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देश के मेहनतकशों का कमर तोड़ रही है बिजली की विभिषिका

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देश में बिजली की विभिषिका देश के तमाम मेहनतकशों का कमर तोड़ रही है. देश में सबसे मंहगे बिजली का उपभोक्ता यही मेहनतकश तबका है. क्या यूपी, क्या बिहार ! भाजपा शासित राज्यों का तो और भी बुरा हाल है. अभी उत्तर प्रदेश के सहारनपुर के एक बिजली इंजीनियर का फरमान वायरल है, जिसमें वह एक मीटिंग में यह इंजीनियर सहारनपुर के बिजली विभाग के दूसरे इंजीनियर्स से कह रहा है कि जो बिजली बिल न चुकाये, उसके घर में आग लगा दो. यदि कोई सिफारिश के लिए विधायक जी का फोन आयें तो मत उठाओ. वही उसने उपभोक्ताओं की सरकारी राहत खत्म करते हुए 1 किलोवाट के कनेक्शन को 2 किलोवाट करने का फरमान भी जारी किया है. प्रस्तुत आलेख प्रवीण के सम्पादकत्व में लिखित किसान पुस्तिका का चौथा अंक है, जो बिजली की त्रासदी पर है, और किस कदर जालसाजी की जा रही है, उसका पूरा लेखाजोखा है. जिसे हम यहां प्रस्तुत कर रहे हैं, ताकि पाठक इसे बेहतर जान और समझ सके – सम्पादक

उत्तर प्रदेश सरकार ने बिजली को जनता पर जुल्म ढाने का साधन बना दिया है. बिजली चोरी रोकने के नाम पर कई सालों से घरों और ट्यूबवेलों पर बिजली विभाग की जबरदस्त छापेमारी चल रही है. हजारों किसानों-मजदूरों के बिजली कनेक्शन काटे जा चुके हैं, प्रशासन यह सीधी-सी बात समझने को तैयार नहीं है कि बिजली की बड़ी चोरी उद्योगपति, बड़े कारोबारी और रसूखदार लोग करते हैं, जिनके यहां बिजली विभाग के अधिकारी छापा नहीं मारते, सेटिंग करते हैं.

आम उपभोक्ताओं पर तरह-तरह के दबाव डालकर स्मार्ट मीटर लगाये जा रहे हैं, जिनका कोई भरोसा नहीं कि वे कितना बिल निकाल दें. इन मीटरों की कोई तय कीमत लोगों को नहीं बतायी जाती और न ही बिजली बिल पर उसे दिखाया जाता है. बिजली के दाम के अलावा कनेक्शन चार्ज, मीटर चार्ज, रिन्यूअल चार्ज जैसे मदों में बेतहाशा बढ़ोतरी कर दी गयी है.

प्रशासन ने जनता से ज्यादा-से-ज्यादा बिजली बिल की वसूली का अभियान छेड़ रखा है. हर जिले के लिए बिल वसूली का ‘टार्गेट’ भेजा जाता है. जाहिर है, ‘टार्गेट’ पूरा करने के लिए रसूखदार लोगों को तो निशाना बनाया नहीं जा सकता. इसे पूरा करने के लिए बिजली विभाग के अधिकारी अपने दफ्तरों में बैठे-बैठे मनमर्जी से किसान-मजदूरों के कनेक्शन का लोड बढ़ाकर बिजली का ज्यादा बिल भेज देते हैं.

अधिकारी से मिलने जाओ तो ऐसा अजीब गणित समझाते हैं, जिसे या तो ‘वे खुद समझे या फिर खुदा समझे’. इसके खिलाफ कहीं कोई सुनवाई नहीं. जान छुड़ाने के लिए गरीब मेहनतकश लोग अधिकारियों को मोटी रिश्वत देते हैं, उनकी ठोड़ी खुजलाते हैं. अधिकारी उन्हें धक्के खिलाते हैं, झूठे वादे करते हैं और स्मार्ट मीटर लगवाने के लिए दबाव डालते हैं.

कभी 10-20 लोग इकट्ठे होकर जायें तो अधिकारी उनकी गलती और बिजली विभाग का घाटा गिनवाने लगते हैं. दबाव बढ़ जाये तो कहते हैं कि सब सरकार के आदेशों से हो रहा है, हर जिले को वसूली के टार्गेट मिले हैं. बिजली का निजीकरण होना है, सबके यहां स्मार्ट मीटर लगना है. किसी विधायक, सांसद के पास जायें तो वह सुनवाई करने के बजाय ‘बिजली फूंकोगे तो बिल भरना ही पड़ेगा’ जैसी नसीहतें देकर जनता को ही दोषी ठहरा देते हैं.

