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लोहिया द्वारा सिखाये गए मार्ग पर चलने की विशेष जरूरत

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जब जब लोहिया बोलता है दिल्ली का तख्त डोलता है

अजय श्रीवास्तव

 डा.राममनोहर लोहिया जी की मौत 12 अक्टूबर 1959 को दिल्ली के विलिंगटन अस्पताल में इलाज में  लापरवाही के चलते हुई थी  बाद में इस अस्पताल का नाम बदलकर डा.राम मनोहर लोहिया अस्पताल कर दिया गया।मौत के कारणों की जाँच के लिए एक समिति बनी थी मगर उसकी रिपोर्ट में कुछ खास हासिल नहीं हुआ।जब केंद्र में जनतापार्टी की सरकार बनी तब भी जाँच के आदेश दिए गए थे मगर तब तक उनके इलाज की सारी फाइलें गायब कर दी गई या लापरवाही वश गायब हो गई थीं।

आज संपूर्ण राष्ट्र आजादी के आंदोलन में डा लोहिया की महती भूमिका को बडी शिद्दत से याद कर रहा है।महात्मा गाँधी और जवाहरलाल नेहरू आपकी हर बात से सहमत नहीं थे मगर वे आपके विचार को बेहद महत्वपूर्ण मानते थे।आप भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में रहकर भी नहीं थे क्योंकि आपकी सोच अलहदा थी।आप समाजवाद की नई परिभाषा गढ़ रहे थे।आप देश में समाजवादी आंदोलन के पुरोधा थे।आप कार्ल मार्क्स के द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धांत को स्वीकार करते थे किंतु आपने चेतना को अधिक महत्वपूर्ण माना।आप सामान्य उद्देश्यों तथा आर्थिक उद्देश्यों दोनों के स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकार करते थे।आपने भौतिकवाद में चेतनावाद के समावेश पर बल दिया था।

आप भारतीय राजनीति में सबसे तेजस्वी और मेघावी शख्सियतों में से एक थे।आपके विचार बिल्कुल स्पष्ट थे।मैं ये नहीं कहूँगा कि इस विचार से शासन-सत्ता बखूबी चलाई जा सकती है या नहीं,मगर आपके समाजवादी सिद्धांत थे और आप उस पर अड़िग थे।आप ऐसी दूनिया देखना चाहते थे जिसमें न कोई सीमाएं हो और न कोई बंधन।

स्वतंत्रता संग्राम सेनानी,प्रखर चिन्तक तथा खांटी समाजवादी डा.लोहिया का जन्म 23 मार्च 1910 को अम्बेडकर नगर जिले के जनपद अकबरपुर में हुआ था।आपके पिता हीरालाल पेशे से अध्यापक थे मगर पहले विशुद्ध कांग्रेसी।अध्यापन के साथ साथ वो देश में चल रहे विभिन्न आंदोलनों में अपनी सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करते थे।उनका प्रभाव इतना था कि जब भी नेहरू फैजाबाद या आसपास के इलाकों में आते थे तो वे हीरालाल के घर हीं रूकते थे।अपने घर पर हीं बालक राममनोहर का प्रथम साक्षात्कार नेहरूजी से हुआ था।उन दिनों नेहरू उनके आदर्श हुआ करते थे।ढाई वर्ष की आयु में लोहिया की माँ भगवान को प्यारी हो गईं।उनका पालन-पोषण उनकी दादी और सरयूदेई(परिवार की नाईन)ने किया।

पिता हीरालाल गाँधीजी के परम भक्त थे और वे जब गाँधीजी से मिलने जाते बालक राममनोहर को भी ले जाते।इसके कारण गाँधीजी के विराट व्यक्तित्व का उन पर गहरा असर हुआ।राममनोहर लोहिया अपने पिताजी के साथ सन् 1918 में अहमदाबाद कांग्रेस अधिवेशन में पहली बार शामिल हुए।लोहिया जी का दाखिला बंबई के प्रसिद्ध मारवाड़ी स्कूल में कराया गया।लोकमान्य गंगाधर तिलक की मृत्यु के दिन विद्यालय के लड़कों के साथ सन् 1920 में पहली अगस्त को हड़ताल की।गाँधीजी के आह्वान पर दस वर्ष की आयु में लोहिया ने स्कूल छोड़ दिया।लोहिया ने सन् 1925 में मैट्रिक की परीक्षा दी और कक्षा में 61% नंबर लाकर प्रथम स्थान हासिल किया।इंटर की पढाई लोहिया जी ने बनारस के काशी हिंदू विश्वविद्यालय से की।

