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दुनियाभर में 1% लुटेरों को इतिहास के कूड़ेदान में फेकें जाने की घड़ी अब दूर नहीं

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‘मिस्टर प्राइम मिनिस्टर, भारत, दुनिया के सबसे विशाल लोकतंत्र होने पर बहुत दिनों से अभिमान करता आया है, लेकिन कई मानवाधिकार समूह हैं, जिनका कहना है कि आपकी सरकार धार्मिक अल्पसंख्यकों के प्रति भेदभाव तथा आलोचकों का मुंह बंद कर रही है. वाइट हाउस के पूर्वी कमरे में, जहां आज आप खड़े हैं, वहां दुनिया के कितने ही नेताओं ने, लोकतंत्र को बचाने की क़स्में खाई है. अपने देश में, बोलने की आज़ादी का सम्मान करने, मुस्लिम एवं दूसरे अल्पसंख्यकों के अधिकारों की दशा सुधारने के लिए, आपकी सरकार कौन से क़दम उठाने की इच्छुक है ?’

वाल स्ट्रीट जर्नल की पत्रकार, सबरीना सिद्दीक़ी ने, 22 जून को, मोदी से ये सवाल पूछा. सकपकाए प्रधानमंत्री मोदी ने, पहले दो घूंट पानी पिया, और ये जवाब दिया –

‘मैं हैरान हूं कि आप इस टिप्पणी को दूसरों के नाम रख रही हैं. लोकतंत्र भारत और अमेरिका के डीएनए में है. ये हमारी नसों में बहता है. हमारे पूर्वजों ने इसे संविधान में लिख रखा है. अगर आप लोकतंत्र को स्वीकार करते हैं तो जाति, धर्म, नस्ल और लिंग के आधार पर, भेदभाव का प्रश्न ही नहीं पैदा होता. भारत में लोकतंत्र अच्छी तरह काम कर रहा है और सरकार की विभिन्न लाभ-योजनाओं तक, सभी धर्म, सम्प्रदायों को मानने वालों की एक समान पहुंच है.’

ये सवाल-जवाब, अगर किसी परीक्षा में हुआ होता, तो कॉपी जांचने वाला, कॉपी को दूर फेंक कर, जीरो नंबर देता. किसी भी सवाल का जवाब वह होना चाहिए, जो पूछा गया है ना कि वह जो परीक्षार्थी ने रटा हुआ है. नागरिक अधिकारों को बेरहमी से कुचलने, योजनाबद्ध तरीक़े से जनवाद के सभी इदारों को अन्दर से खोखला कर उनका सत्यानाश करने, मुस्लिम अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव मात्र नहीं, बल्कि समूचे मुस्लिम समुदाय को ‘आतंकी, ज़ेहादी और देशद्रोही’ बताकर, शत्रु जैसा व्यवहार करने, जैसा जर्मनी में यहूदियों के साथ हुआ था और सरकारी नीतियों पर सवाल उठाने वालों को प्रताड़ित करने और उनके पीछे ईडी, सीबीआई को लगा देने की, देश की मौजूदा क्रूर हक़ीक़त को, सबरीना सिद्दीक़ी ने जितने सहज और स्वीकार्य ढंग से रखा, उससे बेहतर संभव नहीं था. देश की मौजूदा हुकूमत और उसके ‘कुनबे’ की शिराओं में इस वक़्त क्या बह रहा है, और उनके डीएनए में असलियत में क्या है, इस एक सवाल ने, नंगा करके रख दिया.

मुद्दे को और गरमाने के लिए, बराक ओबामा भी मैदान में कूद पड़े. मानो, भारत में लोकतंत्र पर हो रहे मोदी सरकार के हमले से वे विचलित हो उठे हों ! ओबामा, बाईडेन और अमेरिका खुद लोकतंत्र के कितने बड़े चैंपियन हैं, चर्चा उस पर भी होगी, लेकिन पहले, सीएनएन को दिए उनके इंटरव्यू में उनका वह बयान, जिसने देश की फासिस्ट टोली को काम पर लगा दिया है –

‘अगर मुझे प्रधानमंत्री मोदी से, जिन्हें मैं अच्छी तरह जानता हूं, बात करने का अवसर मिला होता तो मेरे तर्क का लब्बोलुआब ये होता कि अगर आप अल्पसंख्यक समुदाय के अधिकारों की हिफ़ाज़त नहीं करेंगे तो इस बात की आशंका काफ़ी प्रबल है कि देश टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा…इसका दूरगामी असर अल्पसंख्यक मुस्लिमों पर ही नहीं बल्कि बहुसंख्यक हिन्दुओं के भविष्य पर भी पड़ेगा.’

