, जब पहली बार भारतीय जनता पार्टी भारतीय राजनीति में एक बड़ी ताकत बन रही थी, तब भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने कहा था कि वह ‘सकारात्मक धर्मनिरपेक्षता’ के पक्ष में हैं। तब कांग्रेस की टिप्पणी थी कि आडवाणी जिस धर्मनिरपेक्षता की बात करते हैं, वह नकली धर्मनिरपेक्षता है। लेकिन आडवाणी तब उस धर्मनिरपेक्षता की बात कर रहे थे, जिसमें ‘सबके साथ न्याय और किसी का तुष्टिकरण न करने का वादा’ था। लेकिन अब भाजपा या कांग्रेस का कोई भी बड़ा नेता सार्वजनिक तौर पर खुद को धर्मनिरपेक्ष आदर्शों से जुड़ा हुआ नहीं स्वीकारता। इसके बजाय वे चाहते हैं कि उन्हें सच्चे हिंदू के तौर पर जाना जाए। यानी केंद्र में सत्तारूढ़ दल का विरोध करते हुए राहुल गांधी दावा करते हैं कि आरएसएस के नकली हिंदुत्व की तुलना में उनका हिंदुत्व वास्तविक है। राहुल गांधी के सलाहकार भी हिंदुत्व के प्रति राहुल के जुड़ाव की सार्वजनिक अभिव्यक्ति की पुष्टि करते हुए कांग्रेस के इस पूर्व अध्यक्ष को ‘शिवभक्त’ और ‘जनेऊधारी हिंदू’ बताते हैं।

जैसा कि परकाला प्रभाकर बताते हैं कि इस विमर्श का एक चक्र पूरा हो चुका है। कभी भाजपा नेता खुद को कांग्रेसियों की तुलना में बेहतर धर्मनिरपेक्ष बताते थे। आज कांग्रेस के नेतागण खुद को भाजपा नेताओं की तुलना में ज्यादा आस्थावान हिंदू के रूप में पेश करना चाहते हैं। इस संदर्भ में मध्य प्रदेश में कमलनाथ के चुनाव अभियानों का उदाहरण दिया जा सकता है, जिसमें उन्होंने खुद को तत्कालीन भाजपाई मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की तुलना में हिंदुत्व के प्रति ज्यादा आस्थावान प्रचारित करने की कोशिश की थी। राजनीतिक विमर्श का हिंदूकरण हाल के वर्षों में तेजी से बढ़ा है। अयोध्या में राम मंदिर के उद्घाटन से इसे और बल मिलने वाला है। दूसरी ‘सेक्यूलर’ छवि वाली पार्टियां भी उद्घाटन पर उतने ही उत्साह का परिचय देंगी।

इनमें छोटे दलों के वे नेता भी होंगे, जो मोदी-शाह की सरकार से खुद को जोड़ने के इच्छुक हैं। जैसे कि कर्नाटक में भाजपा से गठजोड़ करने के बाद जनता दल (सेक्यूलर) के नेता एचडी कुमारस्वामी अब अपने भाषणों का समापन ‘जय श्री राम’ से करते हैं। यह कॉलम लिखने के दौरान मैंने बीआरएस (भारत राष्ट्र समिति) की नेता के कविता का एक ट्वीट देखा, जिसमें उन्होंने लिखा कि राम मंदिर का निर्माण ‘करोड़ों हिंदुओं’ के सपनों का साकार होना है। यह तय है कि आनेवाले दिनों में एक या उससे ज्यादा कांग्रेसी नेता हमें सूचित करेंगे कि वह राजीव गांधी ही थे, जिन्होंने प्रधानमंत्री रहते हुए राम मंदिर का ताला खुलवाया था, इसलिए अयोध्या में जो भव्य राम मंदिर बन रहा है, उसके मौलिक वास्तुविद वही हैं, लालकृष्ण आडवाणी या नरेंद्र मोदी नहीं। एक हिंदू होते हुए भी मैं इस नए मंदिर के निर्माण का उत्सव नहीं मना सकता।

इसकी एक वजह यह है कि हिंसा के उस खूनी दौर में मैं उत्तर भारत में था, जब हजारों निर्दोष लोग, जिनमें ज्यादातर मुस्लिम और कुछ हिंदू भी थे, हिंसा में मारे गए, और जिसकी परिणति अंतत:  अयोध्या में मस्जिद ध्वंस के रूप में हुई। जब मैं छोटा था, तब देहरादून में मेरी रामभक्त मां मुझे नहर के तट पर स्थित एक छोटे-से मंदिर में ले जाती थी। शादी के बाद जब मैं बंगलूरू आ गया, तब मेरी सास, वह भी राम भक्त थीं, पड़ोस के शिवाजी नगर स्थित छोटे से रामार कोविल में हमेशा ही दर्शन के लिए जाती थीं। बाद में एक छात्र और गांधी के जीवनीकार के रूप में मैंने यह सीखा कि गांधी को आराधना के लिए छोटे या बड़े मंदिर की जरूरत नहीं थी, ईश्वर का नाम हमेशा उनके दिल में और अंत समय में भी उनके होठों पर उनका नाम था।