उनके अंदर देश को आजाद कराने का जज्बा इतना प्रबल था कि इंटर की पढाई के दौरान हीं उन्होंने खद्दर पहनना शुरू कर दिया था।थोडे दिनों पहले हीं विदेशी कपडों के वहिष्कार और उसे जलाने के आरोप में उनके पिता हीरालाल को जेल हुई थी।सन् 1927 में आपने इंटर पास किया तथा आगे पढाई के लिए कलकत्ता जाकर ताराचंद दत्त स्ट्रीट पर स्थित पोद्दार छात्र हास्टल में रहने लगे।आपका दाखिला विद्यासागर काँलेज में हुआ।”अखिल बंग विद्यार्थी परिषद” के सम्मेलन में नेताजी सुभाषचंद्र बोस किन्हीं कारणों से न आ सके तो राममनोहर लोहिया ने हीं उसकी अध्यक्षता की थी।सन् 1928 में आप कलकत्ता में आयोजित कांग्रेस के अधिवेशन में शामिल हुए।कलकत्ता में युवकों के सम्मेलन में जवाहरलाल नेहरू अध्यक्ष, सुभाषचंद्र बोस और राममनोहर लोहिया “विषय निर्वाचन समिति” के सदस्य चुने गए।सन् 1930 में आपने स्नातक द्वितीय श्रेणी में पास कर लिया।सन् 1930 में आप उच्चशिक्षा के लिए बर्लिन(जर्मनी)गए।सन् 1932 में लोहिया ने नमक सत्याग्रह विषय पर अपना शोध प्रबंध पूरा कर बर्लिन विश्वविद्यालय से डाक्टरेट की उपाधि प्राप्त की।

पटना में 17 मई 1934 को आचार्य नरेंद्र देव की अध्यक्षता में देश के समाजवादी “अंजुमन-ए-इस्लामिया” हाँल में इकठ्ठा हुए,जहाँ समाजवादी पार्टी की स्थापना का निर्णय लिया गया।यहाँ लोहिया ने समाजवादी आंदोलन की रूपरेखा प्रस्तुत की।पार्टी के उद्देश्यों में लोहिया ने “पूर्ण स्वराज” का लक्ष्य जोड़ने का संशोधन पेश किया,जिसे अस्वीकार कर दिया गया।21-22 अक्टूबर 1934 को बंबई के वर्लि स्थित रेडिमनी टेरेस में 150 समाजवादियों ने इकट्ठा होकर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की।लोहिया राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य चुने गए।

07 जून 1940 को डा.लोहिया को 11 मई को दोस्तपुर(सुल्तानपुर)में दिए गए भाषण के कारण गिरफ्तार किया गया।उन्हें कोतवाली में इलाहाबाद के स्वराज भवन से ले जाकर हथकड़ी पहनाकर रखा गया।01 जुलाई 1940 को भारतीय सुरक्षा कानून की धारा 38 के तहत दो साल की सख्त सजा हुई।सजा सुनाने के बाद उन्हें 12 अगस्त को बरेली जेल भेज दिया गया।डा.लोहिया की गिरफ्तारी से गाँधीजी बेहद नाराज थे और प्रतिक्रिया स्वरूप उन्होंने 15 जून 1940 के हरिजन के संपादकीय में लिखा,”मैं युद्ध को गैरकानूनी मानता हूँ किंतु युद्ध के खिलाफ मेरे पास कोई योजना नहीं है।इस वास्ते मैं युद्ध से सहमत हूँ।”

