अग्नि आलोक

किसानी समस्याओं को ठीक से समझने के प्रति राज्य-व्यवस्था कभी गंभीर नहीं रही 

Share

प्रफुल्ल कोलख्यान 

यह मान लेना चाहिए कि किसानी की समस्याओं को ठीक से समझने के प्रति हमारी राज्य-व्यवस्था कभी गंभीर नहीं रही है। सच पूछा जाये तो, किसानी की समस्याएं पूरी ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था से जुड़ी हैं। केंद्र और परिधि के संबंधों को भी समझना होगा। ऐतिहासिक कारणों से सभ्यता के इस चरण के केंद्र में ‘नगर’ हैं; अंगरेजी में ‘Citizen’, हिंदी में ‘नागरिक’ उर्दू में ‘शहरी’ एवं अन्य भाषाओं के समानार्थी शब्दों पर गौर किया जा सकता है।

केंद्र में नगर की और परिधि पर ग्राम की गतिविधियां चलती रहती हैं। केंद्र और परिधि के संबंधों की बहु-स्तरीयता में निहित प्रवृत्ति और पहचान की प्रक्रिया पर भी गौर करना उचित है। केंद्र अधिक संगठित होने के कारण शक्ति-पीठ होता है। परिधि में बिखराव की स्थिति होती है। कच्चा या अपरिषकृत परिधि के केंद्र की ओर तथा उसके परिष्कृत का परिधि की तरफ लौटने की स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है।

कुछ दिन पहले तक गांव से पढ़-लिखकर लोग शहर, किसी-न-किसी तरह के रोजगार के लिए या छात्र पढ़ने-लिखने के लिए जाते थे। शहर से मनीऑर्डर या धनादेश के माध्यम से गांव में ‘रौनक’ आती थी; लोगों की हैसियत का ‘कच्चा चिट्ठा’ डाक बाबू के पास होता था! गांव से लोग शहर जाकर पढ़ने-लिखने और रोजी-रोटी कमाने का भरोसा रखते थे। शहर में गाँव से किसानी उपज की वस्तुओं और विभिन्न सेवाओं (Goods & Services) तथा शहर से प्रगति और समृद्धि (Progressivity  & Prosperity) में आवक-जावक संतुलन बना रहता था।

गांवों से शहरों में ग्रामीण मूल्य संवेदना और शहरों से गांवों में प्रगतिशील सामाजिक चेतना के बहु-सांस्कृतिक सद्भाव का सतत प्रवाह-चक्र लगभग 1980 के आस-पास तक बना रहा। शहर में बसा आदमी जब गांव जाता था तो उसके माथे पर मोटरी होती थी। मोटरी में आसानी से गांव के बाजार में न मिलनेवाली सामग्री, जैसे बिस्कुट-चॉकलेट, साबून-सर्फ, कपड़ा-लत्ता, खिलौना आदि भरी होती थी, न सिर्फ अपने खास परिजनों के लिए बल्कि आस-पास की दादी-चाची के लिए भी। शहर में रह रहे साथी की दी हुई कोई-न-कोई मोटरी भी तो होती ही थी!

1980 के बाद यह सब बंद होता चला गया, 1990 के दशक में उदारीकरण-निजीकरण-भूमंडलीकरण (उनिभू) की नई विश्व-व्यवस्था और ‘उदार अर्थनीति’ से उत्पन्न  पारिस्थितिक असंतुलन से ऐसा उथल-पुथल मचा कि सारा परिदृश्य ही अजनबियत से भरता चला गया।  संकेत में इतना कहने की जरूरत है कि देश की आबादी के एक हिस्से का यही हाल विदेश में जाकर पैसा ‘कमानेवालों’ का रहा है।    

मुख्य बात यह है कि मनीऑर्डर या धनादेश का प्रवाह कमजोर पड़ने लगा। आय में अपने अर्जन के स्थान पर खपत की प्रवृत्ति कैसी होती है, उसका समाज-आर्थिक असर कैसा होता है इस पर कोई समाज-अर्थशास्त्री ही बता सकता है, यहाँ तो प्रसंगवश सिर्फ संकेत है। रहने और बसने में अंतर होता है। शहर में रहनेवाली ग्रामीण आबादी के अंदर शहर में बसने की प्रवृत्ति बढ़ने लगी, मियां-बीवी-बच्चा के ससीम सपने के सच होने का अवसर सामने था! गंगा मैया को पियरी चढ़ाने का समय आ गया; संदर्भ 1963 में बनी भोजपुरी भाषा की पहली फिल्म “गंगा मैया तोहें पियरी चढैबो”।