‘सबरीना सिद्दीक़ी’ और ‘बराक हुसैन ओबामा’ नामों से देश में बौराए फिर रहे फासिस्ट टोले को वे दो ‘निर्णायक शब्द’ (key words) हाथ लग गए, जो उन्हें चाहिए थे. दरअसल, फ़ासिस्ट आतंकी टोलियों और भाजपा आईटी सेल पर लगे भाड़े के ट्रोल को इतना ही सिखाया गया है कि वे सभी व्यक्ति, जिनके नाम उर्दू में है, मुस्लिम हैं, मतलब आतंकी, ज़ेहादी हैं, मतलब देशद्रोही हैं, उनपर टूट पड़ना है. जो जितनी ज्यादा और जितनी गंदी गालियां देगा, वह हुकूमत का उतना ही वफ़ादार समझा जाएगा, उतना ही देशभक्त कहलाएगा, तरक्की और भुगतान पाएगा.

असम का मुख्यमंत्री हेमंत बिस्व सरमा, जो चंद वर्ष पहले तक कांग्रेसी हुआ करता था, और भाजपा को फिरकापरस्त बताकर, कांग्रेसी हमलावर टोली में सबसे आगे रहा करता था, आज महाराष्ट्र की सरकार को गिराने में मिली क़ामयाबी के बाद से, फ़ासिस्ट मोदी सरकार का सबसे वफ़ादार हमलावर है. वह ना सिर्फ असम का मुख्यमंत्री है, बल्कि समूचे उत्तर-पूर्वी राज्यों का ‘भाग्यविधाता’ है, जिसका खामियाजा, आज मणिपुर भुगत रहा है.

मोदी अमेरिका में ही थे कि उसके इस ट्वीट ने साबित कर दिया कि मोदी के डीएनए में क्या है –

‘भारत में ही कई हुसैन ओबामा हैं. वाशिंगटन जाने से पहले हमें उनका बंदोबस्त करने की प्रथामिकताएं तय करनी होंगी. असम पुलिस हमारी प्राथमिकताओं के अनुरूप काम करेगी.’

‘अंधभक्त होने के लिए प्रचंड मूर्ख होना अनिवार्य शर्त है’, प्रख्यात व्यंगकार हरिशंकर परसाईं का यह कालजयी कथन, आजकल हर रोज़ याद आता है. कुछ लोग, जो फ़ासिस्ट टोले की फ़ितरत नहीं जानते, सोच रहे थे कि असम का मुख्यमंत्री, इस बार अपनी सीमा लांघ गया और वह अपने ‘टिटियाने’ को वापस लेगा. वैसा नहीं होना था. यह तो दरअसल, एक इशारा था. उसके बाद भाजपा की आईटी सेल के नाम पर चल रही, झूठ और फ़र्ज़ी खबरों की देश की सबसे बड़ी फैक्ट्री के मुखिया और छोटे-मझोले-बड़े सभी श्रेणी के भक्त शुरू हो गए. अमेरिकी मुसलमानों को सबक सिखाने की ये मुहीम भी, केंद्र के, महाबली हाई कमांड द्वारा संचालित है, तब समझ आया, जब हेमंत बिस्व सरमा बोला कि वह अपने टिटियाने पर क़ायम है और वित्त मंत्री भी, बराक ओबामा पर पिल पड़ीं.

युद्ध शास्त्र का ये पैंतरा आजकल सब सीख गए हैं, ‘आक्रामकता ही सबसे कारगर बचाव है’. वित्त मंत्री अच्छी तरह जानती हैं कि उनकी सरकार के कारनामे, उससे कहीं संगीन हैं, जो आरोप उन पर अमेरिका में लगे हैं. मोदी सरकार की बदकिस्मती कि सारे मीडिया को पालतू बनाकर भी सच्चाई को क़ैद करना आज मुमकिन नहीं रहा. सोशल मीडिया को कैसे रोकेंगे ? उसे रोकने के लिए, इन्टरनेट को ठप्प करना पड़ेगा, लेकिन इन्टरनेट के बगैर आजकल परिंदा भी पर नहीं मारता, कोई वित्तीय लेन-देन संभव नहीं. हर व्यक्ति, हर वक़्त ऑनलाइन है. कश्मीर का तजुर्बा हमारे सामने है; इन्टरनेट चालू करना ही पड़ा.