2017 के बाद से गांव में घरेलू बिजली का बिल लगभग तीन गुना बढ़ चुका है. ट्यूबवेल के बिल का हाल इससे भी बुरा है. उसमें मोटर का लोड जबरन 5 हार्सपावर से बढ़ाकर 12.5 कर दिया गया है और बिजली की दर 100 रुपये प्रति हार्सपावर से बढ़ाकर 150 रुपए प्रति हार्सपावर कर दी गयी है.

यह सच है कि किसान ट्यूबवेल पर ज्यादा पावर का मोटर रखते हैं. लेकिन किसी शौक के चलते नहीं, बल्कि बिजली की वोल्टेज बहुत कम आने के चलते उन्हें ज्यादा पावर का मोटर रखना पड़ता है. इससे उनका मोटर की खरीद, उसके रखरखाव और बिजली की खपत का खर्च बहुत बढ़ जाता है. ट्यूबवेलों पर पूरी वोल्टेज न
पहुंचाने का दोषी बिजली विभाग है, वास्तव में तो उसे किसानों को हो रहे नुकसान की भरपाई करनी चाहिए, लेकिन बेबस, बदहाल किसानों को दोषी ठहराकर उनसे जुर्माना वसूला जा रहा है.

इसके अलावा, आज सिंचाई के साधनों के बिना खेती असम्भव है. यह खेती की सबसे बुनियादी और महंगी लागत है. पहले हर दौर में शासन ने किसानों की मदद के लिए सिंचाई के सार्वजनिक साधन तैयार किये थे. राजे-रजवाड़े सिंचाई के लिए नहर, तालाब, कुएं खुदवाते थे, बांध बनवाते थे. भारत को गुलाम बनाने वाले अंग्रेज भी यह काम करते थे. आजादी के बाद की सरकारों ने भी नहरें, राजवाहे खुदवाकर, सरकारी ट्यूबवेल लगवाकर सार्वजनिक सिंचाई का इन्तजाम किया.

पिछले कई दशकों से देश में संकर बीजों से खेती हो रही है जिन्हें पानी की ज्यादा जरूरत होती है. होना तो यह चाहिए था कि सरकारें बड़े पैमाने पर सिंचाई के सार्वजनिक साधन तैयार करती, लेकिन इस जिम्मेदारी से पल्ला झाड़कर उन्होंने निजी ट्यूबवेलों को बढ़ावा दिया जिससे किसानों को भारी नुकसान हुआ. साथ ही इसने भूमिगत जल के गम्भीर संकट को भी बढ़ाया. किसानों ने लाखों रुपया खर्च करके ट्यूबवेल लगवा लिये तो सरकार कम से कम इन्हें मुफ्त बिजली देती लेकिन उसने निजी ट्यूबवेलों को किसान की जेब कतरने का साधन बना लिया है.

योगी सरकार ने उत्तर प्रदेश में ट्यूबवेल का बिजली बिल माफ करने की घोषणा की है, लेकिन उसमें किसानों को बिजली कम्पनियों के जाल में फंसाने वाली शर्तें लगा दी हैं, जिसके चलते किसान सरकार की इस योजना से कन्नी काट रहे हैं. महंगी बिजली से मजदूरों, छोटे दुकानदारों और समाज के दूसरे गरीब तबकों की हालत भी खराब हो गयी है. उन्हें महंगी शिक्षा, इलाज, रिहाइश के साथ ही महंगी बिजली
खरीदनी पड़ रही है. मजदूरों की आमदनी इतनी कम है कि वे भरपेट पौष्टिक खाना भी नहीं खा सकते, महंगी बिजली कहां से खरीद सकते हैं. छोटे दुकानदारों की हालत यह है कि सामान इतना नहीं बिकता कि उस कमाई से परिवार भी चलाया जा सके, उस पर दुकान की महंगी बिजली खरीदना उनके लिए भारी पड़ रहा है. बिजली का बिल न भरने पर इन सबके कनेक्शन काटे जा रहे हैं और उनके खिलाफ प्रशासन कार्रवाई कर रहा है.

झूठ, झूठ, झूठ…

आज देश के रहनुमाओं ने ‘झूठ’ को ही अपना तारणहार बना लिया है. वे हर समय हजारों मुंह से झूठ बोलते रहते हैं. इनके झूठ के प्रभाव में कुछ ‘ज्ञानी’ किसानों-मजदूरों को ज्ञान देते हैं कि ‘अब लोग बिजली का इस्तेमाल बहुत ज्यादा करते हैं, लेकिन बिल भरने से कतराते हैं.’ यह कोरा झूठ है. दुनिया में प्रतिव्यक्ति बिजली का खर्च औसतन 2429 यूनिट सालाना है. जबकि भारत के लोग दुनिया में सबसे कम औसतन 734 यूनिट बिजली खर्च करते हैं.