गांवों और शहरों के बीच प्रगतिशील सामाजिक चेतना के बहु-सांस्कृतिक सद्भाव और आर्थिक प्रभाव का सतत प्रवाह-चक्र कई कारणों से टूटन का शिकार हुआ। इनमें से एक कारण था, संयुक्त परिवारों में संयुक्ति कारकों का कमजोर पड़ते जाना और शहरी सुविधाओं एवं अन्यमुक्तताओं के अवसर के आकर्षण का बढ़ता जाना। इधर आकर, शहरों में नवागंतुक ग्रामीण आबादी के लिए जगह कम पड़ने लगी। पहले गांव से शहर लौटते समय एक के साथ और आश्रय में, चार लटके चले आते थे। उन्हें कहीं-न-कहीं, कोई-न-कोई काम-धाम मिल जाया करता था। अब ‘कहीं-न-कहीं, कोई-न-कोई काम-धाम मिल जाने’ का अवसर बहुत सीमित हो गया और शहर में बस गये परिजनों में भी ‘स्वागत का भाव’ स्वाभाविक रूप से कम होते-होते समाप्तप्राय हो गया।  

शहर में बसे ग्रामीण लोग जब हरी-मरी में गांव जाने को विवश होने पर, धीरे-धीरे नये दुरावों का एहसास जरूर होने लगा। कहने का आशय यह है कि धीरे-धीरे गांव और शहर के बीच के बहु-सांस्कृतिक सद्भाव के सतत प्रवाह-चक्र में भँवर बनने लगा। गांव की बेपटरी होती आर्थिक स्थिति को महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार अधिनियम (MNREGA) ने कितना बड़ा सहारा दिया, ये तो वही लोग जानते हैं जो इस नियम से प्राप्त आधिकारिकता (Entitlement) के सीधे और प्रासंगिक हित-ग्राही हैं।

शहर में बसी गरीब ग्रामीण आबादी की स्थिति बहुत ठीक तो नहीं थी, लेकिन किसी तरह से इस खराब स्थिति पर ‘इज्जत का पर्दा’ झूल रहा था। वैश्विक महामारी कोविड-2019 जान-मारा तो था ही, उसने ‘इज्जत का पर्दा’ भी उतार दिया। बहुत बड़ी आबादी शहरों से निकली तो सवारी न मिलने पर पैदल ही सही, कहां के लिए निकली? शहर में बसे गरीब ग्रामीण लोग आस-पास के नहीं, सैकड़ों-हजारों मील दूर अपने-अपने गांवों की ओर चल पड़े।

पहले से गांव में बसे रह गये परेशान परिजनों के बीच दुराव का जो भी एहसास हुआ हो, सहारा तो वहीं मिला! आज जैसे आंदोलनकारी किसानों को दिल्ली घुसने से रोकने के लिए सीमाओं पर तरह-तरह के अवरोध खड़े किये गये हैं, उतने कड़े तो नहीं, लेकिन विभिन्न राज्य की सीमाओं पर परेशानी में डालनेवाले अवरोध जरूर खड़े किये गये थे। कहने का भाव यह है कि आबादी के ‘हिंदु-मुसलमान’ के बीच प्रत्यक्ष ‘विभाजकताओं’ के साथ ही अप्रत्यक्ष बहुसंदर्भी विभाजनकारी प्रवृत्ति और नीति भी सक्रिय हो गई है।  

इस अप्रत्यक्ष बहुसंदर्भी विभाजनकारी प्रवृत्ति और नीति पर ध्यान देना जरूरी है। आम नागरिकों को विभिन्न हित-समूहों में बाँटकर एक समूह को दूसरे के सामने और विरुद्ध ‘अन्य बनाकर’ ला खड़ा करने की कोशिश जारी है। कई बार तो लगता है, मुख्य-धारा की मीडिया के दक्ष संवाददाता इस प्रवृत्ति और नीति के खतरों का खयाल पेशागत हड़बड़ी के चलते नहीं रख पाते हैं।

