Site icon अग्नि आलोक

‘वर्ल्ड इक्वलिटी लैब’ की रपट एक बार फिर जातिगत जनगणना की आवश्यकता को स्थापित कर रही है

Share

डॉ. अभय कुमार

जाति पर आधारित असमान व्यवस्था का परिणाम केवल ऊंच-नीच और भेदभाव तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसका प्रत्यक्ष संबंध अमीरी और गरीबी से भी है, क्योंकि जाति भारतीय समाज की एक कड़वी सच्चाई है। जन्म से लेकर मृत्यु तक जाति आधारित व्यवस्थाएं और रीति-रिवाज हमारा पीछा नहीं छोड़ते। आज भी उम्मीदवारों के चयन से लेकर विवाह तक वर-वधू की पसंद जाति-बिरादरी से तय होती है। फिर भी ऊंची जाति की लॉबी जाति समुदाय के आधार पर भेदभाव से इनकार करती रही है।

इसके उलट गत 14 जून, 2024 को अंग्रेजी अखबार ‘बिजनेस स्टैंडर्ड’ ने ‘वर्ल्ड इक्वलिटी लैब’ के एक महत्वपूर्ण रपट पर आधारित एक खबर प्रकाशित किया, जो एक बार फिर जातिगत व्यवस्था और अमीर-गरीब के बीच संबंधों की ओर स्पष्ट रूप से इशारा करती है। रपट से पता चलता है कि भारत के लगभग 88.4 प्रतिशत अरबपति मुट्ठी भर ऊंची जातियों से हैं। याद रहे कि भारत में आखिरी बार जाति आधारित जनगणना साल 1931 में हुई थी। आज़ादी के बाद इसे बंद कर दिया गया और यह तर्क दिया गया कि आधुनिक भारत में जाति-आधारित राजनीति और योजना निर्माण का कोई स्थान नहीं होना चाहिए। प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के शासनकाल के दौरान उदारवादी विचारधारा प्रचलन में थी। नेहरू के दौर के ज़्यादातर सवर्ण विद्वानों का यह मानना था कि जाति पर चर्चा करने से जाति की बीमारी और फैल जाएगी। लेकिन वस्तुत: यह उनका भ्रम ही था कि आर्थिक विकास के प्रभाव में जाति व्यवस्था टूट जाएगी।

और यही हुआ भी। क्योंकि हमारे समाज में ऊंची जातियों के लोग जाति के आधार पर बहुसंख्यक बहुजन आबादी का शोषण करते हैं। जबकि संख्या में अल्पसंख्यक उच्च जाति के सदस्य जाति की वास्तविकता से इनकार करते रहे हैं। उनमें से अधिकांश अपने निजी हितों को पूरा करने के लिए ‘जातिगत नेटवर्क’ का लाभ उठाते रहे हैं। अब जो आंकड़े सामने आए हैं, वे हमारा ध्यान ऊंची जातियों के सामाजिक, शैक्षणिक, सांस्कृतिक और आर्थिक प्रभुत्व की ओर खींचते हैं।

भारत की कुल जनसंख्या में ऊंची जातियों का प्रतिशत कितना है, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता, लेकिन अधिकांश विद्वान इस बात से सहमत हैं कि उनकी जनसंख्या का अनुपात कुल जनसंख्या का लगभग 15 से 20 प्रतिशत है। संख्यात्मक आधार पर, मुट्ठी भर उच्च जाति के लोग कुल आबादी में अपनी हिस्सेदारी से 6 गुना अधिक अरबपतियों में शामिल हैं। दूसरी ओर, 16 प्रतिशत आबादी वाले अनुसूचित जाति (एससी) अरबपतियों की हिस्सेदारी 3 प्रतिशत से भी कम है।

‘वर्ल्ड इक्वलिटी लैब’ की रपट में देखा जा सकता है कि दलित अरबपतियों की हिस्सेदारी उनकी आबादी के अनुपात से पांच गुना कम है। पिछड़ी जातियों (ओबीसी) की स्थिति भी ज्यादा बेहतर नहीं है। जहां उनकी आबादी 50 प्रतिशत से अधिक बताई जाती है, वहीं ओबीसी समुदाय के अरबपतियों का प्रतिशत केवल 9 प्रतिशत है। जबकि एक भी अरबपति अनुसूचित जनजाति (एसटी) से संबंधित नहीं पाया गया है, जिनकी आबादी 8 प्रतिशत से अधिक है। इससे पता चलता है कि भारत में आदिवासी समाज की देश के संसाधनों व आर्थिक-व्यवस्था में कितनी कम हिस्सेदारी है।

