मधुसूदन चटर्जी
क्या ग्रामीण बैंकों (क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक या आरआरबी) ने उस दृष्टिकोण को बरकरार रखा है जिस दृष्टिकोण के साथ उनका गठन लगभग आधी सदी पहले किया गया था? पिछले दस वर्षों के दौरान हमारे देश में, खासकर दूरदराज के इलाको में ग्रामीण बैंकों की गतिविधियों को देखने के बाद लोगों के मन में यह सवाल उठा है। आरआरबी की स्थापना 26 सितंबर, 1975 को जारी किए गए एक अध्यादेश के ज़रिए की गई थी और बाद में क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक अधिनियम, 1976 के ज़रिए से इसे औपचारिक रूप दिया गया था। उनका प्राथमिक लक्ष्य कृषि के लिए वित्तीय सहायता प्रदान करके ग्रामीण अर्थव्यवस्था का विकास करना, खेत मजदूरों, छोटे व्यापारियों, कारीगरों, छोटे उद्यमियों को सशक्त बनाना और ग्रामीण इलाकों में अन्य उत्पादक गतिविधियों को बढ़ावा देना था।
हालांकि, देखना यह है कि क्या हक़ीक़त में ग्रामीण बैंकों के लक्षित लाभार्थियों को ये अवसर मिल रहे हैं? क्या ग्रामीण बैंकों ने लोगों का भरोसा बनाए रखा है? पश्चिम बंगाल के जंगलमहल जिलों के ज़्यादातर लोगों का जवाब “न” है। उनका तर्क है कि ग्रामीण बैंक अपने मूल उद्देश्य से पूरी तरह भटक गए हैं। एक समय था जब ये बैंक कई लोगों के लिए बुनियादी वित्तीय जीवनरेखा थे। अब, स्थानीय अर्थव्यवस्था पर कई माइक्रोफाइनेंस कंपनियों का दबदबा है, और इस अस्थिर स्थिति में, ग्रामीण बैंकों ने लोगों से मुंह मोड़ लिया है।
मेजिया बांकुरा के बेलमाला कारीगर को छह साल पहले ग्रामीण बैंक से ऋण मिला था।
आरआरबी की ऐतिहासिक भूमिका
ग्रामीण अर्थव्यवस्था के भीतर एक मजबूत आधार स्थापित करने में ग्रामीण बैंकों की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। 1970 के दशक के दौरान, पंजाब को छोड़कर पूरे भारत में कृषि उत्पादन कम था। पंजाब में शुरू की गई हरित क्रांति ने कृषि उत्पादन में उल्लेखनीय वृद्धि की। 1970 के दशक तक, पंजाब भारत के कुल खाद्यान्न का 70 फीसदी का उत्पादन कर रहा था, जबकि अन्य राज्य अपनी खाद्य आपूर्ति के लिए इस पर निर्भर थे। वित्तीय बाधाओं, अपर्याप्त सिंचाई और अन्य मुद्दों के कारण, कई किसान अपनी ज़मीन पर खेती करने में असमर्थ थे। इसके बावजूद, बड़ी संख्या में किसान स्थानीय साहूकारों से बड़े दर पर ब्याज पर निर्भर थे और इन कर्ज़ों को चुकाने में असमर्थ थे जिसके कारण खेती को आगे बढ़ाने के लिए संघर्ष कर रहे थे। राष्ट्रीयकृत बैंकों के पास इस संबंध में किसानों की सहायता करने के लिए अपर्याप्त योजनाएं थीं। खेती की इस कमी ने खाद्य संकट में योगदान दिया, जिससे खाद्यान्न की कमी बढ़ती चिंता का विषय बन गई।
