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सूक्ष्मशरीर औऱ मनुष्य की आंतरिक शक्तियाँ 

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 डॉ. विकास मानव

     _प्रयोजनहीन होने पर प्रकृति पुरुष से विरत हो जाती है। पुरुष अकेला रह जाता है। इसी स्थितिविशेष् को “कैवल्यप्राप्ति” कहते हैं. पुरुष शब्द का अर्थ यहां नर-नारी दोनो है._

     प्रकृति-पुरुष का सम्बन्ध एक स्वाभाविक सम्बन्ध है, नैसर्गिक सम्बन्ध है। प्रकृति  अपने आप से पुरुष को मुक्त करने के लिए हमेशा सचेष्ट रहती है।

         मुक्ति एक जन्म के प्रयत्न से नहीं मिलती। इसीलिये अपने प्रभुत्व के बल से, न् कि बुद्धि से, भावों की सहायता से प्रकृति एक शरीर को त्यागकर अन्यान्य शरीर धारण करती रहती है। अन्यान्य शरीर धारण करने के पीछे प्रकृति का एकमात्र लक्ष्य रहता है–पुरुष को अपने बन्धन से मुक्त करना। इसीलिये ‘सांख्य दर्शन’ ने एक शरीर को त्यागकर अन्य शरीर में जाने के लिए स्थूलशरीर के अन्दर एक सूक्ष्मशरीर की सत्ता स्वीकार की है।

     यह सूक्ष्मशरीर 18 तत्वों से निर्मित है। ये तत्व हैं : महत्, अहंकार, 11 इंद्रियां और 5 तन्मात्राएँ।

सांख्य दर्शन मानता है कि सृष्टि के आदि काल से प्रत्येक व्यक्ति के लिए एक सूक्ष्मशरीर उत्पन्न होता है। सूक्ष्मशरीर धारण करते ही विशुध्द आत्मा में विकार उत्पन्न हो जाता है और वह विशुद्ध आत्मा से ‘जीवात्मा’ पद वाच्य हो जाता है।

     सूक्ष्मशरीर कभी भी किसी स्थूल शरीर में आसक्त नहीं होता। उसमें स्वतंत्र रूप से कोई भोग भी नही होता। बुद्धि के आठों भाव इसी में रहते हैं। इसकी गति विलक्षण रहती है। कोई उसे रोक नहीं सकता।

      स्थूलशरीर के बिना वह रह नहीं सकता। पुरुष के भोग के लिए सूक्ष्मशरीर नाना प्रकार के शरीर धारण करता है।

     प्रकृति-पुरुष के निज स्वरूप के बोध का आधार है–एकमात्र ‘ज्ञान’। ज्ञान के द्वारा अविद्या का नाश होने पर एक प्रकार से प्रकृति और पुरुष अपने-अपने निज शरीरों को पहचान लेते हैं। जिस ज्ञान से ‘स्वरूप-बोध’ होता है, उसी ज्ञान से विवेकबुद्धि की उत्पत्ति होती है जिसको प्राप्त करके पुरुष अपने स्वरूप को पहचान लेता है और अपने आप को निर्लिप्त, निस्संग और त्रिगुणातीत समझने लगता है।

          प्रकृति उससे अलग हो जाती है। फिर पथ पर आगे अग्रसर होता है विवेक। विवेकबुद्धि के उदय होने के साथ ही बुद्धि के सात भाव स्वतः ही नष्ट हो जाते हैं। केवल “ज्ञान” जो प्रथम भाव है, रह जाता है शेष। इस अवस्था विशेष् में प्रकृति का कोई काम नहीं रह जाता है, प्रयोजन भी नहीं रह जाता है फिर उसका।

       प्रकृति का प्रयोजन तभी तक रहता है जब तक “ज्ञानभाव” के साथ-साथ बुद्धि के अन्य सातों भाव भी रहते है। प्रयोजनहीन होने पर प्रकृति पुरुष से विरत हो जाती है और पुरुष अकेला रह जाता। इसी स्थिति विशेष् को “कैवल्य प्राप्ति” कहते हैं।