बराक ओबामा के कार्यकाल में सीरिया, लीबिया, इराक़, यमन, अफ़गानिस्तान और फिलिस्तीन, 6 मुस्लिम देशों पर कितनी भयानक बमबारी हुई, 26,000 बम गिराए गए, कितना हाहाकार मचा, ये बात ओबामा को याद दिलाई गई लेकिन धूर्तता के साथ. अमेरिका का नाम नहीं लिया, मानो बमबारी का फैसला अमेरिकी सरकार ना होकर, ओबामा का निजी फैसला हो ! अमेरिकी आकाओं को ना-ख़ुश नहीं किया जा सकता ना !!

इंडिया-अमेरिका, दोनों का डीएनए एक है !

ओबामा और बाईडेन की अंग्रेजी बोलने की नफ़ासत, मोदी से कहीं बढ़िया है; ये बात सही है. ये बात, लेकिन मायने नहीं रखती. ट्रम्प भी तो ऐसा ही डफर है !! मायने ये रखता है कि मानवाधिकारों, जातिगत और नस्लगत उत्पीड़न-अत्याचार में इंडिया और अमेरिका का क्या रिकॉर्ड है ? दोनों देशों के बीच हुए व्यवसायिक सौदे किसके हित में हैं ? उनके क्या परिणाम होंगे ? इन सब शाही स्वागत-सत्कारों, अनर्गल लफ्फाज़ियों को मेहनतक़श अवाम, कमेरा वर्ग किस तरह समझे ?

दुनियाभर को डेमोक्रेसी का पाठ पढ़ाने वाले अमेरिका का ट्रैक रिकॉर्ड क्या है, कौन नहीं जानता ? कौन सा अपराध है जो अमेरिकी शासकों ने नहीं किया? अमेरिका, अपनी दैत्याकार सैन्य-शक्ति और खूंख्वार ख़ुफ़िया एजेंसी, सीआईए के ज़रिए, अब तक कुल 105 सार्वभौम देशों की सत्ताओं का तख्ता पलटकर, अपने पिट्ठुओं को सत्ता में बैठा चुका है. समस्त लैटिन अमेरिका उसकी शिकारगाह है. दुनिया भर के अनगिनत कम्युनिस्ट आन्दोलनों को, उसकी भाड़े की सेना ने कुचलकर लहुलुहान किया है.

सभी अमेरिकी राष्ट्रपतियों के हाथ ही नहीं, सारे शरीर, करोड़ों बेक़सूरों के खून से रंगे हैं. इराक में विनाशकारी हथियारों के नाम पर कितना झूठ, कितना घिनौना ख़ूनी प्रपंच, लोकतंत्र के स्वयं-घोषित इस ठेकेदार अमेरिका ने रचे और खाड़ी के सबसे प्रगतिशील देश को तबाह कर डाला. ओसामा को पैदा किया और अफ़गानिस्तान में सालों-साल ख़ूनी खेल खेला और अंत में जब उसके वित्तीय हित सधने बंद हो गए तो दुनिया की सबसे कट्टर, असभ्य तालिबानी सरकार को सत्ता सौंपकर, बेगैरती से दुम दबाकर भागने वाला यही अमेरिका था.

जंग ना हो, तो रक्त-पिपासू अमेरिकी वित्तीय सरमाएदार भूखे मरने लगते हैं. उन्हें हर वक़्त जंग चाहिए. युक्रेन में, अमेरिका ने ना सिर्फ़ युद्ध भड़काया बल्कि वहां शांति प्रस्थापित होने के हर प्रस्ताव को अंजाम तक पहुंचने से रोका.