25 अगस्त 1940 को एकबार फिर गाँधीजी ने हरिजन में लिखा,”लोहिया और दूसरे कांग्रेस वालों की सजाएं हिंदुस्तान को बांधने वाली जंजीर को कमजोर बनाने वाले हथौड़े के प्रहार है।सरकार कांग्रेस को सिविल-नाफरमानी आरंभ करने और आखिरी प्रहार करने के लिए प्रेरित कर रही है।जब तक डा.लोहिया जेल में हैं तब तक मैं खामोश नहीं बैठ सकता,उनसे ज्यादा बहादुर और सरल आदमी मुझे मालूम नहीं।उन्होंने हिंसा का प्रचार नहीं किया,जो कुछ किया है उनसे उनका सम्मान बढ़ता है।”

ये गाँधीजी का विरोध हीं था जिस वजह से 04 दिसंबर,1941 को डा.लोहिया जेल से रिहा कर दिये गए।सन् 1942 में इलाहाबाद में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ,जहाँ लोहिया ने खुलकर नेहरू का विरोध किया।अल्मोड़ा जिला सम्मेलन में लोहिया ने नेहरू को झट पलटने वाला नट कहा।भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान गाँधीजी व अन्य कांग्रेस के नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया तब डा.लोहिया भूमिगत होकर इस आंदोलन का नेतृत्व करने लगे।अंग्रेज लोहिया की तलाश में दिन-रात एक किये हुए थे।एक मुखबिर की सूचना पर डा.लोहिया को बंबई से गिरफ्तार कर लिया गया।गिरफ्तारी के बाद लाहौर के किले की एक अंधेरी कोठरी में रखा गया,जहाँ चौदह वर्ष पहले भगत सिंह को फांसी दी गई थी।उन्हें जेल में कडी यंत्रणा दी जाती थी।उन्हें दिन-रात बंधे हथकड़ी में रहना पड़ता था।यातना का ये आलम था कि उन्हें पंद्रह दिनों तक सोने नहीं दिया गया।

लाहौर के प्रसिद्ध वकील जीवनलाल कपूर द्वारा हैबियस कारपस की दरख्वास्त लगाने पर उन्हें तथा जयप्रकाश नारायण को “स्टेट प्रिजनर” घोषित कर दिया गया।गाँधीजी समेत सभी प्रर्दशनकारियों को समयबद्ध तरीके से छोडा गया मगर लोहिया और जयप्रकाश नारायण से सरकार बेहद सख्त थी।इसी दौरान लोहिया के पिताजी की मृत्यु हो गई और सरकार ने पेरोल पर छोड़ने का फैसला किया।हठी लोहिया ने पेरोल से छूटने पर मना कर दिया।आखिरकार 11 अप्रैल,1946 को डा.लोहिया और जेपी की रिहाई सुनिश्चित हुई।

आजादी के बाद डा.लोहिया गैर-कांग्रेसवाद के शिल्पी बने या इसे यूँ कह लें कि उन्होंने नेहरू विरोध का झंडा बुलंद कर दिया था।

गौरतलब है कि डा.लोहिया और जयप्रकाश नारायण दोनों समाजवादी विचारधारा के थे मगर दोनों के बीच अहम का टकराव था।सन् 1962 के चीन युद्ध में बुरी तरह पराजय के बाद कांग्रेस की नैय्या डावांडोल हो गई थी।उस समय आम जनमानस में कांग्रेस के प्रति भारी रोष था।डा.लोहिया और जेपी एक होकर मोर्चा संभाल लेते तो कांग्रेस सरकार मुश्किल में आ जाती,ये तो तय था।लोहिया के उलट जेपी बहुत मृदभाषी और संयमित थे।वे इस अवसर का राजनीतिक फायदा नहीं उठाना चाहते थे,इस वजह से वे उस समय न्यूट्रल रहे।