पिछले कई सालों के आंकड़ों पर गौर करें तो पता चलता है कि ऊंची जाति के अरबपतियों का प्रतिशत साल दर साल बढ़ता जा रहा है। पिछले एक दशक में इनकी भागीदारी 10 प्रतिशत बढ़ी है, जबकि ओबीसी अरबपतियों की हिस्सेदारी 11 प्रतिशत घटी है। मसलन, वर्ष 2014 में ऊंची जाति के अरबपतियों की हिस्सेदारी 78.1 प्रतिशत था, जो 2022 में बढ़कर 88.4 प्रतिशत हो गया है, जबकि ओबीसी अरबपतियों की हिस्सेदारी 20 प्रतिशत से घटकर 9 प्रतिशत हो गया है। ये आंकड़े यह भी दर्शाते हैं कि पिछड़े वर्गों की संसाधनों में हिस्सेदारी घट रही है, जबकि ऊंची जातियों का वर्चस्व बढ़ा है।

भारत में अरबपतियों की जाति (%)

वर्षसवर्णओबीसीएससी
201380.317.81.8
201478.120.01.9
201578.417.64.0
201679.716.83.5
201780.116.13.7
201881.714.44.0
201981.415.23.5
202084.711.64.1
202186.010.13.9
202288.49.02.6

(स्रोत: दी बिजनेस स्टैंडर्ड, 14 जून, 2024)

इसी तरह के अध्ययन पहले भी सामने आए हैं। मिसाल के तौर पर ‘इकोनॉमिक एंड पोलिटिकल वीकली’ के 11 अगस्त, 2012 के अंक में डी. अजित, हान डोनक और रवि सक्सेना के एक शोध लेख ने दिखाया कि भारतीय कॉर्पोरेट बोर्डों में ऊंची जातियों का वर्चस्व है। लेख के मुताबिक, कॉर्पोरेट बोर्ड के 93 प्रतिशत सदस्य ब्राह्मण और वैश्य जैसी उच्च जातियों से थे। दूसरी ओर, दलित, आदिवासी और ओबीसी समुदाय, जो आबादी का 80 प्रतिशत हैं, की हिस्सेदारी केवल 7 प्रतिशत है।

उपरोक्त तथ्य स्पष्ट रूप से बताते हैं कि यदि कोई व्यक्ति ऊंची जाति में पैदा हुआ है, तो संभावना अधिक है कि वह आर्थिक रूप से भी मजबूत होगा। इसके विपरीत, यदि कोई व्यक्ति दलित, आदिवासी और पिछड़ी जाति के घर में पैदा हुआ है, तो उस व्यक्ति को गरीबी का सामना करने की आशंका बहुत बढ़ जाती है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि ज्यादातर बड़ी जोत वाले ऊंची जाति के हैं, जबकि करीब 70 प्रतिशत दलितों के पास जमीन नहीं है और वे खेतिहर मज़दूर के तौर पर काम करके अपना जीवन-यापन करते हैं।

हाल में जारी रपट के मुताबिक भारत में 88.4 प्रतिशत अरबपति सवर्ण हैं और दलित-बहुजनों की हिस्सेदारी केवल 11.6 प्रतिशत है

वैसे देखा जाय तो भारत में जाति-व्यवस्था का सीधा संबंध वर्ग व्यवस्था से भी है। भारत में मज़दूरों की जाति भी है। भारत में जाति के आधार पर पेशे बंटे हुए हैं। आज भी आप को सफ़ाई कर्मचारी एक-दो छोड़कर सारे दलित ही मिलेंगे, जबकि मंदिरों पर क़ब्ज़ा ब्राह्मणों का ही होगा। लेकिन हमारे देश की मीडिया और हमारे बुद्धिजीवी इस बड़े सच पर बात करने को तैयार नहीं हैं। ऊंची जाति की लॉबी हमेशा जाति-आधारित असमानता को छिपाने की कोशिश करती है। यही वजह है कि वह जातिगत जनगणना का भी विरोध करती है। कांग्रेस के सवर्ण नेता भी राहुल गांधी की आलोचना कर रहे हैं, क्योंकि राहुल ने जातिगत जनगणना कराने की बात की है। आरएसएस की लॉबी तो जाति जनगणना की घोर विरोधी रही है और इसका दुष्प्रचार वह समाज में फूट डालने के रूप में करती है। यही वजह है कि ख़ुद को ओबीसी कहने वाले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी जातिगत जनगणना के पक्ष में बोलने को तैयार नहीं हैं।

