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*स्वाद तो अब भी गांव में, स्त्री के हाथों मेँ है*

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        ~ रीता चौधरी 

हम खाना “अच्छा“ बनाते हैं : इस राज को केवल हम जानते हैं। खाना बनाने  का लम्बा अनुभव है।

    मर्द जब भी खाना बनाएगा, अपने अर्थ मे अच्छा बनाएगा और उसका स्वाद ही अलग का होगा. क्यों की मर्द तभी खाना बनाता है जब वह खुद अपनी भूख महसूस करता है.   

    उसके अपने हाथ के बने खाने में कोई भी कमी नही मिलेगी, क्योंकी खाने में कमी निकालता है केवल मर्द। औरत दूसरे की भूख मिटाने के लिए खाना बनाती है. बाज ददे तो वह पानी पीकर  ही सो जाती है.

मेरी सहेली कहती है : मेरी मा को खाना बनाना  नही आता था. एक लम्बी उम्र तक उसने इस बात को बहानों से ढाँपती रही : आज पता नही काहे मूँड़ घूमत बा। कल्हिया ठंढे पानी से नहाय लेहे, गरदनवय  अंकड ग बा। अइया ! आज तनी रसोयिया देखि लिहू, भौंकिया कि बारी  बची बा आज पूरी करी देई। आइया सब जानती थी, लेकिन कुल जमा पूँजी एक मात्र बहू। नतीजतन माँ को रसोई घर से फ़ुरसत और चूल्हा चक्की आजी के ज़िम्मे। 

      वो गैस का ज़माना नही था. न बासमती चावल और पनीर की रसेदार। मोटे अन्न का प्रचलन था. ज्वार बाजरा , मकई की रोटी, उरद की दाल , उस जमाने में जिन्हें हम छुपाते थे. आज उसके लिए तरसते हैं।

     आज की खेती मोटे ऐनक से खिसका कर बारीक और खर्चीले अन्न की तरफ़ किसान को लगा दिया गया है। तब सारे साधन अपने होते थे। हर घर में चूल्हा जलता था , रसोई से महक निकलती थी और बुझारत  बो कहाइन की तरह पूरा गाँव घूम आती थी।

   नीम के छाँव में खटिया बिछाए ,  हुक्का धौंकते लम्मरदार बता देते : 

    बहादुर क माई घी खरवत बा। प्रधान के हियाँ आलू गोभी कि सब्ज़ी  , अगैती आलू अहै।

    बंसिया बो एक लम्मर क लौधर , मरचा क धुकनी ऐसन चाँपे बाँ. क इहाँ तक निकुरा  परपरात बा. नोखे कि बेटवा बीयान बा. रोज़ नज़रय लाग रहत हौ। 

    सब  बदल गया। कई घर ऐसे हैं, गैस का सिलेंडर न मिले तो चूल्हा न जले. तेवारी कैंटीन से आठ ठो समोसा , चार प्लेट पकौड़ी , दू पैकेट ब्रेड लेहले आव देवर आज क  दुपहरिया इही पे कटि जाय , रात में खिचड़ी. 

     चटनिया मत भूले , पुदीना वाली। बोलते बोलते हरखू दुबे की लार गमछे पर चू  गयी। नवल उपधिया की साइकिल का ब्रेक हरखू के खटिया के पास लगा। एक पैर खटिया के पाटी पर दूसरा ज़मीन पर :

     चटनी आय रही बाँ काका ? अब तो सुधरि जाते , 

        दूनो पैर कबर में लटका बा औ जीभ चटनी चाटे 

      नवल ! तोर  पैदाइस गहदोरिया  ( गोधूली ) क आ 

         बेटवा ! भौजी से पूछ ! बड़ी मेहनत से निकले तँय. त वापिस जात रहे. कयूम दर्ज़ी तोका जलेबी देखाय के भरे निकालेस रहा। पकौड़ी खाबअ ? 

     नाहीं  काका ! बसंतुआ महुआ औ टोर्रा भुजवाए  रहा। मन  ललचाय ग , दुई पसर  खींच गये , पेट सरवा फूलि  के कोन्हडा होई ग बा। 

 (महुआ औ टोर्रा – महुआ के फूल को सूखा कर रख दिया जाता  रहा , बरसात में उसे भिगो कर अनेक पकवान  बनते। इसमें एक  चबैना है महुआ और अरहर को भाड़ में भूनवा कर चबैना की तरह चबाना , आम के अचार के साथ )।

   पक्का भर अजवाइन फांक ल बस। 

नवल ने पैडल मार कर आगे   बढ़  गये। नवल गाते जा रहे हैं – झुलनी कि रंग साँचा , हमार पिया। 

सीरी तेवारी को इ सब नही भाता , नवल तो कत्तयी नही.

     देखो इसको ! जवान  – जुवान लड़कियाँ हैं , नई नवेली  बहुए आयी हैं , क्या सोचती होंगी? हमारे गोंदिया में यह सब नही होता था. थाने पर ड्यूटी देता था क्या मजाल क़ि कोई थाने के सामने से गा कर निकल जाय। 

    सत्तू पांडे सीरी तेवारी के राज़दार हैं। समर्थन  करते चलते हैं – का करिएगा तेवारी बाबा ! इ सब डालडा के जमाने की औलादें हैं। 

ये सब छोड़ कर दिल्ली आये। जब स्थायी रूप से रहने गाँव गए तो सब बदला बदला सा। पुरानी पीढ़ी मर खप गयी। खाने का ज़ायक़ा  बिगड़ गया.

   कल तक गाँव आज़ाद था। खुद मुख़्तार था। खेत उसका , उसके अपने बीज , अपनी खाद , अपने जानवर , हल बैल की खेती , कूँएँ के पानी से  सिचायी , मोटा अन्न उगाते , शुद्ध दूध दही। सब उलट  गया। 

वह जब तक शहर  रहा , गाँव उसे तंग  करता  रहा। 

गाँव आ गया – आज बंगाली  नाश्ता 

       लूची (  पूड़ी ) और आलू झोल खूब सारा धनिया पत्ता। चार आलू भदेली  भर पानी। खूब पियो , पी जीयो अलग स्वाद , गाँव का सुख. कड़ाही में दो चम्मच सरसों का तेल। तेल गर्म करो , धुँवा उठने लगे तब दो चम्मच कलौंजी , डाल दीजिए। दो हरि मिर्च चीरा लगा कर। छोटे छोटे चौकोर कटे आलू को डाल दीजिए। हल्का सा भून लीजिए फिर खूब जम के दो लोटा पानी डाल दीजिए।

   आलू गलने लगे तो ढेरसारी धनिया की पत्ती और नमक डाल दीजिए। इस सब्ज़ी का जो पानी है वह  हू ब हू गोलगप्पे की पानी की तरह होगा। सूप की तरह पी भी सकते हैं। 

खूबी ? 

बंगाली ड़िश का अकेला भोज्य पदार्थ जो आपको नीद की तरफ़ नही ले  जाता। कुछ भी कहिए स्वाद तो अभी भी  गाँव में है।

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