     कैवल्य प्राप्त होने के पश्चात यदि पूर्व संस्कार और प्रारब्ध के फलस्वरूप शरीर विद्यमान है तो उसका पतन नहीं होता। दोनों का क्षय होने पर ही शरीर नष्ट होता है। अतः शरीर रहते हुए कैवल्य प्राप्त होने की स्थिति को “जीवनमुक्ति” कहते हैं।

       जब तक संस्कार और प्रारब्ध शेष है और उसके भोग के लिए शरीर विद्यमान है, तब तक जीव इसी अवस्था में रहता है। यही कैवल्य की प्रथम स्थिति मानी जाती है

    जीवनमुक्ति की स्थिति में विवेकबुद्धि प्राप्त होने के पश्चात भी भोगों के द्वारा पूर्व संस्कार और प्रारब्ध कर्म के शमनपर्यन्त यही शरीर चलता रहता है। जीवन्मुक्त योगी को पुनः शरीर धारण न् करना पड़े, इसलिए संस्कार व प्रारब्ध कर्म के क्षय के निमित्त अपनी प्रबल इच्छा-शक्ति के बल पर पुरुष उसी शरीर में रहता है।

 (पितामहा भीष्म, बुद्ध और महावीर इसके प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।)

        इसके लिए भले ही क्यों न् उसे आयु की सीमा का अतिक्रमण कर् सैकड़ों-हज़ारों वर्ष पर्यन्त एक ही शरीर में रहना पड़े। जो जीवन्मुक्त योगी एक ही शरीर में सैकड़ों-हज़ारों वर्ष रहते हैं–उसका यही रहस्य है। ऐसी स्थिति में पुरुष निरपेक्ष द्रष्टा, साक्षी होकर प्रकृति (माया) को देखता है फिर वह कभी प्रकृति के बन्धन में नहीं पड़ता।

 कैवल्य प्राप्ति की स्थिति में यदि उसके संस्कार और प्रारब्ध कर्म का प्रणाश हो चुका है और शरीर की आवश्यकता नहीं है तो योगी तत्काल “विदेहकैवल्य” को प्राप्त हो जाता है। यह कैवल्य की दूसरी स्थिति है।  जीवन्मुक्त अवस्था प्राप्त योगी संसार में जल-कमलवत रहते हैं, गुप्त भाव से एकांत में निवास करते हैं, हिमालय की दुर्गम घाटियों, हिमाच्छादित चोटियों, कंदराओं में ऐसे ही योगियों के दर्शन आज भी सुलभ हैं।

      यदि कठिन है तो उन तक पहुंच पाना और उन तक पहुंच पाने की पात्रता प्राप्त कर् पाना।

*मानव शरीर के भीतर मन, प्राण और चेतना की असीम शक्तियां :*

         सम्पूर्ण पृथ्वी का अपना सूक्ष्म रूप है और सूक्ष्म शरीर की तरह उसके भी तीन स्तर हैं। पहले दो स्तर पृथ्वी के साथ दूध-पानी की तरह घुले-मिले हैं, लेकिन तीसरा स्तर जो है, वह अपने आप में निःसीम है, वह पृथ्वी की सीमा के बाहर है। पहले के दो स्तर के सूक्ष्मशरीर स्थूल शरीर के साथ संलग्न रहते हैं।

       मृत्यु के उपरान्त पहले स्तर का सूक्ष्मशरीर वासनाशरीर से संयुक्त हो जाता है और दूसरे स्तर का सूक्ष्मशरीर उसके साथ तब तक बना रहता है, जब तक वासना का वेग समाप्त नहीं हो जाता। वासना वेग समाप्त होते ही वासना शरीर भी नष्ट हो जाता है और आत्मा को तत्काल उपलब्ध् हो जाता है दूसरे स्तर का सूक्ष्मशरीर।

         हमारे शास्त्रों ने इसी अवस्था को ‘प्रेतमुक्ति’ की संज्ञा दी है। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि प्रेतयोनि के ऊपर है-पितरयोनि। प्रेतयोनि से मुक्त होकर आत्मा दूसरे स्तर के सूक्ष्मशरीर को ग्रहणकर पितर योनि को उपलब्ध् हो जाती है और अपने संस्कार के अनुरूप, विचार के अनुरूप अपनी मानसिक शक्ति के बल से ‘स्मृति-सृष्टि’ कर लेती है और अपनी स्वयम् की की गयी सृष्टि में तब तक निवास करती है, जब तक कि वहां का समय पूर्ण नहीं हो जाता। समय पूर्ण होने पर वह पित्रात्मा पुनः पृथ्वी पर जन्म ले लेती है।

