डॉ. ब्रज मोहन सिंह
शब्दों के बिस्फोट से ही जन्मा था ब्रह्मांड
लाखों वर्षों से चलती आ रही हैं यात्राएं शब्दों की
दुनिया की सुंदरता और ध्वंस के खेल
शब्दों में ही थे, सृष्टि और संहार भी…
सब चाहते थे नियंत्रण इन शब्दों पर ही…
शब्दों की साधना की गयी
शब्दों को किसी ने कोड़े से पीटा
जेल में डाल दिया,
विष दिये,
आग में जला दिया
शब्दों को गुलाम बनाया गया,
शब्द लड़ते रहे हर आजादी के लिये…
औरतों की सिसकियां भी शब्द ही थे…
मनुस्मृति, धर्म, कानून के किताबों में जकड़े गये शब्द
संविधान से भी गायब होते रहे शब्द समय समय पर
बोटी बोटी काट दिया गया शब्दों का…
शब्दों की दी गयी यातनाएं
किसी औरत, दलित, आदिवासी, गरीब से पूछो
पूछो धर्म के नाम पर लड़ते
पूजा करते पुजारी,मौलवियों बिशपों से…
पूछो सर तन से जुदा और
गोली मारो सालों को जैसी उन्मादी आवाजों से…
फिर भी अजर, अमर
शब्द ब्रह्म बन व्याप्त रहे
होठ, आंख, स्पर्श और आलिंगन में
किसी बीज में, फूलों में, नदियों में,
हवा और तूफान में,
हंसी और मुस्कान में
खेतों और खलिहान में…
सूरज की धूप,
बारिश की फुहारों में
चुप्पी और प्रतिवाद में
खूनी शासक के धड़कते कलेजे में
सबसे ज्यादा डर
किसी हुकुमत को
उठी हुई अंगुली वाले
शब्दों से ही लगता है…
तानाशाह गोली से नहीं
कर्मरत शब्दों के
समवेत वार से ही मरता है, मरता है…