Site icon अग्नि आलोक

जो सोवत है सो खोवत है,जो जागत है सो पावत है।।

Share

शशिकांत गुप्ते

देश के आमजन के मनोविज्ञान (Psychology) को समझना जरूरी है। मानवीय जीवन के हरएक पहलू के सम्बंध में कोई परिणाम प्राप्त होने के पहले, परिणाम प्राप्त होने की प्रक्रिया को समझना जरूरी है।प्रक्रिया इस प्रकार होती है।Environment, implementation, and Result.
सरलता से इस तरह समझना पड़ेगा। पहले वातावरण बनता है,फिर क्रियान्वयन होता है, इसके बाद परिणाम आता है। परिणाम की सफलता या असफलता क्रियान्वयन की प्रक्रिया पर निर्भर है।
बहुत से शातिर लोग भावनाहीन होकर भी भावनाओ का व्यापार करतें हैं। ये लोग वातावरण को ही बहुत लोकलुभावन बनातें हैं। आमजन, नासमझी के कारण भावनावश लोकलुभावन वातावरण को ही परिणाम समझने की भूल कर बैठतें हैं।
आमजन के मनोविज्ञान का सहारा लेकर वातावरण को मनभावन बनाने वाले धूर्त लोग,आमलोगों के अंतर्मन में कोरी भावनाओं को जागृत करतें हैं।
बनावटी वातावरण के प्रलोभन का शिकार हुए,आमलोग के अंतर्मन में भावनाओ का असर इतना गहरा हो जाता है कि, आमजन वातावरण को ही परिणाम समझने की भूल करतें है।
धृत लोग आमजन की इसी मानसिकता को भुनाने के लिए क्रियान्वयन अपने तरीके से करतें हैं। और क्रियान्वयन करे बगैर ही परिणाम अपने पक्ष में कर लेतें हैं।
आमजन के समक्ष प्रस्तुत किए गए लुभावना वातावरण सब्जबाग की तरह होता है।
पन्द्रहलाख,दो करोड़ रोजगार, महंगाई,भुखमरी,कुपोषण,स्त्री उत्पपीड़न पर अंकुश,काले रंग धन को सफेद कागजों पर और वाकचातुर्य से समाप्त करने घोषणाएं के लिए सिर्फ माहौल बनाया गया महौल मतलब ही लालच युक्त वातावरण तैयार किया गया।
आमजन के अंतर्मन से जब
भावनाओं का नशा उतर जाता तब उन्हें अपनी गलती का एहसास होता है। जब गलती का एहसास होता है तब उन्हें महसूस होता है कि, वे लोग छल कपट के शिकार हो गएं हैं।
मनोवैज्ञानिक के कारण दुर्भाग्य से आमजन पुनः मुठ्ठीभर अनाज की लालच का शिकार हो जाता है।
बाजारवाद के प्रचनल में भावनाओं का भी व्यापार हो रहा है।
स्मरण रहे कि निरंतर दो सौ वर्ष फिरंगियों ने अपने देश में भावनाओं के बल पर ही हुकूमत की।
इसीलिए स्वतंत्रता प्राप्त के बाद लगभग तीन दशक तक देश की एक पीढ़ी,जो गुलामी मानसिकता से ग्रस्त थी। यह पीढ़ी फिरंगियों की हुकूमत की प्रसंशा करती रही है।
इसीलिए आमजन अपनी अनिवार्य आवश्यकताओं के आभाव को सहन करता है।
भावनावश बार बार धोखा खाता है। यह मानसिक गुलामी का प्रतीक है।
धर्म पर आस्था होना और धार्मिक भावनाओं में अंतर है। जिसके मन में आस्था जागृत होगी वह कभी भी मानव, मानव भेद नहीं करेगा। कभी भी अमर्यादित या हिंसक भाषा का उच्चारण नहीं करेगा। कोरी भावनाओं से ग्रस्त लोगों में धार्मिक उन्माद पैदा होता है। उन्माद एकप्रकार का मनोविकार है। मनोविकार के मरीज ही हिंसक हो जातें हैं।
ऊपर लिखे मुद्दों पर गम्भीरता से सोचने समझने से यही निष्कर्ष निकलता है कि,आमजन को मनोविज्ञान का शिकार बनाकर,आमजन की भावनाओं उकसाकर,उन्हें भुनाया जा रहा है।
यह महत्वपूर्ण सूक्ति प्रासंगिक है।
मनु ते इति मानवः
पश्यते इति पशु
अर्थात जो मनन करने की क्षमता रखता है वही मानव होता है। और जो सिर्फ देखता है वह पशु है।

शशिकांत गुप्ते इंदौर

Exit mobile version