अमेरिका को दुनिया का लठैत और लोकतंत्र का उपदेशक किसने चुना है ? दूर का इतिहास छोडिए, इसी अमेरिका के सबसे ताक़तवर अख़बार वाशिंगटन पोस्ट के पत्रकार, खशोगी को तुर्की के दूतावास में सऊदी कसाई, मोहम्मद बिन सलमान के भाड़े के टट्टुओं ने, इस तरह क़त्ल किया जिसकी मिसाल नहीं. लोकतंत्र का क़त्ल करने की इससे जघन्य मिसाल नहीं मिलेगी. अमेरिकी समाज और मीडिया, उस सलमान को, गिरफ्तार कर सज़ा दिलाने के लिए सड़कों पर भी उतरा. लेकिन, क्या हुआ ? दुनिया से अपना रक्तरंजित मुंह छिपाने वाले उसी ख़ूनी हत्यारे से, अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प, गलबहियां करके आया.

वियतनाम में अमेरिकी अपराध क्या भुलाए जाने लायक़ हैं ? अकेले युक्रेन युद्ध से, अमेरिका के जंगखोर धन-पशुओं का पेट नहीं भर रहा, अब हमारे पड़ोस में, ताईवान को युद्ध के लिए भड़काया, उकसाया जा रहा है. ये है, लोकतंत्र के अमेरिकी पाठ की हकीक़त. जब भी कोई अमेरिकी राष्ट्रपति ‘डेमोक्रेसी’ शब्द मुंह से निकाले, सारी दुनिया के अमनपसंद अवाम ने एक सुर में बोलना चाहिए – लानत है !!

‘डेमोक्रेसी हमारे डीएनए में है, डेमोक्रेसी हमारी नसों में बहती है’, प्रधानमंत्री मोदी द्वारा अमेरिका की धरती पर दिया ये बयान, इस सदी का सबसे बड़ा झूठ है. इतना सफ़ेद झूठ लोग कैसे बोल लेते हैं, सोच कर घिन आती है. डीएनए और नसों में क्या है, वह तो पूरी दुनिया जान गई. उस असलियत को बार-बार दोहरा कर क्यों वक़्त बर्बाद किया जाए ? देश को यह जानना ज़रूरी है कि अभूतपूर्व बेरोज़गारी, भयानक कंगाली और मंहगाई के पहाड़ तले कराहते देशवासियों के लिए, मोदी जी अमेरिका से क्या सौगात लेकर आए ?

मोदी जी अमेरिका से क्या सौगात लेकर आए ?

भारत में दुनिया के सबसे ज्यादा ग़रीब रहते हैं. साथ ही, भारत, दुनिया भर में, हथियारों और ख़ुफ़िया तंत्र का सबसे बड़ा ख़रीदार है. भारत-अमेरिकी हथियार ख़रीद के इस सौदे से पहले के 5 सालों में भारत ने अमेरिका, रूस, फ़्रांस, इजराइल और स्पेन से, कुल 1.9 लाख करोड़ के हथियार और गोला-बारूद, अत्याधुनिक रायफलें, निगरानी के उपकरणों के कुल 264 ख़रीद सौदे किए हैं. ये वह माल है जो देश में हो रहे उत्पादन के अतिरिक्त विदेशों से ख़रीदा गया है. ये जानकारी रक्षा उप-मंत्री अजय भट्ट ने फरवरी महीने में लोकसभा को दी. वर्ष-वार ब्यौरा इस तरह है –

₹ 30,677 करोड़- 2017 -18,
₹ 38,116 करोड़-2018 -19,
₹ 40,330 करोड़-2019 -20,
₹ 43,916 करोड़- 2020 -21,
₹ 40,840 करोड़- 2021-22. ₹ 59,000 करोड़ में फ़्रांस से ख़रीदे 36 विमान इसमें शामिल नहीं हैं.

इस बार अमेरिका से भी ‘डेमोक्रेसी, परस्पर सहयोग और तकनीकी विकास की साझेदारी’ के नरम मखमली आवरण के नीचे अत्याधुनिक हथियार, मारक हथियारों से लैस ड्रोन और देश में बन रहे लड़ाकू विमानों की इंजन ख़रीदी ढ़की हुई है. ऐसा भी हो सकता है कि डेमोक्रेसी का ये राग-दरबारी छेड़ा ही इसलिए गया कि हथियारों की ख़रीदी और किस भाव में ख़रीदी हुई, उस पर लोगों का ध्यान ना जाए.