गेहूं का उत्पादन, 1971-72 में 26.4 मिलियन टन से घटकर 1973-74 में 21.8 मिलियन टन रह गया था और चावल का उत्पादन भी 1970-71 में 42.22 मिलियन टन से घटकर 1972-73 में 39.24 मिलियन टन रह गया था। चावल और गेहूं दोनों का उत्पादन 1976 तक कम होता रहा, जिससे बड़े पैमाने पर खाद्यान्न की कमी हो गई और जमाखोरी ने इसे और बढ़ा दिया। चावल उत्पादन में अग्रणी राज्य पश्चिम बंगाल भी इस संकट से अछूता नहीं रहा, खास तौर पर जंगलमहल क्षेत्र में हाल बुरा था। बांकुरा, पुरुलिया, झारग्राम और पश्चिम मेदिनीपुर जिलों के हज़ारों गरीब, वंचित और निम्न-मध्यम वर्ग के लोगों को राज्य और देश में कहीं और काम की तलाश करने के लिए जाना पड़ा। कई लोग टूटे-फूटे घरों में रहते थे और गंभीर कठिनाइयों का सामना करते थे, इस प्रक्रिया में कई लोग लापता हो गए।
बांकुड़ा 2 ब्लॉक के भदुल गांव के किसान रंजीत मल्ला ने साहूकार से कर्ज लेकर गोभी की खेती की है।
ग्रामीण इलाकों में बढ़ती आर्थिक चुनौतियों के जवाब में, केंद्र सरकार ने देश में ग्रामीण बैंकों की स्थापना की पहल की। 2 अक्टूबर, 1975 को बंगाल के गौर ग्रामीण बैंक और उत्तर प्रदेश के प्रथमा ग्रामीण बैंक सहित पांच आरआरबी का उद्घाटन किया गया। केंद्र सरकार द्वारा अधिनियमित 1976 के आरआरबी अधिनियम के तहत पूरे भारत में 196 आरआरबी इकाइयों का निर्माण किया गया, जिनमें से नौ पश्चिम बंगाल में हैं। मल्लभूम ग्रामीण बैंक की स्थापना जंगलमहल के जिलों, बांकुरा, पुरुलिया और अविभाजित मेदिनीपुर (अब पश्चिम मेदिनीपुर, पूर्वी मेदिनीपुर और झारग्राम) की मदद के लिए की गई थी। इन ग्रामीण बैंकों को केंद्र सरकार से 50 फीसदी, प्रायोजित बैंकों से 35 फीसदी और संबंधित राज्य सरकारों से 15 फीसदी फंडिंग की मदद से बनाया था। इन बैंकों के लिए ढांचा आज भी बना हुआ है।
“9 अप्रैल, 1976 को बंगाल के जंगलमहल इलाके में मल्लभूम ग्रामीण बैंक की स्थापना की गई थी। बाद के वर्षों में राज्य में वाम मोर्चे के सत्ता में आने के बाद, जंगलमहल इलाके के वित्तीय विकास में सुधार होने लगा, जंगलमहल रायपुर के निवासी और पश्चिम बंगाल के पिछड़ा वर्ग कल्याण विभाग के पूर्व मंत्री उपेन किश्कू ने बताया कि जिसका श्रेय राज्य सरकार की पहल से वंचित और गरीब समुदायों के प्रति ग्रामीण बैंक के संवेदनशील दृष्टिकोण को जाता है।”
रानीबांध ब्लॉक के राजाकाटा ग्राम पंचायत की पूर्व सदस्य रोहिणी महतो और रायपुर निवासी तथा सहकारी आंदोलन के नेता गंगाधर महतो ने बताया कि मल्लभूम ग्रामीण बैंक के कर्मचारी नियमित रूप से पंचायत सदस्यों से संवाद करते थे। वे ऋण वितरण और पुनर्भुगतान प्रक्रियाओं पर सक्रिय रूप से सलाह लेते थे। पुरुलिया के बंदोयान के एक छोटे किसान मनमोथ महतो और पुरुलिया के मनबाबाजार ब्लॉक के बारी गांव के सुखलाल टुडू ने बताया कि मल्लभूम ग्रामीण बैंक से ऋण के माध्यम से उनकी बंजर भूमि को खेती के लायक बनाया गया। सुखलाल टुडू ने कहा, “हर साल, मुझे वित्तीय चिंता किए बि खेती के लिए आवश्यक ऋण मिलता था।”
बांकुड़ा के सोनामुखी ब्लॉक के अंतर्गत धुलाई गांव के एक सेल्फ हेल्प समूह की महिला सदस्यों ने माइक्रोफाइनेंस कंपनी से ऋण लेकर बादाम की खेती की है।
