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भारत की सार्वजनिक आरोग्य विषमता का वास्तव

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डॉ. अभिजित वैद्य

कोरोना महामारीने समुचे विश्व के बडे-बडे देशों की सार्वजनिक आरोग्य की व्यवस्था के वास्तव का पर्दाफाश
किया । महामारी एक ऐसा संकट होता है की वो विश्व की पुरी मानवजाति को एक ही झटके में ग्रस्त कर
सकता है । जिस देश की आरोग्य व्यवस्था सक्षम हो वह देश किसी भी प्रकार की महामारी का पुरी शक्ति के
साथ सामना कर सकता है । जिन देशो की यह व्यवस्था कमजोर होतीं है उनके लिए यह चुनौती कठीन
साबित होती है । यही कारण है की जिसकी वजह कोरोमहामारी मे हमारे देश की स्थिती दयनीय हुई ।
हमारे देश की आरोग्य व्यवस्था न केवल बिमार है अपितु विषमता से भी ग्रस्त है । ‘ऑक्सफँम’ संस्था द्वारा
जुलाई २०२१ में एक अहवाल प्रसिद्ध हुआ जिसका नाम था ‘भारतीय आरोग्य व्यवस्था की विषमता की कथा’
। इसमें हमारे देश की सार्वजनिक आरोग्य व्यवस्था का भीषण रूप फिर एक बार नए सिरे से सम्मुख आ गया ।
गत अनेक दशको में भारत ने आरोग्य क्षेत्र में दर्शनीय प्रगति की है । लेकिन यह प्रगति हुई निजी क्षेत्र की और
वो भी गरीब लोगों को हटाकर । सार्वजनिक आरोग्य क्षेत्र ने भी प्राथमिक आरोग्य की बुनियाद मजबूत न करते
हुए द्वितीय एवं तृतीय स्तर पर जोर देना आरंभ किया । इसका अर्थ ऐसा हुआ कि बुनियाद मजबूत न करके बुर्ज
खलिफा बांधने का प्रयास करना ।
इस अहवाल द्वारा कुछ गिनती पर प्रकाश डाला गया है इसपर भी ध्यान देना आवश्यक है ।
भारत में एक परिवार में औसतन ४-४.५ सदस्य होते है । देश की ५९.६ प्रतिशत जनता एक छोटे कमरे या
झोपडी में रहती है । कोविड कि महामारी फैलने का यह मुख्य कारण है । २०१७ में भारत में १०१८९
आबादी के लिए एक अॅलोपॅथिक डॉक्टर, १०३४३ आबादी के लिए एक शासकीय अस्पताल था । साथ ही
हजार लोगों के लिये केवल ०.५ प्रतिशत खाटे अस्पतालो में उपलब्ध थी । ये आँकडे चीन में ४.३ , दक्षिण
आफ्रिका में २.३, ब्राझील में २.१ , बांगला देश में ०.८७, मेक्सिको में ०.९८ तथा चिली में २.११ है ।
जागतिक आरोग्य संघटना के नियमा नुसार प्रती एक हजार आबादी के लिए ५ खाटोंकी आवश्यकता है ।
हमारे देश में सार्वजनिक आरोग्य यंत्रणा के प्राथमिक, द्वितीय तथा तृतीय स्तर है । प्राथमिक स्तर पर उपकेंद्र
(सबसेंटर) एवं प्राथमिक आरोग्य केंद्र (पीएचसी) होते है जहाँ रुग्ण सबसे पहले पहुँचता है । उपकेंद्र पहाडी
इलाके में प्रती ३००० आबादी के लिये तथा समतल इलाके में ५००० लोगों के लिये सेवा देता है । उपकेंद्र पर

