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*दिल की बात बता देता है, असली नकली चेहरा

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शशिकांत गुप्ते

अपने देश के संसद भवन के प्रवेश द्वार पर अंकित ये संस्कृत के दो श्लोक हमारे देश की संस्कृति और सभ्यता के चिह्न हैं ।
अयं निज: परो वेति गणना लघुचेतसाम्।
उदार चरितानां तु वसुधैव कुटुंबकम्।।
इन दोनों श्लोकों का हिंदी में अनुवाद है।
यह अपना या पराया गिनती छोटे दिल वालों करते हैं।
उदार , बड़े , महान दिल वालों के लिए तो वसुधैवकुटुम्बकम अर्थात सम्पूर्ण पृथ्वी ही एक परिवार है।
संकीर्ण मानसिकता वाले लोग ही अपने पराए में भेद रखतें हैं।
ऊंच ,नीच ,तेरा ,मेरा ऐसी भावना उदार मानसिकता वालों के चित्त में आती ही नहीं है।
संत ज्ञानेश्वर जिन्होंने मात्र 22 वर्ष की आयु में समाधि ली है।ज्ञानेश्वर ने भी यही कहा है, हे विश्व ची माझे घर अर्थात यह सम्पूर्ण विश्व ही मेरा घर है।गांधीवादी विचारक चिंतक आचार्य विनोबा भावेजी हमेशा जय जगत ही कहते थे।
उपर्युक्त सुविचारों को पढ़कर समझने के बाद वर्तमान में जो कुछ दिखाई दे रहा है वह कितना विरोधाभासी है?
तार्किक बहस कोई करना ही नहीं चाहता है।बुरा मत देखो,बुरा मत सुनो, बुरा मत बोलो, के साथ यह भी जोड़ना चाहिए कि बुरा मत लिखों।
मानव यदि सामान्यज्ञान का उपयोग करे तो उसे तात्काल समझ में आ जाएगा कि कोई भी धर्म हिंसा का समर्थक हो ही नही सकता है। जो असामाजिक होतें है उनका कोई भी धर्म कैसे हो सकता है?
धर्म पर आस्था रखने वाले विधर्मी के साथ भी द्वेषपूर्ण भावना रखेंगे ही नहीं।
धर्म पर आस्था रखने वालों का आचरण सदाचारी बनता है।आज आडम्बर और आस्था पर व्यापक बहस की आवश्यकता है?
इस संदर्भ में एक सूफी संत का काव्य यहाँ प्रासंगिक है।
शेख हो या की ब्ररहम कोई
रात भर सज़दे करें माथा घिसे सौ सौ बार
न रहमत न बरकत जरा पाएगा
जो भी किसी का दिल दुखाएगा,सज़ा पाएगा

यह सारे विचार संवेदनशील लोगों के लिए है।
जिनके हृदय में संवेदनाएं क्षीण हो जाती है ऐसे लोगों के लिए राष्ट्रकवि स्व.दिनकरजी की कविता इन पंक्तियों का स्मरण होता है।
जब नाश मनुज पर छाता है,पहले विवेक मर जाता है
विवेक के जागृत रखना ही मानव का उत्कृष्ट गुण है।
आज से लगभग सात सौ वर्ष पूर्व संत कबीरसाहब के द्वारा कही गई साखी की कुछ पंक्तियां आज के माहौल के लिए प्रासंगिक और उपदेशक भी है
संतो देखत जग बौराना।
साँच कहौं तो मारन धावै, झूठे जग पतियाना।।
नेमी देखा धरमी देखा, प्रात करै असनाना।
आतम मारि पखानहि पूजै, उनमें कछु नहिं ज्ञाना।।
बहुतक देखा पीर औलिया, पढ़ै कितेब कुराना।
कै मुरीद तदबीर बतावैं, उनमें उहै जो ज्ञाना।।
आसन मारि डिंभ धरि बैठे, मन में बहुत गुमाना।
पीपर पाथर पूजन लागे, तीरथ गर्व भुलाना।।
टोपी पहिरे माला पहिरे, छाप तिलक अनुमाना।
साखी सब्दहि गावत भूले, आतम खबरि न जाना।

उक्त काव्य संत कबीरसाहब द्वारा रचित है,लेखक ने कुछ पंक्तिय सिर्फ उध्दृत की है।
अभिव्यक्ति की संवैधानिक स्वतंत्रता प्राप्त होते हुए भी यह स्पष्टीकरण देना लेखक अपना नैतिक कर्तव्य समझता है।

शशिकांत गुप्ते इंदौर

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