जाति आधारित भेदभाव पर पर्दा डालने के लिए सांप्रदायिक लॉबी हमेशा हिंदू-मुसलमान का झगड़ा खड़ा करती है। लोगों को मंदिर और मस्जिद के नाम पर बांटा जाता है, ताकि वे जाति समुदाय और जाति-व्यवस्था जनित सवालों पर ध्यान न दे सकें। यही वजह है कि ओबीसी और दलित के बीच हिंदुत्व के संगठन काम कर रहे हैं और उनका पूरा मक़सद यही है कि उनको धर्म के नाम पर उकसाया जाए और उनको सामाजिक न्याय की राजनीति के ख़िलाफ़ इस्तेमाल किया जाए। यह बात भी हमें नहीं भूलनी चाहिए कि दलित और ओबीसी स्वयं को अल्पसंख्यक समुदायों के दलित और पिछड़ों के ज़्यादा क़रीब पाते हैं और उनको हर धर्म के सवर्णों से अपमान झेलना पड़ता है। मतलब यह कि हिंदू धर्म के सवर्णों और अशराफ मुसलमानों, दोनों का अपमान झेलना पड़ता है।

भारत में जाति की वास्तविकता को छुपाने के लिए तरह-तरह के दुष्प्रचार किए जाते हैं। उदाहरण के लिए, ऐसा कहा जाता है कि अतीत में लोग भले ही जाति के आधार पर भेदभाव झेले हों, लेकिन आधुनिक भारत में यह सब ख़त्म हो गया है। कुछ चतुर सवर्ण बुद्धिजीवी जातिवाद को छुपाने के लिए कहते हैं कि विकसित भारत में, जहां समता और सेक्युलर सिद्धांत पर आधारित संविधान लागू है और लोकतांत्रिक व्यवस्था काम कर रही है, उपरोक्त सामाजिक कुरीतियां दफ़न हो गई हैं। लेकिन जाति को दबाने और उसे सांप्रदायिक रंग देने में हिंदू पुनरुत्थानवादी सबसे आगे हैं। कई लेख और किताबें उन्होंने लिख रखी हैं और यह झूठा तर्क फैलाने की कोशिश की है कि जाति-व्यवस्था मुस्लिम आक्रमणकारियों और अंग्रेजों के समय में उभरी थी। भगवा संगठन से जुड़े लेखकों ने यह अफवाह भी फैलाई कि जाति आधारित अमानवीय सामाजिक बुराई अछूत प्रथा के लिए विदेशी मुस्लिम आक्रमणकारी शासक दोषी हैं।

हाल के वर्षों में वरिष्ठ भाजपा नेता और वर्ष 2002 में गठित चौथे राष्ट्रीय अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष रहे डॉ. विजय सोनकर शास्त्री ने इस विषय पर कई किताबें लिखी हैं और आरएसएस की विचारधारा की पैरवी की है। उनका तर्क है कि मुस्लिम आक्रमणकारियों के आने से पहले दलितों की सामाजिक स्थिति उच्च जाति की थी। उनका तर्क यह भी है कि जैसे ही विदेशी मुस्लिम आक्रमणकारी भारत के शासक बने, उन्होंने क्षत्रियों को इस्लाम अपनाने के लिए मजबूर किया, जिसे वे स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। शास्त्री के अनुसार, “यह सब देखकर मुस्लिम हमलावर क्रोधित हो गए। अरब और विदेशी देशों के मुस्लिम शासकों ने क्षत्रियों की गरिमा को गिराने के इरादे से उन्हें मरी हुई गायों की खाल उतारने जैसे ‘घृणित’ काम करने के लिए मजबूर किया।”

इस प्रकार शास्त्री दलितों और मुसलमानों के बीच संघर्ष पैदा करने की कोशिश कर रहे हैं। वे आरएसएस के एजेंडे को पूरा करते हुए लिखते हैं कि मुस्लिम आक्रमणकारियों ने अछूत प्रथा और अछूत जाति को जन्म दिया।