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कम –से- कम एक दाई, महिला परिचारिका और एक पुरुष आरोग्य सेवक का होना अपेक्षित है । एक प्राथमिक
केंद्र के अंतर्गत छह उपकेंद्रो का समावेश होता है । एक प्राथमिक आरोग्य केंद्र २०००० की आबादी को सेवा
देता है । इस केंद्र में कम-से-कम एक वैद्यकीय अधिकारी, एक चिकित्सा सहायक, एक तंत्रज्ञ, एक परीचारिका
तथा एक फार्मासिस्ट का होना अभिप्रेत है । २०१९ में भारत में कुल १.५८ लाख उपकेंद्र तथा २६०००
प्राथमिक केंद्र थे । लेकिन इनमें से केवल १०% केंद्र कसौटी पर खरी उतरी थी । आज देश को ४३७३६ उपकेंद्र
तथा ८७६४ प्राथमिक केंद्रो की तुरंत आवश्यकता है ।
सार्वजनिक आरोग्य व्यवस्था के दुसरे स्तर में कम्युनिटी हेल्थ सेंटर (सीएचसी) एवं छोटे ग्रामीण अस्पतालो का
समावेश होता है । एक कम्युनिटी हेल्थ सेंटर पहाडी इलाके में ८०००० तथा समतल इलाके में १२००००
आबादी के लिये सेवा प्रदान करता है । इस कम्युनिटी हेल्थ सेंटर में एक फिजिशियन, एक सर्जन, एक स्त्रीरोग
तज्ञ, २१ चिकित्सा सहायक एवं कर्मचारियो का होना अपेक्षित है । इसके साथ ३० अस्पताल की चारपाईयाँ,
एक ऑपरेशन थियेटर, एक्सरे, प्रसूतीकक्ष एवं लबोरेटरी का होना अभिप्रेत है । २०१९ में भारत में कुल ५-६
हजार कम्युनिटी हेल्थ सेन्टर्स थे । आज पुरे देश को २८६५ कम्युनिटी हेल्थ सेन्टर्स की तुरंत आवश्यकता है ।
सार्वजनिक आरोग्य व्यवस्था के तिसरे स्तर में जिला एवं राज्यस्तरीय अस्पतालो, शासकीय एवं खाजगी
वैद्यकीय महाविद्यालय तथा सुपर स्पेशालिस्ट अस्पतालो का समावेश होता है । आज हमारा देश सार्वजनिक
आरोग्य व्यवस्था हेतू जीडीपी के केवल १.२५ प्रतिशत खर्च करता है । ब्रिक्स समूह के अन्य देशों में यह आंकडा
ब्राझील में ९.२ प्रतिशत, साऊथ आफ्रिका में ८.१ प्रतिशत, रशिया में ५.३ प्रतिशत एवं चीन में ५ प्रतिशत है
। हमारे पडोसी भूतान २.१ प्रतिशत तथा श्रीलंका १.६ प्रतिशत के अनुसार हमसे आगे है । सार्वजनिक आरोग्य
हेतू खर्च करने में हम विश्व की तुलना में नीचे से ५ वे अर्थात १५४ वे स्थान पर है । अनेक अभ्यासको ने यह
सप्रमाण दिखा दिया है कि जिस देश में सार्वजनिक आरोग्य व्यवस्था पर अल्प मात्रा में खर्च किया जाता है उस
देश के जनता की आरोग्य का स्तर सभी निकाषो पर घट जाता है । लेकीन दुसरी ओर आरोग्य के खासगी तौर
पर किये जानेवाले खर्च पर हम पुरे विश्व में अनेक धनवान देशों से भी आगे है । हमारे देश में जनता के स्वास्थ्य
पर होनेवाले खर्च में से ६४.०२ हिस्सा जनता की जेब से होता है । इस खर्च का वैश्विक औसतन १८.२ प्रतिशत
है । लेकिन इसके कारण हमारे ही शासन की गिनती के अनुसार स्वास्थ हेतू किये जानेवाले खर्च से हरसाल ६.३
करोड लोग दरिद्रता में ढकेल दिए जाते है । रुग्ण अस्पताल में दाखिल होने के पश्चात ७४% लोग होनेवाला
खर्च अपनी जेब से करते है तो २०% लोगों को कर्ज के बिना कोई विकल्प नही रहता । लेकिन ग्रामीण इलाके
का तथा गरीबी का वास्तव देखने पर इससे भी भयानक स्थिती नजर आती है । इस वर्ग का ज्यादा तर खर्च,
घर, जमीन या गहने गिरवी रखकर किया जाता है ।
विश्व का औसतन आयुर्मान आज ७२.६ सालो की है । तो भारत में ६९.४२ साल है । हमारे पडोसी देशो में
नेपाल ७०.८, भूतान ७१.८, बांगलादेश ७२.६, श्रीलंका में ७७ साल है । हमारे देश में धनवान व्यक्ती गरीब से
औसातन ७.५ साल अधिक तो सवर्ण स्त्री दलित स्त्री की अपेक्षा १५ साल ज्यादा जिंदा रहती है । दीर्घ आयुः का
संबध अनेक घटकों से जरूर है लेकिन आरोग्य सेवाओं की उपलब्धता उनमे से सबसे महत्त्व पूर्ण घटक है ।