उदाहरण के लिए-किसान आंदोलन की तत्क्षण प्रेषण (लाइव रिपोर्टिंग) करते समय ‘काम पर जा रहे’ पथचारी से उन्हें ‘काम पर जाने में’ पेश होनेवाली दिक्कतों के मुतल्लिक सवाल करते हैं। जाहिर है पथ बाधा की दिक्कतों से परेशान आदमी ऐसा कुछ, कह ही देता है जो होता तो है, पथ बाधा को लेकर, लेकिन ‘उसका कहा हुआ’ आंदोलन के विरोध नहीं भी तो, उसके प्रति अन्यमनस्कता से सफलतापूर्वक जुड़ जाता है या जोड़ दिया जाता है। इस तरह विभिन्न हित-समूह एक दूसरे के हित-बोध के प्रति सहमी सहानुभूति और आंदोलनों के प्रति मानसिक विच्छिन्नता में पड़ जाते हैं।

तत्क्षण प्रेषण (लाइव रिपोर्टिंग) की समस्याओं में एक है-दक्ष संवाददाता के मन में जो तत्काल कौंध जाता है, ऐतिहासिक संदर्भों से लापरवाह उसी कौंध को कंधा उचकाते हुए अपना ‘नरेशन’ बनाकर पेश करता जाता है। डेस्क पर बैठे संचालकों की नजर इस पर नहीं ठहरती है! ‘नरेशन’ की विश्वसनीयता बहाल रखने के लिए डेस्क पर बैठे संचालकों की तरफ से कोई ‘रोक-टोक’, कथाक्ष, कटाक्ष या कथक्षेप (Verbal Interposition) इस में नहीं होता है।

उदाहरण के लिए, अभी सोनिया गांधी ने राजस्थान से राज्य सभा की सदस्यता के लिए अपना नामांकन भरा है। मुख्य-धारा के चैनल की एक तत्क्षण प्रेषण (लाइव रिपोर्टिंग) करती हुई दक्ष संवाददाता ने जो बताया उसका आशय है कि वे इसलिए प्रधानमंत्री नहीं बनीं कि उनके मन में कहीं-न-कहीं पूरे भारत में लोगों के बीच अपनी स्वीकृति को लेकर आश्वस्ति नहीं थी।

एक प्रतिष्ठित और विश्वसनीय पत्रकार ने अंग्रेजी में लिखी अपनी शोधपरक पुस्तक में दर्ज किया है कि सोनिया गांधी, अपने पुत्र राहुल गांधी की घनघोर असहमति और पुरजोर विरोध के कारण पीछे हट गई थीं। अगर उन्हें सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री नहीं बनने की घटना की चर्चा करनी ही थी, और इस मुतल्लिक कोई अन्य जानकारी थी तो, खंडित करने के लिए ही सही राहुल गांधी का संदर्भ जरूर लेना चाहिए था। नहीं लिया उनकी मर्जी! लेकिन कम-से-कम इसे, उनकी लापरवाही, तो जरूर ही मानी जायेगी। कहने की जरूरत नहीं है कि इस समय विपक्ष की स्थिति और राहुल गांधी के भारत जोड़ो न्याय यात्रा पर होने के कारण इन संदर्भों का कुछ अतिरिक्त महत्त्व तो अवश्य है।

इस परिप्रेक्ष्य में किसानों के संघर्षों और किसान आंदोलन को समझना और न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) के निर्धारण के लिए एम एस स्वामीनाथन के प्रस्ताव पर बात जरूरी है। न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) पर फसलों के जितने भी हिस्से की खरीदी (Procurements) होती हो उसका सकारात्मक प्रभाव गैर-सरकारी खरीद यानी खुले बाजार पर भी जरूर पड़ता है। जिस तरह से महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार अधिनियम (MNREGA) में दी जानेवाली मजदूरी का असर ग्रामीण श्रम-दर पर भी पड़ता है। न्यूनतम मजदूरी का मनरेगा की मजदूरी दर से संबंध स्वयं स्थापित हो जाता है। उचित तरीके से न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) का कृषि उपज की दर का बाजार दर पर और महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार अधिनियम (MNREGA) का न्यूनतम मजदूरी से संबंध के उत्प्रेरक महत्त्व को ध्यान में रखना जरूरी है।

एक बात यह भी कही जाती है कि एम एस स्वामीनाथन के प्रस्ताव पर न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) मान लेने पर किसानों के द्वारा किये गये सीधे एवं वास्तविक खर्च, परिवार के लोगों के द्वारा किया गया पारिवारिक श्रम, खेती के काम में लगाई गई पूंजी का व्याज और अपनी जमीन के भाड़े को जोड़कर बननेवाली कुल राशि का ड्योढ़ा से कीमत में ‘असहनीय’ बढ़ोत्तरी हो जायेगी; ऐसा ही वर्धित वेतनमान के लागू होने पर होता है।

स्वाभाविक रूप से आम नागरिक चिंतित हैं, C2+50% के लागू होने से ‘उपभोक्ताओं पर दबाव’ बहुत बढ़ जायेगा। बात में दम है। लेकिन इस दमदार बात को समझने की भी कोशिश क्यों न की जाये!

