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नेताओं की महत्वाकांक्षा की भेंट चढ़ रही है दलित और पिछड़ों की राजनीति

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उत्तर प्रदेश में पिछड़ों की राजनीति समझनी है तो हाल के दिनों में छपे ओमप्रकाश राजभर, शिवपाल यादव, और अखिलेश यादव के बयान पढ़िए। मायावती की सियासत तो किसी दूसरे ही दौर में चल रही है। ट्विटर पर उनका सबसे ताज़ा बयान अपने परिवार में चल रही सियासी विरासत की लड़ाई से संबंधित है। बता रहे हैं सैयद ज़ैगम मुर्तजा

उत्तर प्रदेश में सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले दलों का समय क्या पूरा हो गया है? राज्य में पिछड़े और दलितों की राजनीति करने वालों के बीच तमाम नेता उभर आए हैं और इनके अहम के टकराव में सामाजिक न्याय की राजनीति कमज़ोर पड़ती जा रही है। कमंडल की सियासत के सामने यह तमाम दल पहले से ही पस्त पड़े हैं। अब इन नेताओँ की लड़ाई खुलकर सड़क पर आ गई है तो इन दलों के समर्थकों में बेचैनी लाज़मी है।

उत्तर प्रदेश में जब भी कमंडल की सियासत हावी होती है तब लोग उसकी काट मंडल की राजनीति में तलाशते हैं। लोगों की उम्मीदें अनुचित भी नहीं हैं। यह प्रयोग 1990 के दशक में बेहद सफल रहा है। तब सामाजिक न्याय के नाम पर एकजुट हुए नेताओं ने न सिर्फ भाजपा का विजय रथ रोका बल्कि लंबे अरसे तक मुख्यधारा की राजनीति पर क़ब्ज़ा बनाए रखा। लेकिन अब ऐसा संभव नहीं दिख रहा। इसकी एक वजह पिछड़ों की राजनीति करने वालों की महत्वाकांक्षाएं, उनके अहम का टकराव और आपसी सिर-फुटौव्वल है।

अगर देखा जाए तो 1990 के दशक में दलित और पिछड़ों के सामने मुख्य तौर पर दो ही विकल्प थे। पहला समाजवादी पार्टी और दूसरा बहुजन समाज पार्टी। कांग्रेस हालांकि उस समय तक अबसे बेहतर हालत में थी, लेकिन मुसलमान, ओबीसी और दलित वोट उससे छिटक चुके थे। ऐसे में बसपा और समाजवादी पार्टी इन वर्गों के वोटरों के लिए स्वाभाविक पसंद थे। अपना दल और राष्ट्रीय लोकदल भी थे, लेकिन उनका असर एक क्षेत्र में सीमित था। लेकिन अब हालात बदल गए हैं। सामाजिक न्याय की शक्तियां जातिगत आकांक्षाओं की भेंट चढ़ चुकी है। 

बाएं से- अखिलेश यादव, मायावती और ओमप्रकाश राजभर

राज्य में किसी दलित या पिछड़े से पूछिए, आपका नेता कौन? यक़ीन मानिए, वह विकल्पहीन नज़र आएगा। ऐसा नहीं है कि यूपी में दलित और पिछड़ों के नेता नहीं बचे हैं। अखिलेश यादव, शिवपाल यादव, मायावती, चंद्रशेखर आज़ाद, अनुप्रिया पटेल, पल्लवी पटेल, कृष्णा पटेल, स्वामी प्रसाद मौर्य, केशव देव मौर्य, डॉ. संजय निषाद, जयंत चौधरी, डॉ. यशवीर सिंह, ओमप्रकाश राजभर, इंद्रजीत सरोज समेत तमाम नेता हैं, जो दलित और पिछड़ों का हमदर्द होने का दावा भरते हैं। मगर मसला वही है कि ये सब न तो एक प्लेटफ़ॉर्म पर हैं और न इनकी सोच एक दिशा में हैं। इन सबके अपने-अपने व्यक्तिगत हित हैं जो इनको सामूहिक नेतृत्व करने से रोक रहे हैं।