डा.लोहिया महत्वाकांक्षी थे और वे केंद्र में गैर कांग्रेसी शासन चाहते थे।नेहरू की आलोचना उनका प्रमुख कार्य बन गया था।सन् 1962 के लोकसभा चुनाव में वो फूलपुर से नेहरू के विरुद्ध खडे हो गए।उन्होंने कहा मैं जानता हूँ कि मैं चुनाव हार जाऊंगा मगर मैं नेहरूजी के एकाधिकार पर चोट अवश्य करूंगा।दिन भर नेहरूजी की आलोचना करने के बाद हर दूसरे दिन नेहरूजी के साथ चाय पीने इलाहाबाद के आनंद भवन पहुंच जाते थे।नेहरूजी कभी भी उनकी बात का बुरा नहीं मानते और न हीं उनके बयान पर प्रतिक्रिया देते।चुनाव में लोहिया की बुरी तरह हार हुई मगर उसी शाम उन्हें नेहरू के साथ चाय पीते देखा गया था।

सन् 1963 में हुए उप-चुनाव में वे फरूखाबाद से जीत हासिल कर लोकसभा में पहुंचे और वहाँ अपने तर्कों से नेहरू जी और उनके मंत्रिमंडल के सहयोगियों के नाक में दम कर रखा था।डा.लोहिया प्रधानमंत्री नेहरू पर ये आरोप लगाते थे कि भारत की गरीब जनता तीन आने पर गुजर बसर करता है,जबकि प्रधानमंत्री पर रोजाना 25,000 रू खर्च होते हैं।ये लोहिया हीं थे जिन्होंने नेहरू की लाड़ली बेटी इंदिरा को “गूंगी गुड़िया” कहा।एक बार संसद में बस्तर में सामूहिक दुष्कर्म की घटना पर बहस हो रही थी और नेहरू किसी कारण सदन छोड़कर चले गए।दूसरे दिन संसद परिसर में लोहिया ने इंदिरा को चिकोटी काट ली।इंदिरा ने इस बात की शिकायत अपने पिता से की।इस पर नेहरू ने लोहिया से नाराजगी जताई तो लोहिया ने पलटकर कहा,”आपकी बेटी को दर्द हुआ तो फौरन बोल पड़े,कल जब बस्तर की बेटी के साथ दुष्कर्म पर बात हो रही थी तो आप संसद छोड़कर क्यों चले गए थे?नेहरू असंतुष्टि से मुँह हिलाते हुए चले गए।

पाकिस्तान ने जब अक्साई चीन को चीन के हाथों सौंपे दिया तो भारत मे जबरदस्त प्रतिक्रिया हुई।भारत अक्साई चीन को अपना ऐरिया मानता था।संसद में बोलते हुए नेहरू ने कहा,”अक्साई चीन एक बंजर इलाका है,वहाँ कुछ नहीं उगता”।इस पर लोहिया ने खड़े होकर कहा,”आप भी तो गंजे हैं,आपके सर पर बाल नहीं उगता,तो क्या इसे काट दिया जाए?नेहरू मौन बैठे रहे और कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।

एक बार एक बुढ़ी औरत को लोहिया जी ने कुछ सिखा पढ़ाकर नेहरू जी के पास भेजा।नेहरू जी जब कार से उतर रहे थे तब वह बुढिया ने नेहरू जी का गिरेबान पकड़ लिया और कहा कि भारत आजाद हो गया,तुम देश के प्रधानमंत्री बन गए,मुझ बुढ़िया को क्या मिला?इस पर नेहरू का जवाब था “आपको ये मिला है कि आप देश के प्रधानमंत्री का गिरेबान पकड़ कर खड़ी हैं।”