पारिवारिक श्रम को लागत में जोड़ने पर किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। यह छोटे किसानों पर अधिक लागू होता है जो आजीविका के लिए किसानी से जुड़ा होता है। सपरिवार खेत में रात-दिन लगा रहता है। पारिवारिक श्रम का मुआवजा, मजदूरी न मिले तो खेती के काम में वह और उसका परिवार लगा ही क्यों रहे? वैसे भी लड़खड़ाते हुए किसान, मजदूर बनने के लिए पूरे देश में सूखे पत्ते की तरह इधर-उधर खड़खड़ा रहे हैं! फिर, भूमि-श्रमिक अनुपात (Land Laborer Ratio – LBR) के बिगड़ते संतुलन के समाज-आर्थिक असर पर गौर किया जा सकता है।

खेती में किये गये वास्तविक खर्च को जोड़े जाने पर तो किसी को कोई आपत्ति हो ही नहीं सकती है। खेती के काम में लगनेवाले जरूरी उपकरण और सामग्री की कीमत पर किसान का तो कोई वश नहीं चलता! इसे सरकार की अर्थ और कृषि नीति में सुधार और संतुलन से नियमित, नियंत्रितकर कम किया जा सकता है। इस से ‘उपभोक्ताओं पर कीमत का दबाव’ कुछ तो कम होगा, नहीं क्या?

खेती में प्रयुक्त जमीन का भाड़ा देने में दिक्कतों की बात समझ में आती है। किसान को तो खुद भू-राजस्व या मालगुजारी सरकार को देना पड़ता है। यहाँ कानूनी पेच हो तो ‘किसानी भत्ता’ जैसी कोई व्यवस्था की जा सकती है। कहने का आशय यह है कि सरकार चाहे तो ‘उपभोक्ताओं पर कीमत का दबाव’ कम करने के पचास उपाय कर सकती है।

लेकिन सरकार पर तो कॉर्पोरेट का कब्जा है। बचे हुए को-ऑपरेटरों (सहकारिता से जुड़े) के मन में भी कॉर्पोरेटर बनने की ललक बो दी गई है। को-ऑपरेटर के कॉरपोरेटर में बदलने की ललक में छिपी त्रासदी पर गौर कीजिये! पिछले आंदोलन में एक बात किसानों ने जोर देकर कही थी जिसका आशय था, कौर पर कौआ को बैठने नहीं दिया जायेगा।  

धनधारी कॉर्पोरेट की धन-हवस की कोई सीमा नहीं है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में सतरु (सत्ता-रूढ़ दल) की सत्ता-हवस की भी कोई सीमा नहीं है। इस सीमाहीन हवस के वशीभूत सरकार और कॉरपोरेटरों के बीच मिली-भगत है। हवस और भी कई हैं। लेकिन इन ‘सीमाहीन हवसों’ की मिली-भगत का इलाज लोकतांत्रिक व्यवस्था की मतपेटी में है। फिर कहूं! लोकतांत्रिक व्यवस्था में राजनीतिक सत्ता-हवस और कॉरपोरेट धन-हवस की मिली-भगत का इलाज मतपेटी में है।मतपेटी से अगर मिली-भगत का इलाज संभव न हुआ तो विविध संदर्भों के आंदोलनों के भी बेकाबू और सीमाहीन होते जाने का खतरा बढ़ता ही जायेगा। इसके आगे फिर क्या होगा, यह जगजाहिर तो है, लेकिन  कहना मुश्किल है।

एक बात आजादी के आंदोलन को याद करते हुए, ‘चौरीचौरा’ में हिंसा के कुछ हफ्तों बाद, 10 मार्च 1922 को अहमदाबाद में अपनी गिरफ्तारी और 13 मार्च 1922 को अदालत में पेशी पर महात्मा गांधी ने अपना व्यवसाय बताया — “किसान और बुनकर”। महात्मा गांधी झूठ नहीं बोलते थे। मो. क. गांधी, आजादी की लड़ाई के दौरान महात्मा गांधी हो गये क्योंकि वे नेता की तरह नहीं, किसान और बुनकर की हैसियत से उस लड़ाई में शामिल थे। ध्यान रहे, किसान बोना जानता है और बुनकर बुनना जानता है।

