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विकास पथ : प्राथमिक सिद्धि है तन की सिद्धि

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पुष्पा गुप्ता (शिक्षिका)

  _प्रयास की सफलता पर हमें खुशी होती है और असफलता पर हमें दुःख होता है। कार्य की सफलता ही  'सिद्धि' कहलाती है। सामान्यतया  'सिद्धि' का अर्थ, किसी व्यक्ति द्वारा कोई 'विष्मयकारी चमत्कार' दिखाया जाना होता है. वह मदारीपन है, कोई सिद्धि नहीं._

  यदि हमारा तन (शरीर) पूर्ण स्वस्थ है, शरीर के भीतर और बाहर कोई रोग नहीं है, हम सदैव चुस्त-दुरुस्त हैं, तो  यह ''तनसिद्धि'' कहलाती है, जो सुखी जवीन जीने हेतु हम सभी के लिए, पहली व सर्वोच्‍च अनिवार्यता होती है। 
 _यह कड़वा सच है कि "बीमार आदमी", चाहे वह कोई भी हो, अपने लिए तथा अपने परिवारीजनों के लिए एक ''अभिषाप'' बनकर जीता है।_

इस ”अभिषाप” से यथासम्भव बचने के लिए, हम सभी के लिए आवश्यक है कि अपने शरीर से, रोजाना कम से कम एक-आध घण्टा, शारीरिक श्रम अवश्य किया जाय, जिससे शरीर के सभी अंग-प्रत्यंगों व जोड़ों का हिलना- डुलना होता रहे। पर्याप्‍त शारीरिक श्रम न करने व कुपोषण के कारण ही व्यक्ति को प्रायः अनेक प्रकार की बीमारियाँ घेरती हैं।
प्रातःकाल देर से उठना, आलस्य में पड़े-पड़े मूल्यवान समय को नष्ट करना, विस्तरे पर ही चाय या धूम्रपान के बाद, विस्तर छोड़ना, आसन- प्राणायाम, खेलकूद, प्रातः सायं भ्रमण, व्यायाम, घर के छोटे बड़े काम आदि से कोई भी शारीरिक श्रम, नियमित होकर न करना तथा मनमाने खान-पान व सुखभोगों के साथ अव्यवस्थित जीवन जीना ही, मनुष्य के लगभग सभी प्रकार के शारीरिक व मानसिक रोगों तथा अन्‍य विपदाओं के प्रमुख कारण हुआ करते हैं।
उन अबोध बच्चों से भी, जो किसी प्रकार के खेल-कूद आदि नहीं जानते, जिन्हें मातायें उनके हाथ-पैरों एवं शरीर में तेल मालिस के समय रोजाना खूब हिलाती-डुलाती हैं, उनके घुटनों के बल चलने व खड़ा हो सकने के बाद, प्रकृति माता, उनसे इधर उधर खूब दौड़-भाग कराती रहती है, ताकि वे स्वस्थ रह सकें।

कुछ समय बाद बच्चे स्वतः ही स्वाभाविक रूप से खेल-कूद, लुका- छिपी में रुचि लेने लगते हैं। लेकिन ज्यों-ज्यों आयु बढ़ती जाती है और नाना प्रकार की सुख-सुविधाएँ उपलब्ध होने लगती हैं, त्यों त्यों हममें से अधिकतर लोगों का, लापरवाही व प्रमाद के कारण, शारीरिक श्रम करना समाप्त सा हो जाता है।
विशेषरूप से कार्यालयों में, आजकल कम्यूटर व स्मार्ट मोवाइल फोन पर एक ही स्थान पर बैठकर काम करने वाले सभी आयुके तथा किसी प्रकार का शारीरिक श्रम न करनेवाले लोग, इसी श्रेणी में आते हैं।
स्वस्थता ही ”तनसिद्धि” है, जो कि मूल आधार है सुखी जीवन जीने के लिए। अतएव ”तनसिद्धि” के लिए प्रत्येक व्यक्ति (महिला- पुरुष) के लिए, चाहे वह कितना ही सुख-सुविधाओं से सम्पन्न क्यों न हो, कितना ही बड़े प्रतिष्ठित पद पर विराजित क्यों न हो, समुचित आहार विहार के साथ ही आसन-प्राणायाम, खेलकूद, प्रातः सायं भ्रमण, व्यायाम, आदि किसी भी प्रकार का कोई न कोई, एक-आध घण्टे का शारीरिक श्रम करना, अति आवश्यक है।

हमारे माननीय प्रधानमंत्री श्रीमान मोदीजी, हम सबके सामने, इसके आदर्श उदाहरण हैं, जो, चाहे देश-विदेश में कहीं भी क्‍यों न हों, कितने ही व्यस्त क्यों न हों, नित्‍य ही नियमित आसन प्राणायाम, ध्यान आदि योगाभ्‍यास के बाद ही अपने सभी रचनात्मक कार्यों में संलग्न होते हैं।
भारतीय “अष्टांगयोगविद्या” के दो महत्वपूर्ण अंगों – (क) आसन तथा (ख) प्राणायामों के नित्य अभ्यास का जो शारीरिक श्रम है, वह एक सर्वाेत्तम कर्म भी है और एक सर्वाधिक प्रसन्नता देनेवाला “खेल” भी है, जिसमें कोई खर्चा नहीं लगता और जिसे एक बार ठीक से सीख लेने पर, अकेले या अन्य साथियों के साथ, बड़ी प्रसन्नता के साथ खेला जा सकता है और पर्याप्त ”तनसिद्धि” प्राप्त की जा सकती है। इस खेल में हार किसी की नहीं होती, सभी खिलाड़ियों की जीत ही जीत होती है।
लेकिन ऐसा कर पाना उन्‍हीं महिला -पुरुषों के लिए सम्भव हो पाता है, जो “संयम व आत्‍मानुशासन” में रहते हुए, कटिबद्ध होकर, इनके दैनिक अभ्‍यास से मिलने वाले सुख की अनुभूति से, इनके अनमोल मूल्‍य को समझ चुके हों।
तो आज से पहली व्‍यवहारिक ”तनसिद्धि” की प्राप्ति के लिए कटिबद्ध हों। चाहे और काम भले ही हों न हों, प्रात: काल या सायंकाल , अथवा जब पेट हल्का हो, अपनी सुविधानुसार, एक नियत समय पर, “आसन-प्राणायाम” आदि शारीरिक श्रम से यह पहली और मूलभूत व्‍यावहारिक ”तनसिद्धि” की प्राप्ति का प्रयास अवश्‍य किया जाय, यदि अभी तक नहीं कर रहे हैं तो. (चेतना विकास मिशन)

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