लेकिन ऐतिहासिक हकीकत भगवा प्रचार से बिल्कुल अलग है। आठवीं सदी की शुरुआत में जब मुहम्मद बिन कासिम सिंध का गवर्नर बना, उससे पहले भी भारत में जाति और वर्ण-व्यवस्था मौजूद थी। बाबासाहेब आंबेडकर का लेखन पढ़ने से भगवा पार्टी की पोल खुल जाती है। डॉ. आंबेडकर ने अपनी पुस्तिका ‘जाति का विनाश’ में स्पष्ट रूप से कहा है कि हिंदू समाज के भीतर सुधार के रास्ते में सबसे बड़ी बाधाएं धार्मिक पुस्तकें हैं, जो जाति-व्यवस्था को उचित ठहराती हैं। अस्पृश्यता के बारे में डॉ. आंबेडकर ने यह भी लिखा है कि एक समुदाय के रूप में दलितों का उदय चौथी शताब्दी में हुआ। उनके अस्तित्व पर विस्तार से बताते हुए, डॉ. आंबेडकर ने कहा कि जब बौद्ध धर्म ब्राह्मणवाद से हार गया, तो ब्राह्मणों ने शाकाहार को बढ़ावा देना शुरू कर दिया, जिससे गोमांस खाना प्रतिबंधित हो गया। गरीब घुमंतू जनजाति के लिए गोमांस छोड़ना आसान नहीं था। उनके जीवन में गाय का बहुत महत्वपूर्ण स्थान था। वे न केवल गोमांस से अपना पेट भरते थे, बल्कि उसकी खाल और मरी हुई गाय के अन्य उत्पाद भी उनके जीवन में बहुत उपयोगी थे। इसे देखते हुए उनके लिए गोमांस छोड़कर पूर्ण शाकाहारी बनना कठिन था। बाद में ब्राह्मणों ने गोमांस खाने वाली जनजातियों को ‘अछूत’ कहना शुरू कर दिया और इस तरह पिछले 1500 वर्षों से भारत में अस्पृश्यता मौजूद है। बाबासाहेब का लेखन हिंदू तबक़्क़तों की उन अफ़वाहों को खारिज करता है कि वह छुआछूत के लिए मुसलमानों को जिम्मेदार ठहराते हैं।

इन सब विषयों पर चर्चा करना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि जाति भारत की सबसे बड़ी सच्चाई है। जीवन से मृत्यु तक आपको जाति का फ़ायदा और जाति का नुक़सान झेलना पड़ता है। अगर आप ऊंची जाति में पैदा हुए हैं तो आपके लिए राह आसान है, जबकि बहुजन के लिए जाति आग का वह दरिया है, जिससे गुज़रने के बाद ही कामयाबी मिलती है। जाति की आग बहुजनों का पीछा उनकी कामयाबी के बाद भी नहीं छोड़ती है। यही वजह है कि मुट्ठी भर सवर्ण जातियां हर तरह क़ाबिज़ हैं और बहुजनों को उनकी हिस्सेदारी नहीं मिल पा रही है। कुछ उसी तरह, अमीरी और गरीबी का सीधा संबंध जाति से है। यही कारण है कि डॉ. आंबेडकर ने जाति पर आधारित शोषण और भेदभाव को ख़त्म करने को अपना उद्देश्य बनाया। वे जानते थे कि जाति प्रथा किसी के लिए सही नहीं है। जाति प्रथा की वजह से न केवल बहुजन शोषित हैं, बल्कि भारत भी सदियों से पिछड़ा हुआ है और ग़रीबी के दलदल से बाहर निकलने में असमर्थ है। तभी तो उन्होंने कहा कि बंधुत्व और आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक विकास के लिए जाति उन्मूलन सबसे ज़्यादा आवश्यक है। अरबपतियों से संबंधित जिन आंकड़े पर हमने उपर में बात कही है, वह भारत की शोषणकारी जाति व्यवस्था की तरफ इशारा कर रहे हैं, जिसे तोड़ना सभी का मिशन होना ही चाहिए। और यह भी कि इसके लिए देश में जातिगत जनगणना एक अनिवार्य कदम है।

Exit mobile version