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राज्यों में आर्थिक अस्थिरता की सुगबुगाहट

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पीएस वोहरा
देश के कुछ राज्यों में आर्थिक अस्थिरता की सुगबुगाहट है। हालांकि भारत की अर्थव्यवस्था तेजी से आगे बढ़ रही है और दुनिया की टॉप-5 अर्थव्यवस्थाओं में गिनी जाती है। भारत की छवि भी एक ऐसे मुल्क के रूप में बन रही है जिस पर वैश्विक घटनाओं का बहुत अधिक आर्थिक असर नहीं होता है। मगर राज्यों की माली हालत देखें तो अधिकतर ने सीमा से अधिक कर्ज ले रखा है।

चिंताजनक आंकड़े
राज्यों की माली हालत का अंदाजा कई रिपोर्टों से मिलता है।

ब्याज की मार
आखिर राज्यों की परिस्थितियां ऐसी क्यों होती जा रही हैं? यहां एक बात अचंभित करने वाली है कि तकरीबन सभी राज्यों में पावर सेक्टर से होने वाला वित्तीय घाटा बहुत अधिक है। बता दें कि वेतन, पेंशन, ब्याज और सब्सिडी राजस्व खर्चे में शामिल होते हैं, लेकिन इन खर्चों से कोई संपत्ति नहीं बनती जिससे किसी तरह की आय हो। लगातार बढ़ रहे कर्ज का ब्याज राजस्व खर्चों का एक बहुत बड़ा हिस्सा लेता जा रहा है। इसके चलते आर्थिक विकास के लिए जरूरी दूसरे आयामों जैसे कृषि, इंफ्रास्ट्रक्चर डिवेलपमेंट, शिक्षा में गुणवत्ता वगैरह पर खर्च करना मुश्किल होता जा रहा है, जो शायद भविष्य में असंभव भी हो जाए।

जीएसटी की दिक्कत
राज्यों की प्रत्यक्ष आय का स्रोत सिर्फ टैक्स हैं। जीएसटी के आने के बाद से राज्यों के टैक्स लगाने के अधिकारों में कमी हुई है। राज्यों पर दो तरह से इसके आर्थिक दुष्प्रभाव पड़ रहे हैं-

अब 15वें वित्त आयोग के चालू 3 वर्षों में हालात और खराब लग रहे हैं। वर्ष 2020 से 2022 तक औसतन ग्रॉस टैक्स कलेक्शन 41 प्रतिशत रहा है और राज्यों को मात्र 29.66 प्रतिशत ही हस्तांतरण किया गया है। निश्चित रूप से पिछले काफी वर्षों से राज्यों को तुलनात्मक रूप से कर संग्रहण में उनका हिस्सा कम मिल रहा है। इसके कारण भी उनका राजस्व घाटा बढ़ रहा है। आय का कोई दूसरा बड़ा स्रोत न होने के कारण उन्हें वित्तीय कर्जों के जाल में उलझना पड़ रहा है।

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