भारत में भी बिहार के बाद उत्तर प्रदेश के लोग सबसे कम, औसतन 630 यूनिट सालाना, यानी महीने में 53 यूनिट से भी कम, बिजली खर्च करते हैं जबकि नामचारे की बिजली खर्च करने वाले ये गरीब मेहनतकश लोग मासिक आय के हिसाब से दुनिया में सबसे महंगी बिजली खरीदते हैं.

एक और झूठ बकायेदारों के बारे में बोला जाता है. 2017 में उत्तर प्रदेश में बिजली के बड़े बकायेदार छांटे गये थे. पता चला कि सारे सरकारी विभागों, मंत्रियों, विधायकों आदि पर बिजली विभाग का 10 हजार करोड़ रुपया बकाया था. दूसरे नम्बर पर उद्योगपति और बड़े कारोबारी थे. लेकिन प्रचारित यह किया जाता है कि किसान बिजली का बिल नहीं भरते और उनके चलते ही विभाग घाटे में चला गया है.

किसी किसान-मजदूर का दस हजार रुपये का बिजली बिल बकाया हो जाये तो उसका कनेक्शन काट दिया जाता है लेकिन जिन पर करोड़ों रुपये बकाया है, उनका बिल माफ कर दिया जाता है. हाल ही में उत्तर-प्रदेश सरकार ने बकायादारों का 65 फीसदी बिल माफ करने की योजना बनायी है.

एक आम धारणा यह बना दी गयी है कि किसान बिजली की सबसे ज्यादा चोरी करते हैं. हालांकि इस झूठ का बहुत पहले ही भंडा फूट चुका है. सन 2000 के बाद जब मध्य प्रदेश में बिजली का निजीकरण शुरू हुआ तो किसानों को बिजली चोर कहकर बिजली विभाग को घाटे में पहुंचाने का दोषी ठहराया गया. जांच-पड़ताल करने पर पता चला कि बिजली की सबसे ज्यादा चोरी उद्योगपति करते हैं.

आमतौर पर ऐसी सच्चाई को जनता तक नहीं पहुंचने दिया जाता. प्रसिद्ध जनपक्षधर लेखिका अरुंधती राय ने इसे अपने एक लेख में जाहिर किया और बताया कि मध्य प्रदेश में 70 फीसदी उद्योगपति बिजली की चोरी में लिप्त थे. उनकी चोरी से मध्य प्रदेश बिजली बोर्ड को 500 करोड़ रुपये का नुकसान होता था और यह रकम बोर्ड के कुल घाटे का 41 फीसदी थी. यह चोरी बिजली सप्लाई में होने वाले ‘लाइन लॉस’ के पर्दे के पीछे छिपायी जा रही थी.

आज उत्तर प्रदेश की स्थिति इससे अलग नहीं है. राज्य में लाइन लॉस लगभग 29 फीसदी है. कुछ जिलों में तो यह 70 फीसदी तक है. जबकि उत्तर प्रदेश के घरेलू उपभोक्ता कुल बिजली का लगभग 25 फीसदी ही खर्च करते हैं. अगर इनमें से कोई भी बिजली का बिल न भरे और अपनी जरूरत की सारी बिजली चोरी करे तब भी उतनी बिजली नहीं चुरा सकते जितना लाइन लॉस दिखाया जाता है. उद्योग कुल बिजली का 41 फीसदी खर्च करते हैं, वे कितनी बिजली चोरी करते हैं इस पर कोई बात नहीं होती. एक यूनिट बिजली चुराने
वाले पर कार्रवाई करके 1 मेगावाट चुराने वाले को छिपा लिया जाता है.

झूठ के पीछे शासकों का क्या मकसद छिपा है ?

बिजली के बारे में जो नीति पूरे देश में लागू है वही उत्तर प्रदेश में भी लागू है. बिजली बिल बढ़ाने, कनेक्शन काटने, स्मार्ट मीटर लगाने जैसे जनता पर रोजमर्रा के हमले, इसी नीति की देन हैं. सरकार की यह नीति समझे बगैर हम समस्या का सही कारण और समाधान नहीं जान सकते.

प्रचार किया जाता है कि सरकार सस्ती बिजली नहीं दे सकती, वह कर्ज में डूब जायेगी. यह कहानी सन 1992 के बाद शुरू हुई है, जब बिजली क्षेत्र के निजीकरण की शुरुआत हुई थी. सरकारी प्रचार तंत्र कर्ज का रोना रोता है लेकिन उसकी असली वजह नहीं बताता. यह सीधा सा तथ्य भी नहीं बताया जाता कि सरकारें जानबूझकर निजी
बिजली कम्पनियों से महंगी बिजली खरीदती हैं, उन्हें मोटे मुनाफे की गारण्टी देती हैं और तरह-तरह के हथकंडे अपनाकर उनके मुनाफे को ज्यादा से ज्यादा बढ़ाने की कोशिशें करती हैं.

