प्रो. श्रावण देवरे
जोतीराव फुले के समय में जाति के पेट में वर्ग का गर्भधारण हो रहा था। फिर भी उभरती वर्ग व्यवस्था को ध्यान में रखकर वर्ग आधारित संगठनों का निर्माण करना और उनके माध्यम से जाति के विनाश का आंदोलन खड़ा करना फुले की दूरदृष्टि ही थी। उनके समय में कोई राजनीतिक दल की स्थापना की कोई गुंजाइश नहीं थी। लेकिन उनके विचारों से प्रेरित डॉ. आंबेडकर ने 1936 में इंडियन लेबर पार्टी का गठन किया। लेकिन 1944 में डॉ. आंबेडकर ने जाति का विनाश के वर्गीय सिद्धांत से खुद को अलग कर लिया और इंडियन लेबर पार्टी को भंग करके शुद्ध जाति की नींव पर शेड्यूल कास्ट फेडरेशन की स्थापना की। यहीं से आंबेडकर द्वारा जाति संगठन का मार्ग स्वीकार करना पड़ा। यहां से आंबेडकरवाद का आगाज हुआ और यह आज भी जारी है।
शिक्षा का सवाल
फुलेवाद का शैक्षणिक सिद्धांत भी क्रांतिकारी है। फुले के शिक्षण कार्यों में उनके ब्राह्मण मित्र भी उनकी मदद करते थे। उनके स्कूलों में शूद्र-अतिशूद्र परिवारों के बच्चों को आधुनिक शिक्षा दी जाती थी, जिसमें जाति का खात्मा कैसे हो, इसका खास उल्लेख होता था। फुले के ब्राह्मण मित्र इस बात का विरोध करते थे। अपने सहयोगी ब्राह्मण मित्रों को फटकारते हुए पूछते है कि “शिक्षा किस लिए?” ऐसा प्रश्न फुले खुद ही उठाते हैं और स्वयं ही उसका उत्तर भी देते हैं–
“… मेरे कहने का तात्पर्य ऐसा था कि उन्हें (शूद्र-अतिशू्द्रों को) ऊंचे दर्जे की शिक्षा दी जाय ताकि उसके द्वारा उन में अपना अच्छा-बुरा समझने की शक्ति आए…”[1]
फुले स्पष्ट करते हैं कि शूद्र-अतिशूद्र के बच्चों को ऊंचे दर्जे की शिक्षा देकर ब्राह्मणों के पूर्वजों द्वारा किए गए अन्याय व अत्याचार की जानकारी देनी चाहिए ताकि अत्याचारियों के खिलाफ संघर्ष करने की प्रेरणा उन्हें मिले। इसे ध्यान में रखते हुए फुले ने सभी सरकारी स्कूलों में पढ़ाने के लिए ‘ब्राह्मणों का कसब’ (ब्राह्मणों का छल-कपट) नामक एक पुस्तिका और दूसरी पुस्तिका ‘बलीराज्य’ लिखी। लेकिन ब्राह्मणों के भय के कारण अंग्रेज हुकूमत ने इन दोनों पुस्तकों को स्वीकार नहीं किया।[2]
फुले और डॉ. आंबेडकर ने प्रत्यक्ष मैदानी संघर्ष जितना किया, उससे कई गुना उन्होंने लिखने का काम किया। सांस्कृतिक संघर्ष इतिहास के पन्नों पर अधिक लड़ा जाता है। दरअसल जाति के खात्मे के संघर्ष का ही दूसरा नाम सांस्कृतिक युद्ध है। इस युद्ध के लिए नई पीढ़ी को तैयार करना है तो उसके लिए स्कूलों कालेजों से वैसा संस्कार देने वाली शिक्षा भी देनी चाहिए। यह काम अंग्रेजों के समय में ब्राह्मणों के भय के कारण नहीं हो सका। और स्वतंत्रता मिली तो ब्राह्मणों का ही राज हो जाने के कारण मुमकिन न हो सका।
फुले और डॉ. आंबेडकर का सांस्कृतिक विमर्श
सांस्कृतिक युद्ध का सिद्धांत फुलेवाद का केन्द्रीय तत्व है। ‘गुलामगिरी’ ग्रंथ लिखकर फुले ने सांस्कृतिक युद्ध का आगाज किया। बलीराजा उत्सव, नवरात्र उत्सव व शिवा जयंती उत्सव आदि कार्यक्रमों के जरिए फुले ने ब्राह्मणी सांस्कृतिक प्रतिक्रांति को खुली चुनौती दी।