सामने 2024 का आम चुनाव है। भारत में “किसान और बुनकर” चुनाव नहीं लड़ता, राजनीतिक नेता लड़ते हैं। राजनीतिक नेताओं में टिकट की मारा-मारी मची हुई है, इस माहौल में, ‘भारत दुर्दशा’ में ‘सबके ऊपर टिक्कस की आफत आई। हा हा! भारतदुर्दशा न देखी जाई।।’ लिखनेवाले भारतेंदु हरिश्चंद्र के प्रसिद्ध नाटक, “अंधेर नगरी चौपट राजा” मिले तो उसको जरूर पूरा पढ़िये। न मिले तो कम-से-कम यह अंश पढ़िये, साभार-

“गुरु. : अरे बच्चा गोबर्धन दास! तेरी यह क्या दशा है?

गोबर्धन दास : (गुरु को हाथ जोड़कर) गुरु जी! दीवार के नीचे बकरी दब गई, सो इस के लिये मुझे फाँसी देते है, गुरु जी बचाओ।

गुरु. : अरे बच्चा! मैंने तो पहिले ही कहा था कि ऐसे नगर में रहना ठीक नहीं, तैंने मेरा कहना नहीं सुना।

गोबर्धन दास : मैंने आप का कहा नहीं माना, उसी का यह फल मिला। आप के सिवा अब ऐसा कोई नहीं है जो रक्षा करै। मैं आप ही का हूँ, आप के सिवा और कोई नहीं (पैर पकड़ कर रोता है)।

महंत : कोई चिन्ता नहीं, नारायण सब समर्थ है। (भौं चढ़ाकर सिपाहियों से) सुनो, मुझ को अपने शिष्य को अंतिम उपदेश देने दो, तुम लोग तनिक किनारे हो जाओ, देखो मेरा कहना न मानोगे तो तुम्हारा भला न होगा।

सिपाही : नहीं महाराज, हम लोग हट जाते हैं। आप बेशक उपदेश कीजिए।

(सिपाही हट जाते हैं। गुरु जी चेले के कान में कुछ समझाते हैं)

गोबर्धन दास : (प्रगट) तब तो गुरु जी हम अभी फाँसी चढ़ेंगे।

महंत : नहीं बच्चा, मुझको चढ़ने दे।

गोबर्धन दास : नहीं गुरु जी, हम फांसी पड़ेंगे।

महंत : नहीं बच्चा हम। इतना समझाया नहीं मानता, हम बूढ़े भए, हमको जाने दे।

गोबर्धन दास : स्वर्ग जाने में बूढ़ा जवान क्या? आप तो सिद्ध हो, आपको गति अगति से क्या? मैं फांसी चढूंगा। (इसी प्रकार दोनों हुज्जत करते हैं-सिपाही लोग परस्पर चकित होते हैं)

1 सिपाही : भाई! यह क्या माजरा है, कुछ समझ में नहीं पड़ता।

2 सिपाही : हम भी नहीं समझ सकते हैं कि यह कैसा गबड़ा है।

(राजा, मंत्री कोतवाल आते हैं)

राजा : यह क्या गोलमाल है?

1 सिपाही : महाराज! चेला कहता है मैं फाँसी पड़ूंगा, गुरु कहता है मैं पड़ूंगा; कुछ मालूम नहीं पड़ता कि क्या बात है?

राजा : (गुरु से) बाबा जी! बोलो। काहे को आप फाँसी चढ़ते हैं?

महंत : राजा! इस समय ऐसा साइत है कि जो मरेगा सीधा बैकुंठ जाएगा।

मंत्री : तब तो हमी फाँसी चढ़ेंगे।

गोबर्धन दास : हम हम। हम को तो हुकुम है।

कोतवाल : हम लटकैंगे। हमारे सबब तो दीवार गिरी।

राजा : चुप रहो, सब लोग, राजा के आछत और कौन बैकुण्ठ जा सकता है। हमको फांसी चढ़ाओ, जल्दी।

महंत : जहाँ न धर्म न बुद्धि नहिं, नीति न सुजन समाज। ते ऐसहि आपुहि नसे, जैसे चौपटराज॥

(राजा को लोग टिकठी पर खड़ा करते हैं)(पटाक्षेप)”

Exit mobile version