कानूनी लूट से भी निजी बिजली कम्पनियों की हवस पूरी नहीं होती तथा वे ईंधन और उपकरणों की खरीद में फर्जीवाड़ा करके बिजली का दाम बढ़ाती हैं. कैग ने 2017 में अडानी और एस्सार समूह के बिजलीघर में इसी तरह का 600 करोड़ रुपये का फर्जीवाड़ा पकड़ा था, जिसके खिलाफ ठोस कार्रवाई करना तो दूर, यह खबर ही दबा दी गयी.

आज यह सच्चाई भी छुपा ली गयी है कि आजाद भारत की पहली सरकार ने सन 1948 में बिजली कानून बनाते समय बिजली को इनसान की बुनियादी जरूरत माना था और इसकी तिजारत से मुनाफा कमाने पर रोक लगायी थी. किसान-मजदूर को सस्ती
बिजली देने का इन्तजाम किया गया था. अमीरों, बड़े कारोबारियों, उद्योगपतियों इत्यादि के लिए बिजली थोड़ी महंगी रखी गयी थी क्योंकि वे बिजली का इस्तेमाल मुनाफे और अय्याशी के लिए करते हैं. बिजली का बड़ा हिस्सा ये मुट्ठीभर बड़े ग्राहक ही खा जाते हैं. किसानों-मजदूरों जैसे छोटे ग्राहकों को दी जाने वाली सस्ती बिजली से होने वाले घाटे की पूर्ति अमीर और बड़े ग्राहकों को थोड़ी महंगी बिजली देकर कर ली जाती थी. इसे ‘क्रॉस सब्सिडी’ का तरीका कहा जाता है.

1992 के बाद बिजली कानून में तरह-तरह के बदलाव करके अमीरों को सस्ती बिजली दी जाने लगी, नतीजतन बिजली विभाग को
घाटा होने लगा. घाटे की पूर्ति के लिए महंगी ब्याज दर पर देशी-विदेशी थैलीशाहों से कर्ज लिये गये. अगले साल कर्ज की किस्त भी घाटे में जुड़ गयी, जिसकी पूर्ति के लिए और बड़ा कर्ज लेना पड़ा. यही चक्र कई साल चलाकर बिजली विभाग को भयानक घाटे में फंसा दिया गया. जानबूझकर निजी कम्पनियों से खरीदी जाने वाली महंगी बिजली ने ‘नाश में सत्यानाश’ का काम किया और घाटा सारी सीमाएं लांघ गया. पूरे देश में यही नीति लागू की गयी तथा हर पार्टी और गठबन्धन की सरकार ने इस पर अमल किया.

बिजली विभाग के घाटे में फंसने से शासकों के मन की मुराद पूरी हो गयी. घाटे से उबारने के नाम पर उन्होंने क्रॉस सब्सिडी खत्म करने, बिजली के दाम बढ़ाने, कर्मचारियों को निकालने, विभाग के टुकड़े करने और अन्ततः इसे पूंजीपतियों को बेच देने की नीति पर खुलकर अमल करना शुरू कर दिया. अब शासक अपनी इस राह पर काफी आगे बढ़ चुके हैं. सबसे पहले बिजली तंत्र के सबसे कमाऊ हिस्सों का निजीकरण किया जा रहा है.

क्या निजीकरण से सब ठीक हो जायेगा ?

बिजली विभाग को घाटे से बचाने के लिए निजीकरण को रामबाण इलाज बताया जाता है. हालांकि, यह महाझूठ हर जगह बेपर्द हो चुका है. दुनिया के किसी भी देश में निजीकरण से बिजली विभागों का घाटा कम नहीं हुआ है बल्कि घाटा और बिजली का दाम दोनों बढ़े हैं. इस रामबाण इलाज को कुछ साल पहले आगरा जिले में
आजमाया गया. वहां की बिजली आपूर्ति एक निजी कम्पनी, टोरंटो पावर को सौंप दी गयी. घाटा कम होना तो दूर, सरकार को 4 हजार करोड़ का अतिरिक्त नुकसान हुआ.

घाटे में फंसा कोई अनाड़ी व्यापारी भी दुकान की चमक-दमक पर रुपया नहीं फूंकता. लेकिन उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बिजली विभाग के भारी घाटे का रोना भी रोता है और बिजली विभाग के आधुनिकीकरण पर 1.5 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च करने की तैयारी भी कर चुका है. वह भी तब, जबकि बिजली कानून में संशोधन करके सारे महत्वपूर्ण अधिकार केन्द्र सरकार ने हड़प लिये हैं.

