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किसान विरोधी तीन काले कानूनों के पीछे औजारों की भूमिका और हमारे कार्यभार

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रजनीश भारती

 जिन कानूनों के खिलाफ पिछले छह महीने से किसान अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है उन तीनों किसान विरोधी काले कानूनों के पीछे भौतिक परिस्थिति क्या है, इसमें कृषि के अत्याधुनिक औजारों की भूमिका क्या है, इसकी भौतिकवादी समझ हासिल करके ही हम अपने सही कार्यभार तय कर सकते हैं। अत: समाज को बदलने में औजारों की भूमिका क्या है इसे समझना बहुत जरूरी है। 

 मानव समाज के इतिहास को भौतिकवादी नजरिए से देखें तो उत्पादन के औजारों के अनुसार सामाजिक संबंध भी बनते-बिगड़ते और विकसित होते रहे हैं जैसे डंडा या पत्थर के औजार उठा लेने से मनुष्य बंदरों या जंगली जानवरों से अलग होता गया, उसी तरह डंडे को मोड़कर धनुष बना लेने से उत्पादन बढ़ जाता है, इससे विनिमय बढ़ जाता है, विनिमय को सुगम बनाने के लिए निजी सम्पत्ति पैदा होती है, जिससे उसका कबीला टूट जाता है तथा दास एवं दासमालिक का समाज आ जाता है और ठीक उसी तरह से लोहे के आविष्कार और लोहे की कुल्हाड़ी के बन जाने से जंगलों की कटाई और खेती का विस्तार होता है तब दास और दासमालिक वाला समाज ध्वस्त हो जाता है उसके स्थान पर जमीन के बदले लगान अर्थात सामंती समाज का गठन हो जाता है। इसके बाद भाप के इंजन का आविष्कार होता है तो उसके बल पर पूंजीपतिवर्ग सामंती समाज को परास्त कर अपनी पूंजीवादी राजसत्ता की स्थापना करता है।      

आज जो तीनों काले कानून बने हैं, ये हल-बैल के जमाने में नहीं लागू हो सकते थे। वैज्ञानिक औजारों और तकनीकों के विकास के आधुनिक दौर में ही लागू हो सकते हैं। आज दो-चार सौ हार्सपावर की बात छोड़िए 1100 हार्सपावर तक के ट्रैक्टर आ गये हैं जिनका रोटोवेटर एक साथ पचास-साठ फुट चौड़ाई में जुताई कर सकता है। ऐसे-ऐसे विराट हार्वेस्टर भी आ चुके हैं कि एक ही हार्वेस्टर से चार-पांच सौ एकड़ से ज्यादा फसलों की कटाई एक दिन में कर सकते हैं। इसी तरह और भी दैत्याकार मशीनें खेती में प्रवेश कर चुकी हैं। परन्तु हमारे छोटे-छोटे खेत इन दैत्याकार मशीनों के सामने बाधक बन रहे हैं। इन दैत्याकार मशीनों को बड़े-बड़े खेत चाहिये। दैत्याकार मशीनों की इस मांग को पूरा करना पड़ेगा। तभी विकास का पहिया आगे बढ़ेगा।  

 अब इन दैत्याकार मशीनों की मांग के मुताबिक कई-कई हजार एकड़ के फार्म दो ही तरीके से बनाए जा सकते हैं- 1- पूंजीवादी तरीके से किसानों से जमीन छीनकर देशी-विदेशी पूंजीपतियों को लेकर हजारों-लाखों एकड़ तक के बड़े-बड़े फार्म बनाकर बड़े पैमाने पर खेती, जिसके लिए तीन काले कानून बनाये गये हैं। मगर इससे किसानों की बरबादी होगी, और बड़े-बड़े देशी-विदेशी पूंजीपतियों का ही विकास होगा। 2- दूसरा है समाजवादी तरीका जिसमें बड़े-बड़े सामंतों/सामंती पूंजीपतियों से जमीन छीन कर भूमिहीन व गरीब किसानों में बांटा जाए और सहकारी खेती, सामूहिक खेती एवं स्टेट फार्मिंग के जरिए लाखों एकड़ तक के बड़े-बड़े फार्म बनाकर विराट पैमाने पर खेती करते हुए खेती का औद्योगीकरण किया जाए। इससे सारे बड़े पूंजीपति और बड़े-बड़े सामन्त बर्बाद होंगे तथा शेष सारी जनता का विकास होगा।   अब हमें इतिहास से सबक लेकर उपरोक्त दो तरीकों में से किसी एक को चुनना होगा। चाहे टाटा, बिड़ला, अम्बानी, अडानी और विदेशी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को पूंजीवादी तरीके से हमारे खेतों को हड़प कर बड़े आकार का खेत बनाने दिया जाये अथवा शोषण, दमन, उत्पीड़न से सदा सर्वदा के लिये छुटकारा पाने हेतु खुद आगे बढ़कर समाजवादी व्यवस्था कायम करके किसान द्वारा खुद अपने सामूहिक मालिकाने में खेतों का आकार बढ़ाकर सहकारी खेती, सामूहिक खेती व स्टेट फार्मिंग के जरिए बड़े पैमाने पर खेती किया जाए। सभी नौजवानों को इन दो विकल्पों में से किसी एक को चुनना होगा। बीच का कोई रास्ता नहीं है।  