झारग्राम के गिधनी गांव के निवासी शंकर शिंगसरदार ने बताया कि उन्हें डेयरी व्यवसाय शुरू करने के लिए ग्रामीण बैंक से ऋण मिला था। सारेंगा प्रखंड के पोरोगरी गांव की गृहिणी सोनामी दास, रायपुर प्रखंड के डुंडार की श्यामली हेम्ब्रम और रायपुर की मोमताज बीबी ने बताया कि उन्होंने पशुधन और सिलाई मशीन सहित विभिन्न उद्देश्यों के लिए ऋण मिला था। फसल कटाई के बाद महिला सेल्फ हेल्प समूहों ने किसानों से धान खरीदने के लिए ग्रामीण बैंक से ऋण लिया और उसे तुरंत चुका दिया। उन्होंने आगे बताया कि कुछ साल पहले तक ग्रामीण बैंक के कर्मचारी नियमित रूप से उनके घर आते थे, उनके काम की जांच करते थे और सुधार के लिए सुझाव देते थे। इससे बैंक और ग्रामीणों के बीच मधुर संबंध विकसित हुए और गरीबों और वंचित लोगों को आत्मनिर्भर बनने में मदद मिली। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि उस दौरान ग्रामीण बैंक और पंचायत विश्वसनीय संस्थाएं थीं। रानीबांध प्रखंड के देउली के मछुआरे कलवान महतो ने बताया कि बैंक ने मछली पकड़ने के काम के लिए भी ऋण दिया था।
वाम मोर्चा सरकार के तहत, बेरोजगार युवाओं, पुरुष और महिला दोनों को आत्मनिर्भर बनने में सहायता करने के लिए 1997 में “बांग्ला स्वनिर्भर कोरमोसोंगस्थान प्रोकोल्पो” (बीएसकेपी) परियोजना शुरू की गई थी। विभिन्न परियोजनाओं के लिए 2 से 10 लाख रुपये तक का ऋण दिया जाता था। ग्रामीण बैंक ने अन्य वाणिज्यिक बैंकों की तुलना में इस परियोजना के लिए अधिक ऋण जारी किए। बिष्णुपुर के कडाकुली इलाके के निवासी कनाई चक्रवर्ती ने बताया कि वह इस परियोजना से ऋण लेकर आत्मनिर्भर बने और लकड़ी के हस्तशिल्प का व्यवसाय शुरू किया। इसी तरह, बिष्णुपुर के बारोकलीटोला की एक गृहिणी पूर्णिमा पाल अब तसर रेशमी कपड़ा बनाकर आजीविका चलाती हैं। यह स्पष्ट है कि मल्लभूम ग्रामीण बैंक की सहायता से जंगलमहल के कई बेरोजगार युवाओं ने आत्मनिर्भरता हासिल की है।
मल्लभूम ग्रामीण बैंक अधिकारी एसोसिएशन के पूर्व राज्य सचिव तुसार हाजरा ने कहा, “हमने नियमित शिविर आयोजित किए और स्थानीय लोगों से संपर्क साधा। पंचायत सदस्य भी मौजूद रहते थे और हमने लोगों को बैंक की ऋण सुविधाओं के प्रभावी उपयोग के बारे में जागरूक करने और शिक्षित करने के लिए विभिन्न शिविर आयोजित किए।” मल्लभूम ग्रामीण बैंक सेवानिवृत्त एसोसिएशन के राज्य अध्यक्ष उदय अधुरिया ने कहा कि लोगों ने ऋण राशि का उत्पादक रूप से उपयोग किया और लगातार अपने ऋण चुकाए, जिससे ग्रामीण साहूकारी प्रणाली लगभग समाप्त हो गई थी।
ग्रामीण बैंकों की वर्तमान स्थिति
1991 में टैरिफ और व्यापार पर सामान्य समझौते और भारत में नई आर्थिक नीति की शुरूआत के बाद, मैदावोलु नरसिम्हन समिति की सिफारिशों के आधार पर महत्वपूर्ण बैंकिंग सुधार शुरू किए गए, जिसमें कई बैंकों को एक में विलय करना और स्वचालन के माध्यम से कार्यबल को कम करना शामिल था। नतीजतन, देश में ग्रामीण बैंकों की संख्या 196 से घटकर 43 हो गई। पश्चिम बंगाल में ग्रामीण बैंकों की संख्या 9 से घटकर 3 रह गई। मल्लभूम ग्रामीण बैंक को “बंगियो ग्रामीण विकास बैंक” के नाम से पुनः ब्रांड किया गया है, जो अब जंगलमहल सहित 12 जिलों में सेवा प्रदान करता है।
बंगीय ग्रामीण विकास बैंक बांकुरा क्षेत्रीय कार्यालय