बलि चढ़ाने से पहले बकरे को खिला-पिलाकर तन्द्रुस्त किया जाता है. बिजली विभाग के मामले में उत्तर प्रदेश की सरकार वही कर रही है. बिजली विभाग पर लाखों करोड़ रुपया खर्च करके उसे पूरी तरह निजी कम्पनियों के हाथों में सौंपने की तैयारी हो चुकी है. गनीमत यह है कि अपने जुझारू संघर्ष के दम पर बिजली कर्मचारी लम्बे
समय से सरकार को ऐसा करने से रोके हुए हैं. अब केन्द्र और प्रदेश की सरकारें मिलकर उनको ठिकाने लगाने का भी इन्तजाम कर चुकी है.

आपदा में अवसर

दूसरे के विनाश में अपना फायदा ढूंढ़ना, बहुत गंदा काम है लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने ‘आपदा में अवसर’ का नारा देकर इसे होशियारी के तौर पर स्थापित किया.

कोरोना काल में जब पूरे देश में त्राहि-त्राहि मची थी तब मोदी सरकार ने तीन काले कृषि कानूनों के साथ ही बिजली कानून में संशोधन विधेयक भी जनता के सर पर ला पटका था.

संशोधन का मूल मकसद देश के बिजली क्षेत्र के निजीकरण में आ रही बाधाओं को दूर करना था. अब किसी निजी कम्पनी को बिजली का धंधा शुरू करने के लिए लाइसेंस की जरूरत भी खत्म कर दी गयी है. वह बस सरकार के पास अपना नाम लिखवा दे, यही काफी है.

इसके अलावा निजी कम्पनियों को बिजली का खुदरा व्यापार करने तथा बड़े और अमीर ग्राहक छांट लेने की छूट मिल गयी है. जिन ग्राहकों को बिजली बेचकर घाटा हो सकता है, वे सरकारी कम्पनियों के हिस्से में रहेंगे. यानी बिजली के बाजार का पनीर निजी कम्पनियां खा लेंगी और पानी सरकारी कम्पनियों के हिस्से आएगा. जाहिर है कि सरकारी कम्पनियों का घाटा और बढ़ेगा. जल्दी ही वे अपनी मौत मर जायेंगी या निजी कम्पनियों की चाकर बन जायेंगी.

राज्यों के बिजली से जुड़े लगभग सारे अधिकार केन्द्र सरकार ने अपनी मुट्ठी में कर लिये हैं. निजी कम्पनियों को राज्यों और केन्द्र दोनों के, यानी बिजली के पूरे सरकारी ढांचे का इस्तेमाल करने की छूट दी गयी है. इसके बदले निजी कम्पनियों को मामूली किराया देना होगा या देने का केवल वादा करना होगा. उनका मुख्य काम केवल
ग्राहकों से पैसा वसूलना होगा.

फोन के मामले में (भी) जनता की कम्पनी बीएसएनएल के साथ ऐसा ही हुआ है. जनता के पैसे से यह कम्पनी और इसका सारा फोन का नेटवर्क खड़ा किया गया. फिर निजी कम्पनियों को सारे नेटवर्क का इस्तेमाल करने की छूट दे दी गयी. उसी के दम पर जीओ और एयरटेल जैसी कम्पनियां अकूत मुनाफा कमा रही हैं और बीएसएनएल उनकी चाकरी कर रही है.

केन्द्र सरकार द्वारा बिजली कानून में संशोधन करने के तुरन्त बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने पूर्वांचल के 21 जिलों को बिजली देने वाले पूर्वांचल डिस्कॉम के निजीकरण का फैसला किया. इस फैसले का बिजली कर्मचारियों की यूनियनों ने जबरदस्त विरोध किया, जिसके आगे योगी सरकार को झुकना पड़ा.

इससे नाराज होकर कुछ दिन बाद अमरीकी बहुराष्ट्रीय कम्पनी जनरल इलेक्ट्रिक्स और प्रसिद्ध आर्थिक अखबार इकोनॉमिक टाइम्स ने एक बैठक बुलाई. इसमें केन्द्रीय बिजली मंत्री ने योगी सरकार के कदम पीछे खींच लेने पर बहुत दुख जाहिर किया. उसने जनरल इलेक्ट्रिक्स को भरोसा दिलाया कि ‘यूनियनों ने कहा है कि वे स्थिति में सुधार करेंगी जिस पर राज्य सरकार नजर रखेगी. अगर वे तीन महीने में घाटा कम कर देते हैं, तो मैं निजीकरण नहीं करूंगा. निजीकरण कोई नीति नहीं है, यह घाटा कम करने का तरीका है.’