लोहिया को नेहरू से व्यक्तिगत चिढ़ थी,हलांकि वे कहा करते थे कि उनकी नेहरू से व्यक्तिगत कोई टकराव नहीं है।नेहरू जी की बीमारी पर लोहिया ने कहा था कि “बीमार देश के बीमार प्रधानमंत्री को इस्तीफा दे देना चाहिए।”औरतों के अधिकार के हिमायती लोहिया जीवनभर रमा मित्रा के साथ “लिव इन रिलेशनशिप” में रहे।रमा मित्रा दिल्ली की प्रतिष्ठित मिरिंडा हाउस में प्रोफेसर थीं।लोहिया ने अपने संबंधों को कभी छुपाकर नहीं रखा।उन दिनों जब लोग व्यक्तिगत जिंदगी के बारे में सवाल नहीं पुछते थे,लिव इन में रहना बहुत बड़ी बात थी।लोहिया जी की बहुत सी महिला मित्र थीं,जिससे रमा मित्रा को कभी परेशानी नहीं हुई।लोहिया कितने बिंदास और बेबाक थे ये इस उदाहरण से समझा जा सकता है।हुआ यूँ कि एक बार तारकेश्वर सिन्हा ने उनसे कहा कि आप महिलाओं और उनके अधिकारों के बारे में काफी बात करते हैं लेकिन आपने तो शादी नहीं की।हाजिरजवाब लोहिया ने तत्काल जवाब दिया भई तुमने तो मौका हीं नहीं दिया।भारतीय परिवेश में इन दिनों भी किसी महिला से इस तरह की बात कहना बहुत बडी बात है,वो तो अलग दौर था।

एक बार दिल्ली के एक रेस्तरां में लोहिया और मकबूल फिदा हुसैन का आमना-सामना हो गया।बातें होने लगी तो एकाएक लोहिया बोलते हैं कि ये जो तुम बिरला और टाटा के ड्राइंगरूम में लटकने वाली तस्वीरों से घिरे हो,उससे बाहर निकलो और रामायण के चित्रों को पेंट करो।मकबूल साहब को उस समय जवाब देने के लिए कोई उत्तर नहीं सुझा था।

उनकी मौत भी कम विवादास्पद नहीं रही।उनकी प्रोस्टेटग्रंथि बढ़ गई थी।आँपरेशन के लिए वे दिल्ली के सरकारी विलिंगटन अस्पताल में भर्ती हुए।उनके मौत से पहले उनसे मिलने वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर विलिंगटन अस्पताल गए थे।वे अपनी आँटो बायोग्राफी “बियांड द लाइन्स” में लिखते हैं कि “मैं राममनोहर लोहिया से अस्पताल में मिलने गया था।उन्होंने मुझसे कहा कुलदीप मैं इन डाक्टरों के चलते मर रहा हूँ।डाक्टरों ने उनकी बीमारी का गलत इलाज कर दिया।”

12 अक्टूबर,1967 को बिंदास और बेबाक लोहिया इस नश्वर शरीर को छोड़कर अनंत में विलीन हो गए मगर उनकी बातें किताबों के माध्यम से आज भी लोगों के जेहन में जिंदा है।

आज बहुत से लोग और पार्टियां समाजवाद के नाम पे उनकी विरासत को हथियाना चाहते हैं मगर उनकी कथनी और करनी में भारी विरोधाभास है।समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव दावा करते हैं कि उनका हीं दल समाजवादी विचारधारा को जिंदा रखा हुआ है।मुलायम सिंह शायद यह भूल गए कि अब समाजवादी पार्टी पूंजीवादी और भाई-भतीजे वाली पार्टी बन गई है।लालूप्रसाद यादव भी अक्सर ताल ठोकते हैं कि उनकी पार्टी समाजवाद के सिद्धांतों पर चलती है।आर्थिक भष्टाचार के कारण जेल की सजा काट रहे लालू यादव कौन से समाजवाद की अलख जगा रहें हैं ये सोचने वाली बात है।लोहिया के बाद बहुत हद तक जार्ज फर्नांडिस और जनेश्वर मिश्र ने उनके पद-चिन्हों पर चलने की थोडी बहुत कोशिश की,जिसमें वो कुछ हद तक सफल भी रहे थे।लोहिया एक संपूर्ण विचारधारा थे,उनकी सोच एक आम आदमी की बुनियादी जरूरतों पर थी।

आज जब समाजवादी विचारधारा,वामपंथी विचारधारा की तरह अपने अंतिम दिन गिन रहा है,हमें लोहिया द्वारा सिखाये गए मार्ग पर चलने की विशेष जरूरत है।केवल पूंजीवादी व्यवस्था से देश आगे नहीं बढ़ सकता।देश की जनता स्वतंत्रता आंदोलन के इस बिंदास सिपाही को भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करती हैं।

अजय श्रीवास्तव

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