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छठ पर्व में पुरोहिततंत्र प्रवेश नहीं कर सका :यह स्त्रियों की गरिमा का पर्व है! 

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–शंभुनाथ

मैं जब 8-9 साल का था तो छठ के दिन स्त्रियों के गीत गाने की आवाज मेरी नींद में सेंध मारते हुए घुसती थी। एकदम अंधेरे में बिस्तर से उठकर खिड़की से उन्हें गोल में गीत गाते हुए जाते  देखता था। उस समय न डम-डमाडम-डम था और न इतने पटाखे छूटते थे। थोड़ी- थोड़ी देर पर स्त्रियों के गोल आते रहते थे। सड़क की कम रोशनी में स्त्रियां आगे-आगे  रहती थीं। पुरुष सिर पर भरी परात और केले के धवद लिए अपूर्व आज्ञाकारी की तरह पीछे- पीछे चलते थे। यह मेरे लिए अनोखा दृश्य था। 

बचपन में किसी छठ के दिन जिद करके मैं पहली बार गंगा घाट गया, मेरी एक भक्तिन दादी भोर होने पर ले गई थीं। घाट की गली में चहल- पहल थी, पर ठेलम-ठेल नहीं। देखा, दादी ने खोइचा बनाकर किसी अपरिचित से ठेकुआ मांगा और उसने बड़े सहज भाव से दे दिया। मुझे बुरा लगा और भक्तिन दादी को टोका कि मांग क्यों रही हैं। उन्होंने कहा कि इस तरह मांगा जाता है। सब छठ मइया का है, प्रसाद है! 

बाद में समझ में आया, छठ पूजा भक्तों के बीच फर्क मिटा देती है। न देने वाले को लगता है कि वह कुछ दे रहा है, न मांगने वाले को लगता है कि वह कुछ मांग रहा है। क्योंकि यहां सूरज और छठ  के संसार में कोई ‘दूसरा’ नहीं है, कोई ‘पर’ नहीं है! सूरज किसी को भी ‘पर’ समझकर अपनी किरणें नहीं रोकता। यह अ-पर का बोध ही भारतीयता है!

भारत के सभी बड़े त्योहारों का संबंध नई फसल से है– ओणम, पोंगल, बीहू हो या दिवाली- छठ। छठ पूजा में गेहूं और इसका ठेकुआ है, ईख है, चना है, केले के धवद हैं। छठ में सूप- दउरा का बड़ा महत्व है, ये दलितों के घर में बनते हैं। ये सूप अब घरों से ओझल हो गए। बहुत कुछ अब आंखों के सामने नहीं है, पर उसकी छाप है।

छठ पूजा पहले द्विजेतर जातियों में प्रचलित थी, धीरे- धीरे सार्वभौम हो गई। छठ पूजा सारे भेदभाव मिटा देने वाला पर्व है। यह स्वच्छता के साथ प्रेम, आत्मपरिष्कार और बृहत्तर सामाजिकता का संदेश देता है। 

इस पूजा की खूबी है कि इसमें पुरोहितों की जरूरत नहीं है, भक्त और ईश्वर के बीच कोई मध्यस्थ नहीं होता। व्रतपारिणी ही सबकुछ है और वह श्रद्धा से देखी जाती है। 

स्त्रियों के गान में है, केले के धवद पर सुग्गा मंडरा रहा है। तोता भूख के कारण गुच्छे को जूठा कर देता है और बाण से मारा जाता है। उसकी पत्नी सुगनी वियोग से रोने लगती है, कोई देव सहाय नहीं होता। कथा का संकेत है कि अवमानना की शिकार स्त्री की आवाज अनसुनी है। उसकी पीड़ा को सिर्फ सूर्यदेव समझ सकते हैं। वे भी नहीं सुनेंगे तो कौन सुनेगा। छठ पूजा इसलिए है कि धर्म को पुरोहित तंत्र से मुक्त किया जाए और स्त्रियों की आवाज सुनी जाए!

सदियों से लोग देवताओं से अपने दुख- कष्ट कह रहे हैं। जब तक ऐसा है, मानकर चलना चाहिए कि सरकारें नहीं सुन रही हैं!

छठ से जिस तरह पुरोहितों को अलग रखा गया, यदि पूरे हिंदू धर्म को पुरोहिततंत्र से स्वतंत्र कर देना संभव होता तो इस धर्म में इतना अंधविश्वास, धार्मिक शोषण और कट्टरता नही फैलती।

कर्ण नदी में कमर तक डूबकर बिना पुरोहित के सूर्य को अर्घ्य देता था। विश्वास है कि वह सूर्यपुत्र था। वह अनोखा दानी था, बिहार (अंग राज्य) का था। असल दानी वह है जो दाएं हाथ से देता है, पर उसके बाएं हाथ को इसका पता नहीं होता! 

आज कोई समर्थ व्यक्ति लोगों के बीच साधारण चीज भी बांटता है, तो कैमरे या मोबाइल से फोटो खिंचा लेता है!

निरीश्वरवादी नागार्जुन की एक कविता है- ‘पछाड़ दिया मेरे आस्तिक ने’। इसमें वे खुद अपना मखौल उड़ाने में संकोच नहीं करते। दूसरों पर हँसना आसान है। नागार्जुन अपने पर भी हँस सकते थे! वे एक पोस्टग्रेजुएट नौजवान के साथ निर्मल भाव से गंगा किनारे जाते हैं और सूर्य को नमस्कार करते हुए वैदिक श्लोक पढ़ते हैं। लड़का देखता है, बाबा यह क्या कर रहे हैं! मनुष्य में प्रकृति के प्रति थोड़ी कृतज्ञता होनी चाहिए, अन्यथा वह सिर्फ एक विध्वंसक में बदलता जाएगा।

मुझे छठ प्रिय है, क्योंकि इसमें आवेग और दृढ़ता दोनों चीजें हैं। ये भरोसा देती हैं कि इसी तरह देश के आम लोगों में प्रेम, मैत्री, अहिंसा, सह- अस्तित्व और करुणा को लेकर जो आवेग और दृढ़ता है, इन्हें थोड़ी देर के लिए धूमिल किया जा सकता है, पर मिटाया नहीं जा सकता!

–शंभुनाथ

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