क्या यह सम्भव है कि सरकार किसी उपक्रम को घाटे में पहुंचाने वाली नीतियां बनायें और कर्मचारी घाटा खत्म करवा दें. जिस सरकार में जनता की सम्पत्तियां पूंजीपतियों को बेचने के लिए विनिवेश मंत्रालय बनाया गया है, उसी सरकार का मंत्री कितनी आसानी से कह देता है ‘निजीकरण कोई नीति नहीं है.’ और, संशोधन में कहा गया है कि सरकार बिजली तंत्र को बेचने से पहले उसके पूरे घाटे और तमाम देनदारियों का भुगतान करेगी. जब घाटे का भुगतान सरकार को ही करना है तो बेचने की जरूरत ही क्या है ?

यही नहीं, जो निजी कम्पनी बिजली तंत्र को खरीदेगी उसे तंत्र के मलिकाने की सारी जमीन मुफ्त दी जायेगी. इसके अलावा खरीदार निजी कम्पनी को सरकार अगले 5-7 साल तक आर्थिक सहायता के साथ अन्य सहायता भी देगी.

नये संशोधन के मुताबिक राज्य सरकारों को निजी कम्पनियों से बिजली खरीदनी ही होगी भले ही उनकी बिजली कितनी भी महंगी हो और यह भी कि सरकारी बिजली वितरण कम्पनियों को हवा और धूप से बनने वाली सबसे महंगी बिजली भी जरूर खरीदनी होगी. गौरतलब है कि मोदी का चहेता अडानी धूप और हवा से बिजली बनाने का धंधा करता है.

क्या इन संशोधनों से यह नहीं लग रहा है कि महान भारत के रहनुमा पतित होकर निजी कम्पनियों के मुनीम बन गये हैं और बिजली के विशाल तंत्र को निजी हाथों में सौंपना ही उनकी सरकारों का मकसद है ?

बिजली का विशाल तंत्र कैसे तैयार हुआ ?

निजीकरण, जो सुनने में एक अच्छा शब्द लगता है, मोटे तौर पर इसका मतलब है – जनता की साझी उत्पादक परिसम्पत्तियों को राज्य से निजी कम्पनियों के हाथों में सौंपा जाना. यानी जनता की साझी उत्पादक सम्पत्ति पर डाका डालना. उत्पादक परिसम्पत्तियों में धरती, पानी, हवा, जंगल, खदान और भेल, सेल, गेल, ओएनजीसी जैसी सार्वजनिक क्षेत्र की दर्जनों शानदार कम्पनियां तथा बिजली, रेल, सड़कें, बांध, बन्दरगाह, हवाई अड्डे जैसा बुनियादी ढांचा, इसके अलावा और भी बहुत कुछ है जिनकी फेहरिश्त काफी लम्बी है.

यह विराट बेशकीमती सम्पत्ति भारत की जनता की है, जो राज्य की जिम्मेदारी में इसलिए दी गयी थी ताकि वह उसे महफूज रखे और उससे होने वाला लाभ जनता को सौंप दे.

आजाद भारत के पहले देशी शासकों को अंग्रेज बिल्कुल खाली खजाना देकर गये थे. सारे पूंजीपतियों की कुल निजी पूंजी भी बहुत कम, बमुश्किल 500 करोड़ रुपये थी. इससे तो एक बांध भी न बनता. सरकार अमीर देशों से उधार लेती तो उनकी शर्तें माननी पड़ती, यानी आजादी गिरवी रखनी पड़ती. अन्ततः शुरुआती देशी शासकों ने देश के विकास के लिए सारी रकम जनता से वसूलने की नीति अपनायी.

बिजली का ही उदाहरण लेते हैं. भारत की आजादी के समय यहां बहुत थोड़ी, केवल 1362 मेगावाट बिजली पैदा होती थी और उसकी सप्लाई कुछ बड़े शहरों के चुनिन्दा क्षेत्रों में ही थी. आज भारत में 1.70 लाख मेगावाट बिजली पैदा होती है और लगभग हर गांव तक उसकी सप्लाई है. इसके लिए हजारों बांध, जल बिजलीघर, ताप बिजलीघर, परमाणु बिजलीघर और लाखों किलोमीटर लम्बी बिजली की लाइनें, सैंकड़ों पवार ग्रिड, हजारों छोटे-बड़े फीडर, लाखों एकड़ जमीन…, यह सब तैयार करना पड़ा.

बिजली के इस विराट ढांचे के लिए रकम भारत के मजदूरों और किसानों से वसूली गयी. वे सालों-साल दसियों तरीकों से अपनी मेहनत की कमाई इसके लिए देते रहे. क्योंकि नेहरू, पटेल, लालबहादुर जैसे नेताओं ने उन्हें बताया था कि यह रकम तुम्हारे अपने देश के निर्माण पर खर्च हो रही है, ‘सार्वजनिक क्षेत्र’ के रूप में तुम्हारी अपनी सम्पत्ति निर्मित हो रही है. तुम्हारी आने वाली पीढ़ियां इसका सुख भोगेंगी.