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आरोग्य सुविधाओं के बारे में पुरे विश्व में हम १९९० में १५३ स्थान पर थे । हाल ही में आज हम १४५ वे
स्थान पर है । थोडा सुधार इसमें जरूर हुआ है लेकिन बांगलादेश, भूतान तथा श्रीलंका से हम पीछे है।
पीने का अशुद्ध पानी, अस्वच्छता तथा शौचालय की असुविधा के कारण २०१५ में हमारे देश में ५ साल से कम
उम्र वाले एक लाख बच्चों की मृत्यू हो गई । लेकिन आज इसमें साधारण सुधार हुआ है । पिने का पानी मिलने
वाली जनता में २.३ प्रतिशत वृद्धी होकर यह संख्या ८९.९% प्रतिशत इतना हुई है । शौचालय की सुविधा
होने से १९.३% से यह संख्या ४८.४% तक पहुंची है । अर्थात इन दोनों सुविधाओं का लाभ शहरवासियो को
ही हुआ है । जनता का घोवन अर्थात इस्तेमाल किया हुआ पानी तथा मल-मूत्र विसर्जन के सुधार में सिख
समाज सबसे अग्रसर ८३.६%, ख्रिश्चन ६७.५%, मुस्लीम ५३.२% तथा हिंदू सबसे अंत में ४६.४ % पर है ।
आर्थिक स्तर पर नजर डाली तो उच्च स्तर २०% वर्ग में ९३.४ % तो निम्न २०% वर्ग में केवल ६% लोगों को
ये सुविधाएँ प्राप्त हुई है । स्वच्छ भारत योजना के अंतर्गत छह लाख गाँव खुली जगह पर पाखाना करने से मुक्त
हो गये ऐसा शासन द्वारा घोषित किया है अपितु इनमे से १०% गाँवो में इसकी प्राथमिक तौर पर जाँच
पडताल भी नही की गई ।
वैद्यकीय खर्च में २००४ से २०१७ इस कालावधी में तीगुना वृद्धी हुई है । इसमें शहरी इलाकों में वृद्धी हुई है ।
विद्यमान स्थिती में भारत में ११९ अब्जाधीश है और १३ करोड लोगों का प्रतिदिन का उत्पन्न रु.१४०/- से भी
कम है । इन ११९ अब्जाधीश में से केवल चुटकी भर अति धनवान लोगों के पास देश की कुल संपत्ती से ज्यादा
संपत्ती है । कोरोना महामारी के दरमियान इन धनावानो की संपती कई गुना बढ गई तो गरीब आदमी और
ज्यादा गरीब हो गया, बेरोजगार हो गया । इस तरह के लोग अपने आरोग्य पर कैसा खर्च करेंगे ? यह सवाल
उठता है । ऐसा होने पर भी सरकार खासगी क्षेत्र को बढावा देनेवाला पीपीपी मॉडेल लोगो के संमुख जबरदस्ती
से पेश कर रही है । २०२२ तक भारत का स्वास्थ हेतू निवेश ३७२ बिलीयन डॉलर्स पर पँहुचने की अपेक्षा है ।
जिस देश की २७.५ % जनता अधीकृत दरिद्रता रेखा के नीचे है इसमें दलित, आदिवासी, चलवासी, महिलाए
इनका मुख्यतः समावेश होता है ऐसा देश जब आरोग्य क्षेत्र के निजी निवेश की ओर मार्गक्रमना करता है तब
यह समाज दूर फेंका जाता है । भारत को जब स्वतंत्रता मिली तब खासगी क्षेत्र आरोग्य सेवाओ का केवल ५ से
१० प्रतिशत हिस्सा वहन करता था लेकिन आज इसके विरुद्ध स्थिती है । आज ६८ % रुग्ण भर्ती खासगी
अस्पतालों में होती है । खासगी क्षेत्र जिंदगी पर आए हुए संकट के समय आम लोगों का कितना आर्थिक शोषण
करता है और उन्हे धीरज देने में असमर्थ साबित होता है यह हमने कोविड महामारी के दरमियान अनुभवीत
किया है । इसी दरमियान २०२१-२२ के अर्थसंकल्प में सार्वजनिक आरोग्य सेवा हेतू प्रावधान में ९.८ % घट
करके वह रकम ७६९०/ करोड रुपयो पर लाकर रखी यह सब विषम वास्तव ‘ओक्सफँम’ के अहवाल के कारण
सम्मुख आया है और गंभीर भी है । सार्वजनिक स्वास्थ पर केवल ज्यादा खर्च करना उपयोगी नही है अपितु ये
सुविधाएँ पुरे देश की सभी जनता को समान एवं न्याय पद्धती से किस तरह से उपयोगी होगी यह एक नई
चुनौती इस अहवाल ने सम्मुख रखी है ।

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