       सारांश यह है कि मृत्यु के बाद मृतात्मा पृथ्वी के वातावरण के बाहर किसी लोक-लोकान्तर में नहीं जाती। पृथ्वी की सीमा में ही रहकर अपने मनोनुकूल वातावरण बना लेती है। पृथ्वी और उसके गुरुत्वाकर्षण की सीमा के बाहर तीसरे स्तर की सूक्ष्मशरीर धारी आत्मायें ही जाती हैं और वे आत्मायें होती हैं शुभ संस्कार सम्पन्न। ऐसी ही आत्माओं को ‘दिव्यात्मा’ कहते हैं।

        प्राणमय कोष से संबंधित चक्र पर मन और प्राण को केंद्रित कर अपने पार्थिव शरीर से अलग होने का अभ्यास बराबर करता रहा था मैं। मेरा लक्ष्य था–तीसरे स्तर के सूक्ष्मतम शरीर को उपलब्ध् होना क्योंकि दूसरे स्तर के सूक्ष्मशरीर के द्वारा पृथ्वी की सीमा के अन्तर्गत भ्रमण करते-करते ऊब-सा गया था मैं।

       यह अलग बात है कि इस भ्रमण से उपलब्ध् अनुभवजन्य ज्ञान निश्चय ही अपने आपमें महत्वपूर्ण है जो किसी धार्मिक ग्रन्थ में उपलब्ध् नहीं होगा। यह तो निश्चित ही है कि किसी भी साधनापथ पर अग्रसर होने के लिए दो वस्तुओं का होना अति आवश्यक हैं–पहली है श्रद्धा और दूसरा है विश्वास।

        श्रद्धा और विश्वास साधना-उपासना के लिए अति महत्वपूर्ण हैं, बिना इन दोनों के कोई भी साधना सार्थक नहीं हो सकती।

     आध्यात्मिक ज्ञान वास्तव में प्रत्येक व्यक्ति की अपनी निजी खोज होती है। व्यक्ति जब तक स्वयम् खोजी नहीं होता, तब तक आध्यात्मिक ज्ञान का साक्षात्कार सम्भव नहीं।

        यह कहना अनुचित न होगा कि अपने अन्वेषण के आधार पर ही उपनिषद् के ऋषियों के हाथ ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ का सूत्र लगा था। सच बात तो यह है कि धर्म और अध्यात्म का मूलाधार अपनी ही उपासना है।

         भारत के सभी ‘आगम’ और ‘निगम’ शास्त्रों ने मनुष्य के भीतर छुपी हुई शक्तियों को एक स्वर में स्वीकार किया है। निश्चय ही मानव शरीर के भीतर क्रियाशील मन, प्राण और चेतना की असीम शक्ति विद्यमान है लेकिन स्वयम् मनुष्य उस शक्ति से अपरिचित है।

        इससे परिचित होने का एकमात्र साधन ‘योग’ है। योग मनुष्य को मन, प्राण और चेतना की असीम शक्तियों से परिचित ही नहीं कराता बल्कि उनको क्रियान्वित करने का मार्ग भी दर्शाता है। कुण्डलिनी जागरण, षट्चक्र भेदन, सम्मोहन, दूरबोध, दूरदर्शन, अवचेतन, सूक्ष्मशरीर और सूक्ष्मजगत उसी से सम्बंधित है।

       ये समस्त अवधारणाएं वैज्ञानिक विषयों की सूची में भी अब हैं जिन पर समस्त विश्व में धुंआधार शोध और अनुसन्धान हो रहे हैं। उल्लेखनीय यह है कि यह समस्त विषय भारतीय मनीषा की देन है।

       हमारे ऋषियों और मनीषियों ने मन की अपार शक्ति का अपने साधना-बल पर बहुत पहले ही साक्षात्कार कर लिया था और उसी के अनुसार योगशास्त्र और तंत्रशास्त्र की रचना कर उसे इहलौकिक और पारलौकिक कामना पूर्ति का माध्यम बनाया था जिसमें मानसिक शक्ति का ही उपयोग किया जाता है।

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