मेहनतकश जनता ने उन पर भरोसा किया, उसने आधा पेट खाया, लंगोटी पहनकर जिन्दगी गुजार दी. उनकी बचत से बिजली का बेशकीमती सार्वजनिक क्षेत्र तैयार हुआ. लेकिन 1985 तक आते-आते भारत के शासकों का चरित्र बदल चुका था. वे नपुंसक हो चुके थे और भारत के सामने दरपेश चुनौतियों से निपटने या अपने दम पर देश को आगे बढ़ाने की हिम्मत उनमें नहीं थी. आखिरकार, वे देश की जनता से गद्दारी करके उन्हीं बर्बर साम्राज्यवादियों के सहयोगी बनने की तैयारी करने लगे, जिन्होंने भारत को 200 साल तक गुलाम बनाकर रखा था, जिनकी एक ईस्ट इंडिया कम्पनी ने भारत के करोड़ों लोगों की जिन्दगी नरक कर दी थी. उनकी हजारों कम्पनियों के लिए भारत के दरवाज खोल देने, भारत की जनता की सारी सम्पत्ति उन्हें सौंप देने की तैयारी की जाने लगी. सोच यह थी कि जब ये दैत्याकार कम्पनियां भारत की जनता की सम्पत्ति को भकोसेंगी तो उनके मुंह से गिरी झूठन चाटकर भारत के पूंजीपतियों की कम्पनियां भी फलेंगी-फूलेंगी.

अमरीका की सरपरस्ती में एकजुट साम्राज्यवादियों का गिरोह डंकल प्रस्ताव के तहत वैश्वीकरण, उदारीकरण, निजीकरण की नीतियां लेकर चल रहा था. 1990 तक थोड़े नाज-नखरे दिखाकर भारत के शासकों ने भारत के पूंजीपति वर्ग के क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति के लिए इन नीतियों को मंजूर कर लिया.

1990 के बाद साम्राज्यवादी गिरोह अपनी डब्लूटीओ, आईएमएफ, विश्व बैंक जैसी संस्थाओं के जरिये भारत की आर्थिक नीतियां संचालित करने लगा. उनकी दैत्याकार कम्पनियों के लिए भारत के दरवाजे खुल गये. देशी-विदेशी पूंजीपतियों के बीच गठजोड़ कायम हुआ. यह भारत की एक नये तरह की गुलामी की शुरुआत थी.

यह सब समझना इसलिए जरूरी है क्योंकि इसे समझे बगैर आज के भारत को नहीं समझा जा सकता. इसी विराट विनाशकारी परियोजना के एक हिस्से के तौर पर उत्तर प्रदेश के सार्वजनिक बिजली क्षेत्र का विनाश जारी है. उत्तर प्रदेश के बिजली क्षेत्र का निजीकरण कैसे किया जाये, इसकी जांच-पड़ताल के लिए डब्लूटीओ ने 1992 में एक समिति गठित की थी जिसके अधिकारी ब्रिटेन के थे.

इस समिति ने सरकार को बिजली विभाग को कई टुकड़ों में बांटने, आधुनिकीकरण करने, पूरे राज्य में मीटर लगाने, बिजली के दाम बढ़ाने, क्रॉस सब्सिडी के जरिये जनता को मिल रही सस्ती बिजली की सुविधा खत्म करने और बिजली विभाग को निजी हाथों में सौंप देने की सिफारिश की थी. तब से उत्तर प्रदेश में जो भी सरकार आयी उसने इन सिफारिशों को पूरा करने की दिशा में ही कदम बढ़ाये. किसी ने धीरे-धीरे, किसी ने तेजी से.

अमरीका और भारत के महामहिम किसकी सेवा करते हैं ?

हमारे देश के शासकों ने किस बेशर्मी से देश पर नई गुलामी थोपी इसकी एक झलक सन 2000 में तब दिखी जब अमरीकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन भारत आया था. अपने निजी बिस्तर और पसंदीदा तकिया के साथ वह अपने मनपसन्द पूंजीपतियों का एक गैंग भी साथ लाया था. महान भारत के रहनुमा अमरीकी महामहिम की चापलूसी में लोटपोट थे. जिन-जिन शहरों में उनके चरण पड़ने थे, उनकी सड़कें साबुन से रगड़-रगड़ कर साफ की गयी थी. गरीब बस्तियों से गुजरने वाली सड़कों के किनारे हरी कनात तनवा दी गयी, शहर के गरीब मजदूरों, कंगलों, भिखारियों को उठवाकर बाहर फिंकवा दिया गया था, इत्यादि.