अगले महीने होने वाले इस विशाल नए भवन का उद्घाटन देश के भविष्य को लेकर क्या पूर्वाभास देता है? एक मित्र का कहना है कि भारत एक दूसरा गणतंत्र बनाने की कगार पर है, जहां राजनीति व नीति- निर्माण ‘हिंदू प्रथम’ के आधार पर होगी और इस प्रकार यह नया गणतंत्र 1950 में संविधान द्वारा लाए गए पुराने गणतंत्र को प्रतिस्थापित करेगा, जिसने बहुमत की आस्था को राज्य की आस्था से जोड़ने से समझदारीपूर्वक अस्वीकार कर दिया था। राम मंदिर परियोजना में सरकारी भागेदारी से इस विचार की भी पुष्टि होती है कि भारत सर्वप्रथम एक हिंदू राष्ट्र ही है। प्रधानमंत्री जिस तरह से अयोध्या में सभी तरह के संस्कार निभा रहे हैं, राजशाही तौर-तरीकों के संकेत मिलते हैं। बात सिर्फ इस मंदिर की नहीं है।

दिसंबर, 2021 में जब बनारस में नरेंद्र मोदी एक धार्मिक अनुष्ठान कर रहे थे, तब वहां मौजूद साधुओं ने एक स्वर में ‘राजा साहब की जय’ की मुनादी की। नरेंद्र मोदी की साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाओं का सबसे प्रबल उदाहरण तो नई संसद के उद्घाटन में दिखता है, जब प्रधानमंत्री विजयी रूप से अकेले कुछ साधुओं के साथ खड़े थे। वह शहंशाह की भांति उस इमारत में खड़े थे, जो कथित तौर पर जनता की इच्छा का प्रतिनिधित्व करती है। आज भारत में जो हो रहा है, उसे पड़ोसी देशों के हालात के संदर्भ में समझा जा सकता है। पाकिस्तान और बांग्लादेश स्वघोषित इस्लामी मुल्क हैं, जहां हिंदुओं को दोयम दर्जे का नागरिक माना जाता है। श्रीलंका और म्यांमार स्वघोषित बौद्ध राष्ट्र हैं। यह महज संयोग नहीं है कि दोनों ही देशों में अल्पसंख्यकों को राज्य द्वारा प्रायोजित हिंसा का सामना करना पड़ा। भारत जो अब तक राज्य को धर्म से अलग रखते हुए इन देशों से अलग खड़ा था, अब वह भी दक्षिण एशियाई देशों के इस क्लब में शामिल हो गया है।

दूसरे देशों का आजादी के बाद का इतिहास इस मामले में शुभ संकेत नहीं देता। अब श्रीलंका को ही लें। दक्षिण एशिया के सभी देशों में मानव विकास की दृष्टि से श्रीलंका अव्वल आता है। सर्वोत्तम शिक्षित जनसंख्या, सर्वोत्तम स्वास्थ्य देखभाल सेवाएं और महिलाओं के प्रति कम भेदभाव यहां दिखता है। अगर आज सिंहली बौद्धों का अंध राष्ट्रवाद, तमिल अल्पसंख्यकों (अधिकतर हिंदू) को अपना दुश्मन न मानता, तो श्रीलंका क्रूर गृहयुद्ध की चपेट से बचा होता और पूरे एशिया का सबसे समृद्ध देश होता।

हमारे नेता यह शेखी बघारते हैं कि भारत दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। हालांकि संकेतक बताते हैं कि प्रति व्यक्ति आय, शिशु मृत्यु दर, महिलाओं का प्रतिशत कार्यबल इत्यादि में हम बहुत नीचे हैं। समग्र आर्थिक और सामाजिक विकास में एशिया में सबसे अच्छा प्रदर्शन करने वाले देश जापान, सिंगापुर और दक्षिण कोरिया हैं। इनमें से जापान और दक्षिण कोरिया ठीक तरह से लोकतांत्रिक हैं, जबकि सिंगापुर आंशिक तौर पर लोकतांत्रिक है। फिर भी इन तीनों देशों की राजनीति और सार्वजनिक जीवन में धर्म की उपस्थिति नगण्य है। जब सभी राजनेता अयोध्या में भव्य नए मंदिर के उद्घाटन समारोह का जश्न मना रहे हों, तब हमें थोड़ा ठहर कर इस तथ्य पर जरूर विचार करना चाहिए।

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