1990 के दशक के उत्तरार्ध से, ग्रामीण बैंकों का प्राथमिकता वाले क्षेत्रों को ऋण देने पर ध्यान कम होता गया। तुसार हाजरा ने इस गिरावट के लिए केंद्र सरकार की नीतियों को जिम्मेदार ठहराया है। पहले, ग्रामीण बैंकों का उद्देश्य लोगों को साहूकारों से बचाना और उनकी वित्तीय गरिमा सुनिश्चित करना था, न कि वित्तीय लाभ पर ध्यान केंद्रित करना था। हालांकि, बैंकों का मौजूदा दृष्टिकोण अधिक कॉर्पोरेट हो गया है। इसके समर्थन में, सारेंगा के समीर मंडल और पश्चिम मेदिनीपुर के खारीकासुली के मोनिरुल हक सहित कई किसानों ने बताया कि 15 साल पहले पावर टिलर, ट्रैक्टर, डीजल पंप सेट और नदी के पानी को ऊपर उठाने वाली मशीनों जैसे कृषि उपकरणों के लिए ऋण उपलब्ध थे, लेकिन अब बड़े पैमाने पर उपलब्ध नहीं हैं। वर्तमान में, ऐसे ऋणों को प्राप्त करने के लिए किसानों को उसी राशि की सावधि जमा करनी होती है, जो उन लोगों के लिए अव्यावहारिक है जिन्हें ऋण की आवश्यकता है।
बांकुरा 1 ब्लॉक के अंतर्गत बोरकुरा गांव के किसान अनाथबंधु अथा ने बताया कि ग्रामीण बैंक ऋण चुकौती प्रक्रियाओं पर अत्यधिक जोर देता है, अक्सर डराने-धमकाने की रणनीति अपनाता है। वास्तव में, ऋण वसूली प्रक्रिया को किराए के बाउंसर नियंत्रित करते हैं, लेकिन पहले ऐसा नहीं था। नतीजतन, किसान कृषि के लिए ग्रामीण बैंक से ऋण लेने से कतराते हैं। उसी गांव के महादेव नंदी ने कहा कि किसान इन प्रथाओं से जुड़ी शर्मिंदगी से बचना पसंद करते हैं और इस तरह स्थानीय दुकानदारों, साहूकारों और माइक्रोफाइनेंस कंपनियों से ऊंची दरों पर ऋण लेने पर मजबूर होते हैं।
ग्रामीण बैंक पहले बीएसकेपी योजना के तहत बेरोजगार युवाओं को ऋण मुहैया कराता था, लेकिन छह साल पहले तृणमूल कांग्रेस की अगुआई वाली सरकार ने इस परियोजना को बंद कर दिया था। नतीजतन, ग्रामीण बैंक का ऋण क्षेत्र सिकुड़ गया है। हालांकि सेल्फ हेल्प समूहों को ऋण मिलना चाहिए, लेकिन अक्सर उन्हें ऋण नहीं मिलता है। नाम न बताने की शर्त पर एक बैंक कर्मचारी ने बताया कि कभी-कभी समूह के खातों में 28-30 मार्च को ऋण दर्ज किए जाते हैं, लेकिन बैंक उन्हें 2-4 अप्रैल को भुगतान के रूप में ही संसाधित कर देता है।
वर्तमान में, ग्रामीण बैंक मुख्य रूप से सरकारी कर्मचारियों और रियल एस्टेट डीलरों को ऋण देता है, जिन्हें ऋण वसूली के लिए अधिक विश्वसनीय माना जाता है। वंचित ग्रामीण आबादी को आत्मनिर्भर बनाने के मूल उद्देश्य को दरकिनार कर दिया गया है। बंगियो ग्रामीण विकास बैंक के कई कर्मचारियों ने बताया है कि बैंक के मुनाफे को अब वित्तीय बांड और डिबेंचर में निवेश करके बढ़ाया जा रहा है। बंगियो ग्रामीण विकास बैंक के विश्वसनीय स्रोतों के अनुसार, 2023 में बैंक ने कुल 7,103 करोड़ रुपए का ऋण दिया और 11,341 करोड़ का निवेश बांड और डिबेंचर में किया। 2024 में, ऋण की राशि 8,745 करोड़ रुपए थी, जबकि बांड और डिबेंचर में निवेश बढ़कर 11,407 करोड़ रुपए हो गया। नाम न छापने की शर्त पर बांकुरा क्षेत्रीय कार्यालय के एक अधिकारी ने इस बात की पुष्टि की कि अब यह निर्देश है उच्च अधिकारियों से बैंक को इसी तरीके से चलना होगा।