महामहिम क्लिंटन की यात्रा के दौरान 3 अरब डॉलर के समझौतों पर हस्ताक्षर भी हुए थे. इनमें से एक सौदे में अमरीका की एक कचरा जलाने वाली कम्पनी, ओडेन और भारत की एक कपड़ा बनाने वाली कम्पनी, एस कुमार्स को नर्मदा नदी पर श्री महेश्वर जल विद्युत परियोजना का ठेका मिला था (दोनों ने कभी पानी की एक नाली
नहीं बनायी थी) जो नर्मदा घाटी विकास परियोजना का हिस्सा थी जिसमें 3200 छोटे-बड़े बांध बनाकर नर्मदा को बन्धक बनाये गये पानी की विशाल सीढ़ी में तब्दील कर देना था, ढाई करोड़ लोगों को उनकी जमीनों से उजाड़ना था, 4000 वर्ग किलोमीटर में फैले पुराने हरे-भरे जंगल को पानी में डुबो देना था. इसके अलावा और बहुत सी
चीजों को मटियामेट कर देना था. इस विनाश का काम अभी भी चल रहा है तथा एक कचरा जलाने वाली विदेशी और एक कपड़ा बनाने वाली देशी कम्पनियां, दुनिया की नामचीन ऊर्जा कम्पनियों में शामिल हो चुकी हैं.

बिल क्लिंटन के भारत आने से पहले बिजली के क्षेत्र में अमरीका की दैत्याकार कम्पनी जनरल इलेक्ट्रिक्स का चेयरमैन जॉन वाल्च एक दिन भारतीय टीवी चैनलों पर प्रकट हुआ. उसने भारत के बिजली क्षेत्र की दुर्दशा का रोना रोया. जॉन बोला, ‘मैं हाथ जोड़कर भारत सरकार से यहां के बुनियादी ढांचे को सुधारने की गुजारिश करता हूं…जनरल इलेक्ट्रिक्स के भले के लिए नहीं, आपके अपने भले के लिए… बिजली का निजीकरण ही वह इकलौता रास्ता है, जिससे भारत डिजिटल युग में दाखिल हो सकता है… बिजली के बिना आप अगली क्रान्ति से महरूम रह जायेंगे.’

दैत्याकार अमरीकी कम्पनी के मालिक की चिन्ता से अमरीकी राष्ट्रपति इतना बेचैन हुआ कि दौड़कर भारत आया और इससे भारत के शासक इतना चिन्तित हुए कि 2003 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने नया बिजली कानून बनाकर भारत के पूरे बिजली क्षेत्र को पूंजीपतियों के हवाले करने का रास्ता साफ कर दिया. महाराष्ट्र के एनरॉन पावर प्लाण्ट के लिए टर्बाइन और अन्य उपकरण जनरल इलेक्ट्रिक्स से खरीदे गये. इस प्लाण्ट से सरकार को बीस साल तक सामान्य से डेढ़ गुना दाम पर बिजली खरीदनी थी. इसके अलावा बिजली बिके या न बिके कम्पनी को 16 फीसदी मुनाफे की
गारण्टी देनी थी.

उसके बाद से जब भी कोई अमरीकी महामहिम भारत आया, उसकी इसी तरह, बल्कि इससे भी बढ़-चढ़कर चापलूसी की गयी. उन्होंने जिसकी तरफ इशारा किया, जनता की वही सम्पत्ति देशी-विदेशी पूंजीपतियों की झोली में डाल दी गयी. उनके कुत्ते राजघाट में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की समाधि पर गन्दगी फैला देते हैं और भारत के रहनुमा क्रीत दास की तरह धीरे से मुस्कुरा देते हैं. आखिर उन्हें खुद को पक्का गुलाम साबित करना है.

लेकिन भारत के किसान-मजदूरों की ऐसी कोई मजबूरी नहीं है. उन्होंने अंग्रेजों द्वारा थोपी गयी गुलामी के खिलाफ संघर्ष किया और उन्हें देश से खदेड़ा था. देर-सबेर अमरीकी साम्राज्यवादी गिरोह और उसके भारतीय सहयोगियों के साथ भी यही होगा. इसके बिना किसानों-मजदूरों के लिए अपनी बिजली जैसी बेशकीमती उत्पादक सम्पत्तियों को वापस पाना और खुद को देशी-विदेशी पूंजीपतियों की गुलामी से मुक्त करना सम्भव नहीं है. निश्चय ही यह संघर्ष बहुत कठिन और लम्बा होगा तथा किसानों-मजदूरों की देशव्यापी एकता के दम पर ही इसमें जीत हासिल की जा सकती है.

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