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अन्ना सेबेस्टियन की मौत की सच्चाई ज्यादा दर्दनाक और भयावह

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धर्मेन्द्र आज़ाद 

26 साल की अन्ना सेबेस्टियन एक चार्टर्ड एकाउंटेंट (CA) थीं, मार्च 2024 में उन्होंने दुनिया की सबसे बड़ी अकाउंटिंग और कंसल्टिंग कंपनियों में से एक, अर्न्स्ट एंड यंग (EY) के पुणे ऑफिस में नौकरी जॉइन की।

कहने को अपने कम उम्र में ही उन्होंने करियर में बड़ा मुकाम हासिल कर लिया था, जो मध्यमवर्गीय परिवारों के लिए गर्व की बात मानी जाती है। लेकिन इस ‘सफलता’ के पीछे की सच्चाई कहीं ज्यादा दर्दनाक और भयावह थी। 

जुलाई, 2024 में अत्यधिक कार्य दबाव और तनावपूर्ण माहौल के चलते अन्ना की असामयिक मौत हो गई। इस घटना ने एक बार फिर आधुनिक कॉर्पोरेट दुनिया के क्रूर और अमानवीय चेहरे को उजागर कर दिया है।

अन्ना की मौत का कारण सीधा था- उनकी कंपनी में अत्यधिक कार्य दबाव और तनावपूर्ण माहौल। यह कहना गलत नहीं होगा कि उनकी मौत एक प्रकार की ‘सांस्थानिक हत्या’ थी। आज कॉर्पोरेट कंपनियों का स्वभाव यही है कि वे अपने कर्मचारियों को केवल एक ‘उपकरण’ की तरह देखती हैं, जिसका उपयोग उनके मुनाफे को बढ़ाने के लिए किया जाता है। 

जब तक कर्मचारी काम करने में सक्षम रहता है, तब तक उसे निचोड़ा जाता है। लेकिन जैसे ही वह मानसिक और शारीरिक दबाव का शिकार हो जाता है, उसे अनुपयोगी वस्तु की तरह छोड़ दिया जाता है।

यह केवल अन्ना की कहानी नहीं है। मध्यवर्गीय परिवार और प्रतिष्ठित पेशे की वजह से उनकी मौत कुछ हद तक चर्चा में आ सकी, वरना यह उन लाखों कर्मचारियों की सच्चाई है जो काम के अत्यधिक दबाव में अपनी सेहत और मानसिक शांति खो रहे हैं। भारत में हर साल लगभग 48,000 कामगार कार्यस्थल पर होने वाले ‘हादसों’ में जान गंवाते हैं। लेकिन मीडिया और सरकारें इन मुद्दों पर गंभीर चर्चा करने के बजाय इन्हें नजरअंदाज करती हैं।

ग़ौरतलब है कि, 2023 में इंफोसिस के सह-संस्थापक नारायणमूर्ति ने कहा कि देश की प्रगति के लिए कर्मचारियों को 72 घंटे प्रति सप्ताह काम करने के लिए तैयार रहना चाहिए। यह सोच केवल इस बात को दर्शाती है कि पूंजीवादी व्यवस्था श्रमिकों के जीवन और मूल अधिकारों का हनन करती है। 

इस तरह की मानसिकता ने काम के घंटे और काम का बोझ इस हद तक बढ़ा दिया है कि कर्मचारियों का जीवन अस्त-व्यस्त हो गया है। वे अपने परिवार, शौक, कला-संस्कृति, सामाजिक कार्य, और यहां तक कि अपने व्यक्तिगत विकास के लिए भी समय नहीं निकाल पा रहे हैं।

असल में, यह विचार गलत है कि लोगों को काम के बोझ तले ही देश और समाज का विकास होगा। असली विकास तब होगा जब लोग अपने काम का आनंद ले सकें और उन्हें अपने शौक, कला, संस्कृति, सामाजिक कार्य, घूमने-फिरने, नई चीजें सीखने, और अपनी रुचियों के लिए भी पर्याप्त समय मिल सके। आधुनिक विज्ञान और तकनीक ने आज इतनी तरक्की कर ली है कि अब कर्मचारियों को केवल चार घंटे प्रतिदिन और पांच दिन प्रति सप्ताह काम करने की जरूरत होनी चाहिए।

लेकिन पूंजीवादी व्यवस्था और कॉर्पोरेट संस्कृति इसके उलट काम करती है। यह व्यवस्था चाहती है कि कर्मचारियों से अधिक से अधिक काम लिया जाए, ताकि पूंजीपतियों का मुनाफा बढ़ता रहे। इस प्रक्रिया में वे कर्मचारियों के स्वास्थ्य, उनके जीवन की गुणवत्ता, और मानसिक शांति की अनदेखी करते हैं। 

इसके विपरीत, यदि काम का समय घटाकर, चार घंटे और सप्ताह में पांच दिन कर दिया जाए, तो न केवल बेरोजगारों को रोजगार मिलेगा, बल्कि जो लोग पहले से कार्यरत हैं, वे अपने जीवन का आनंद ले सकेंगे। वे अपने शौक, परिवार, और सामाजिक जिम्मेदारियों को भी निभा सकेंगे।

अन्ना की मौत हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या यह तथाकथित ‘विकास’ और ‘प्रगति’ वाकई में लोगों के लिए है? पूंजीपतियों की लालच और सरकारों की पूंजीवाद-समर्थक नीतियाँ न केवल लोगों की आजीविका छीन रही हैं, बल्कि उनकी जान भी ले रही हैं।  

हमें यह समझना होगा कि असली विकास का मतलब केवल आर्थिक मुनाफा नहीं है। असली विकास तब होगा जब लोग शोषण-मुक्त जीवन जी सकें, जब उन्हें काम का आनंद मिले और अपने जीवन के अन्य पहलुओं के लिए भी समय मिल सके। जब वे अपने शौक, सामाजिक कार्यों और खुद को निखारने में समय लगा सकें, तभी हम सच्चे विकास की ओर बढ़ेंगे।

इस स्थिति को बदलने के लिए हमें एकजुट होकर पूंजीवादी नीतियों और कॉर्पोरेट संस्कृति के खिलाफ खड़ा होना होगा। हमें इस तथाकथित ‘विकास’ का विरोध करना होगा, जिसमें मेहनतकश इंसान की स्वास्थ्य, सुरक्षा, ज़रूरतों को नज़रअंदाज़ कर केवल पूँजीपतियों के मुनाफ़ा बटोरने का लक्ष्य रखा जाता है।

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