हालांकि सपा और बसपा भी बड़े दल हैं, लेकिन इनके नेता अब पहले के तरह पिछड़ों और दलितों के विभिन्न जातीय समूहों का नेतृत्व करते नज़र नहीं आ रहे। यूपी की पिछड़ी जातियों में यादव सबसे बड़ा समूह है, लेकिन इसके वोटर तीन हिस्सों में बंटे हैं। इसी तरह दलितों में जाटव सबसे बड़ा जातीय समूह है, लेकिन मायावती और चंद्रशेखर के अहम की लड़ाई में इस समाज का वोटर तीन हिस्सों में बंट गया है। दोनों ही पार्टियों के कोर वोटर का एक हिस्सा अब भाजपा के पास चला गया है। ज़ाहिर है, ये वो वोटर हैं जो अपने नेताओं की आपसी लड़ाई से त्रस्त हैं औऱ सत्ता से दूर रहना नहीं चाहते।

उत्तर प्रदेश में पिछड़ों की राजनीति समझनी है तो हाल के दिनों में छपे ओमप्रकाश राजभर, शिवपाल यादव, और अखिलेश यादव के बयान पढ़िए। मायावती की सियासत तो किसी दूसरे ही दौर में चल रही है। ट्विटर पर उनका सबसे ताज़ा बयान अपने परिवार में चल रही सियासी विरासत की लड़ाई से संबंधित है। इतनी सिर-फुटौव्वल के बीच कौन उम्मीद कर सकता है कि यह तमाम दल 2024 के लोकसभा या 2027 के विधानसभा चुनाव में सत्ताधारी भाजपा को कोई गंभीर चुनौती दे पाएंगे?

यह सवाल सबसे ज़्यादा इन दलों के वोटरों और समर्थकों को परेशान कर रहा है। दलित राजनीति पर नज़र रखने वाले श्रीराम मौर्य कहते हैं कि, “भाजपा से लड़ने की शक्ति इन नेताओं के पास तभी आएगी जब यह आपसी लड़ाई, अपनी महत्वाकांक्षाओं और अपने अहंकार को दरकिनार करना सीख जाएंगे। हाल फिलहाल ऐसा होता नहीं दिख रहा है, इसलिए दलित और अति पिछड़े दूसरे विकल्प तलाश रहे हैं।” लेकिन एक सवाल यह भी है कि विकल्प है कहां?

मुरादाबाद निवासी देवेंद्र यादव के मुताबिक़ समाजवादी पार्टी के वोटरों में एक तबक़ा है जो नेताओं की आपसी लड़ाई से आहत है। वे कहते हैं, “इस वर्ग को भाजपा, कांग्रेस से भी ऐतराज़ नहीं है, जबकि पिछड़ों की पूरी राजनीति इन दलों के विरोध पर टिकी रही है। हालांकि कुछ लोग इसे सम्मान नाम देते हैं लेकिन असल में सत्ता से दूर रहना और संघर्ष करना सबके बस का काम नहीं है। यहां संघर्ष का भी दूर-दूर तक निष्कर्ष निकलता नहीं दिख रहा तो लोग मौक़ा पाकर दूसरे दलों में जा रहे हैं।”

इसी तरह की तमाम शिकायतें और लोगों की भी हैं। कहा जा सकता है कि दलित और पिछड़ों की राजनीति सिर्फ नेताओं की नहीं, बल्कि समर्थकों की भी महत्वाकांक्षा की भेंट चढ़ रही है। यह उन लोगों के लिए दुखदाई है, जो सच में सामाजिक न्याय और अति पिछड़ों के हितों के लिए संघर्ष करते रहे हैं। लेकिन बहुजन हितों की राजनीति करने वालों ने शायद मान लिया है कि सबको बराबरी मिल गई है और अब जो संघर्ष बचा है वह स्वयं को दूसरे नेता से बड़ा दिखाने का है।  

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