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सोलह का दर्शन और सत्य

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डॉ. ज्योति

  _यजुर्वेद के अनुसार मनुष्य के सोलह विशिष्ट गुणों या शक्तियों को षोडशकला कहते है :_

     *सचते स षोडशी.*

शतपथ ब्राह्मण के अनुसार यह चंद्रमा, यह मानव, यह ब्रह्म, सब कुछ षोडशकला युक्त हैं :

    *षोडशकलो वै चन्द्रमः, षोडशकलो वै पुरुषः*

*षोडशकलो वै ब्रह्म, षोडशकलं वा इदं सर्वं।*

प्रश्नोपनिषद् के छठे प्रश्न में पंचेंद्रियों के साथ प्राण और कतिपय अन्य गुणों व तत्वों की संख्या जोड़कर सोलह कलाएँ बनाई गई हैं।

   ऋग्वैदिक पुरुष सूक्त में पुरुष रूप में ब्रह्म के चार चरण हैं।

      ब्रह्म के तीन चरण उर्ध्व में विद्यमान है और एक चरण ही इस विश्व में है। कुछ विचारकों ने इन चार चरणों में प्रत्येक के चार उपचरण मानकर सोलह कलाएँ दिखाने की कोशिश की है।

   सोलह की संख्या में षोडश मातृकाएँ भी हैं।

_कृष्ण की जितनी लीलाएँ प्रसिद्ध हैं, उसे सोलह वर्गों में रखी जा सकती हैं :_

   कारागार में दैवीय जन्म व मुक्ति की, यमुना पारगमन की,

नंद-यशोदा का लाल बनने की, माता के साथ बाललीला की, बालगोपाल संग मक्खनचोरी की, मुख में ब्रह्मांडदर्शन कराने की, यमलार्जुन मुक्ति की, पूतनावध, कंसवध व अन्य असुरवध की, कालियादमन की, रणछोड़ बन कालयवनवध की, नरकासुर वध की, गोवर्धनधारण कर इंद्र से गोकुल की रक्षा करने की, नवधर्मप्रवर्तन की, गोपिकाओं के चीरहरण, केलि, महारास की, राधा संग प्रीति की, संदीपनि आश्रम गमन व सुदामा मैत्री की, रुक्मिणीहरण व शिशुपालवध की, स्यमंतकमणि का लांछन पाने की, शेष-सप्तभार्यावरण की,

गोकुलवृंदावन छोड़ द्वारकाधीश बनने की, द्रौपदी के चीरहरण में वस्त्रदान कर लज्जा निवारण की,दुर्योधन के समक्ष संधिप्रस्ताव लाने पर विराट्-रूप दिखाने की, पांडव वनवास काल में दुर्वासा के दस हजार शिष्यों को अक्षयपात्र से भोजन कराने की, महाभारत युद्ध में सेना कौरव पक्ष में भेज सारथि बन अर्जुन के साथ युद्ध का सूत्रधार बनने की, अर्जुन विषाद में विश्वरूप दर्शन की, युद्धोपरांत कुलसंहार के साथ महाप्रयाण करने की।

कृष्ण चंद्रवंशी हैं, और चाँद की सोलह कला हैं, अब चाँद की सोलह कलाएँ क्या हैं। तिथिवार उसकी बदलती आकृतियाँ।

      यों तो तिथियाँ पंद्रह होती हैं, किंतु प्रतिपदा से चतुर्दशी तक 14 तिथियाँ दोनों पक्षों मे उभयनिष्ठ हैं। इनमें चंद्रमा के घटने -बढने की 14 कलाएँ होती हैं। अमावस्या और पूर्णिमा ये दोनों दो कलाएँ हो गयीं । अतः चंद्रमा की सोलह कलाएँ हुईं ।

_चंद्रमा के कलाओं का वर्णन कुछ इस प्रकार है :_

   1. अमृता 2. मानदा 3. पूषा 4. तुष्टि 5. पुष्टि 6. रति 7. धृति 8. शशिनी 9. चन्द्रिका 10. कान्ति 11. ज्योत्स्ना 12. श्री 13. प्रीतिरङ्गा 14. पूर्णा या पूर्णामृता।

      कहीं इनके अतिरिक्त दो और का वर्णन मिलता है- स्वरजा और अंगदा, पर अमा और पूर्णिमा को वही नाम देना ठीक है।

यह कला सौंदर्य की हो सकती है, पर सोलह श्रृंगार तो स्त्रियाँ करती रहती थीं, षोडशी होने के बाद वही बने रहने में सुखानुभूति पाती थीं। कृष्ण के सौंदर्य में भी वैसा ही श्रृंगार है।

      कोई कह सकता है, सौंदर्य की कला का भगवत्ता में ऐसे पृथक् स्मरण क्यों कर। पर मन का एक हिस्सा कहता है, जिसके भी सौंदर्य में चाँद देखा जा सकता है, उसके सौंदर्य में सोलह श्रृंगार देखा जा सकता है।

         सच कहूं तो मन यदि कलाएँ तर्क भरे दर्शन से खोजे, तो वह उलझा रह जाएगा।

_वह यदि प्रेम की दृष्टि से देखे, तो हृदय में आठ प्रहर उस कलामय सुंदरतम के दर्शन पाएगा :_

            काजल लागे किरकरो, सुरमा सहा न जाए

            जिन नैनन में कृष्ण बसे, दूजा कौन समाये।।

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