हथियारों के अलावा, अमेरिका के पास अब बेचने को कुछ रह ही नहीं गया है. उसका जनवाद, कनपटी पर बंदूक रखकर ही प्रस्थापित होता है ! अमेरिका ने भारत को $3 बिलियन के हथियार बेचे हैं जिनमें $1.8 बिलियन के 31 अत्याधुनिक ड्रोन भी शामिल हैं, जो विध्वंशक हथियारों और ख़ुफ़िया यंत्रों से लैस होंगे.

अंतर्राष्ट्रीय रक्षा सौदों में कमीशनखोरी की परंपरा पुरानी है. एयर फ़ोर्स ने 18 ड्रोन मांगे, सरकार ने 31 ख़रीदे ! स्पेन ने ये ही ड्रोन, हमसे 3 गुना कम दाम में ख़रीदे. मतलब मोदी का डिनर, इस कंगाल मुल्क को बहुत मंहगा पड़ा. कोई भी सरकार हो, लोक सभा चुनाव से पहले रक्षा ख़रीदी ज़रूर करती है, वज़ह सब जानते हैं !! एक और हकीक़त बताई जानी चाहिए; अंतरिक्ष-विज्ञान में इसरो और नासा के बीच सहयोग. दरअसल अंतरिक्ष-विज्ञान विकास के नाम पर भी जो हो रहा है, वह भी युद्धों की तैयारी ही है. ज्यादा से ज्यादा दूर तक मार करने वाले मिसाइल को बनाने में भी वही तकनीक इस्तेमाल होती है, जो उपग्रह प्रक्षेपण में होती है.

भारत हो या अमेरिका, रूस हो या युक्रेन, चीन हो या जापान; शासक वर्ग का डीएनए समान है. सभी की नसों में, देश के मेहनतक़शों, कमेरों, किसान-मज़दूरों से नफ़रत, उन्हें बहकाकर मुगालते में रखने की तिकड़में और चंद वित्तीय धन-पशुओं की लूट को क़ायम रखने, उसे बढ़ाने की तरकीबें, उनकी ताबेदारी का ज़ज्बा प्रवाहित हो रहा है. पूंजी का ये राज़, सामंतवाद को उखाड़कर आया था, लेकिन उसमें एक अंतर था. सामंती लुटेरों को, भेष बदलकर पूंजीपति बन जाने और अपनी लूट के कारोबार को बचाकर निकल जाने की सुविधा, पूंजीवाद ने उपलब्ध कराई थी.

पूंजीवाद को दफ़नाने के लिए, जो समाजवादी क्रांति अवश्यम्भावी है, उसमें पूंजीपतियों को भेष बदलकर, अपने लूट-तंत्र को बचाने की ऐसी कोई सुविधा, भावी शासक, मज़दूर वर्ग नहीं देने वाला है. इसीलिए पूंजीवाद, अपनी निश्चित मौत टालने के लिए, पहले की सत्ताओं के मुकाबले, ज्यादा फड़फड़ा रहा है. क़ब्र में टांगें लटक रही हैं लेकिन धरती पकड़ रहा है !! इस उपक्रम में सारे के सारे समाज को ही, युद्धों द्वारा सम्पूर्ण विनाश में धकेल दे रहा है. लोगों को रोटी नहीं, काम नहीं और ये हथियार खरीद रहा है. भूखे लोगों में दहशत गाफ़िल करने के लिए ही या हो रहा है. बताना चाहता है, मानो पूंजीवाद ही मानव-विकास की अंतिम मंज़िल है. इस उपक्रम में, लेकिन, सत्ता का असली चेहरा नंगा हो रहा है और कमेरा वर्ग असली खेल को समझता जा रहा है.

दुनियाभर में 1% लुटेरों के ख़िलाफ़ जन-मानस तेज़ी से गोलबंद हो रहा है. पूंजीवाद के दिन गिने जा चुके हैं. अब वह युद्धों, फासीवादी हिंसा के ज़रिए, ‘अमरत्व’ प्राप्त करने की तिकड़में जमा रहा है. इसे सर्वनाश करने का अवसर नहीं मिलेगा. इसे, इसके डीएनए के साथ, इतिहास के कूड़ेदान में फेकें जाने की घड़ी अब दूर नहीं.

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