   बड़े पैमाने के औजार एक और मांग करते हैं यह कि जहां छोटे औजार व्यक्ति केन्द्रित होते हैं, अर्थात एक औजार एक ही आदमी से चलता है सामूहिक रूप से चल नहीं सकता, और ये व्यक्तिकेन्द्रित औजार व्यक्तिगत सम्पत्ति वाली अर्थ व्यवस्था की मांग करते हैं, वहीं भापशक्ति से चलने वाले विराट पैमाने की मशीनें अलग-अलग व्यक्तियों द्वारा व्यक्तिगत नहीं चल सकती हैं, इसे चलाने के लिये सामूहिकता जरूरी होती है। बड़ी मशीनों के कारण यह जो सामूहिकता बनती है, यही सम्पत्ति पर सामूहिक मालिकाने की मांग करती है। इन पर निजी मालिकाना होने से उत्पादन में अराजकता बढ़ती है जिससे बार-बार मंदी आती है और भारी तबाही होती है। इन बड़ी मशीनों के बढ़ने के साथ-साथ सामूहिकता भी बढ़ती है जिससे यह सवाल जोर पकड़ता जाता है कि अगर उत्पादन सामूहिक है तो मुनाफा व्यक्तिगत क्यों? यही सवाल समाजवादी विचारों के लिए प्रस्थान बिन्दु बन जाता है। जो एक ऐसे आर्थिक सामाजिक बदलाव की मांग करता है जिसमें मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण न हो। मंदी की तबाही आदि से बचने का यही एक रास्ता होता है। इस मांग को शोषक वर्ग कदापि पूरा नहीं कर सकता 
  ध्यान रहे जिन औजारों का दौर आ जाता है वे औजार दुनिया भर की समस्त सेनाओं से ताकतवर होते हैं, इण्टरकाण्टिनेन्टल बैलेस्टिक मिसाइलों और परमाणु बमों की ताकत भी उन औजारों को स्थापित होने से रोक नहीं सकती।”    इतिहास गवाह है, बड़े-बड़े राजे रजवाड़े, राट, विराट, सम्राट अपनी भारी भरकम सेना, पुलिस और घातक हथियारों  के बल पर भाप शक्ति का मुकाबला नहीं कर पाए। भापशक्ति ने इन सबको तख्त और ताज समेत इतिहास के कूड़ेदान में ढकेल दिया उसी तरह आज खेती की बड़ी-बड़ी मशीनें बड़े-बड़े खेतों को हासिल करके ही रहेंगी, और समाजवाद आकर ही रहेगा दुनिया की कोई ताकत इसे रोक नहीं पायेगी।   शोषित पीड़ित वर्गों के कुछ लोग, जो समाजवाद से घृणा करते हैं, औजारों की इस मांग को अनसुना करके सिर्फ तीनों काले कानून वापस करवा कर यथास्थिति को बनाए रखना चाहते हैं। उन्हें इन कानूनों की मार से छुटकारा नहीं मिलेगा। प्रकृति परिवर्तनशील है वह यथास्थिति को बर्दाश्त नहीं कर सकती, अत: जो इतिहास के पहिए को रोकना चाहते हैं, या पीछे लेजाना चाहते हैं प्रकृति ऐसे लोगों को मिटा देती है।     अत: आपको विकास की अगली मंजिल में जाना ही होगा, समाजवादी रास्ते से खुद नहीं आगे बढ़ेंगे तो विदेशी पूंजीवादी शक्तियां देर-सवेर आपको गुलाम बनाकर जानवरों की तरह घसीटकर अपने रास्ते पर आगे ले जायेंगी।
*रजनीश भारती**जनवादी किसान सभा उ. प्र.*

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