हालांकि फुले द्वारा छेड़े गए इस सांस्कृतिक युद्ध में जीत ब्राह्मणी छावनी को मिली। बली राजा उत्सव के विरोध में गणपति खड़ा किया गया व ‘कुलवाड़ी कुलभूषण शिवाजी’ के विरोध में ‘गो ब्राह्मण प्रतिपालक शिवाजी’ खड़ा किया गया। इसी सांस्कृतिक युद्ध के अगले सोपान के रूप में आंबेडकर ने ‘हिंदू धर्म की पहेलियां’ लिखीं।
फुले का स्त्री विमर्श
जोतीराव फुले अपने समय से बहुत आगे देख रहे थे। वे स्त्री-पुरुष के बीच समानता व सम्मान के बड़े आकांक्षी थे। वे महिलाओं को पुरूषाें से श्रेष्ठ मानते थे। विज्ञान भी इसी क्रांतिकारी सिद्धांत की पुष्टि करता है। स्त्री व पुरुष हर प्रकार के कार्य आपस बांट सकते हैं। काम की अदला-बदली कर सकते हैं। लेकिन प्रसूतिवेदना ऐसी है कि पुरुष कितना भी प्रयास करें, फिर भी वह प्रसूतिवेदना में हिस्सेदार नहीं हो सकता। वह मरणातंक वेदना स्त्री को ही सहन करनी पड़ती है, इसलिए स्त्री श्रेष्ठ है। आगे के प्रश्नों का उत्तर देते हुए तात्या साहेब अनेक सबूत प्रस्तुत करते हुए सिद्ध करते हैं कि स्त्री-पुरुष दोनों में स्त्री श्रेष्ठ है! उनके इसी विचार को ध्यान में रखते हुए डॉ. आंबेडकर ने ‘हिंदू कोड बिल’ तैयार किया।
सामाजिक न्याय का सवाल
फुले द्वारा प्रतिपादित आरक्षण का सिद्धांत क्रांतिकारी है। उनके इस विचार में आक्रामकता थी। मौजूदा दौर में आरक्षण का जो सिद्धांत संविधान के माध्यम से अमल में लाया जा रहा है, उसमें आक्रामकता नहीं, बल्कि बचाव की भावना प्रबल है। फुले ने कहा था– “भट ब्राह्मणों का संख्यानुपात कर्मचारियों की ज्यादा नियुक्ति होने के कारण … भट ब्राह्मणों को अनंत फायदे होते हैं।”
“इसलिए शूद्र किसानों के बच्चे सरकारी पदों पर काम करने लायक होने तक ब्राह्मणों की उनकी संख्यानुपात से ज्यादा नियुक्ति न की जाय। बाकी बचे हुए सरकारी पद मुसलमान अथवा यूरोपियन लोगों को दिए बिना वे (ब्राह्मण) शूद्र किसानों की विद्या के आड़े आना नहीं छोड़ेंगे।”[3]
भट ब्राह्मणों के दासत्व से मुक्त होने के लिए क्या उपाय हैं? धोंडीबा द्वारा ऐसा प्रश्न पूछने पर उसका उत्तर देते हुए फुले कहते हैं–
“समाज में भटों की संख्या को देखते हुए सभी विभागों में उनका उचित प्रतिनिधित्व हो, इसमें कोई समस्या नहीं है। मैं यह तो नहीं कहता कि भटों की नियुक्ति ही नहीं होनी चाहिए। मेरा तो बस इतना ही कहना है कि अन्य जातियों के अफसरों की भी नियुक्ति होनी चाहिए और अगर अन्य जातियों में पर्याप्त अफसर नहीं मिलें, तो उन जगहों को केवल यूरोपीय अफसरों से भरना चाहिए। ऐसा करने से सभी ब्राह्मण अफसर सरकार का तथा शूद्रों का इतना नुकसान नहीं कर पाएंगे।”[4]
फुले के उपरोक्त दो प्रतिपादनों से अनेक क्रांतिकारी मुद्दे आगे आते हैं, जो आज भी अमल में लाए जाएं तो परिवर्तनवादी आंदोलन को सही अर्थों में क्रांतिकारी मोड़ मिल सकता है। इनमें पहला मुद्दा आता है जाति आधारित जनगणना का। फुले ने 1873 की अपनी रचना ‘गुलामगिरी’ में स्पष्ट तौर पर लिखा कि किस तरह इस देश के बहुसंख्यकों की अनदेखी हो रही है। और फिर अंग्रेजों ने जाति आधारित जनगणना 1881 से शुरू किया। यह कहा जा सकता है कि जोतीराव फुले के कहने पर ही अंग्रेजों ने जाति आधारित जनगणना शुरू की।