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ध्यान की दृष्टि : मनुष्य-योनि और सृष्टि

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डॉ. विकास मानव 

अधिक लम्बी यात्रा उपरांत मानव योनि प्राप्त होती है। यह मनुष्य शरीर देवताओं को भी दुर्लभ है। नरतन से पुरुषार्थ साधन किया जाता है। मोक्ष परम पुरुषार्थ है। जैसे होरा शब्द अहोरात्र का संक्षेपण है, उसी प्रकार मोक्ष शब्द भी मोहक्षय का संक्षेप है। मोह का नाश वा क्षय, मोक्ष है। मोक्ष =मोह भंग/मोहध्वंस/मोहघ्न/मोहक्षति/मोहनाश। बिना सतसंग के यह संभव नहीं है। 

कोटिजन्म के पुण्य जब उदय होत इकसंग।

छूटत मन की मलिनता, अरुभावत सतसंग॥

    देह की सार्थकता सतसंग में है। सतसंग का मतलब एकांत. सतसंग का मतलब सत्य का संग. सत आपके भीतर है. आप ‘आप’ हैं, आप देह में हैं — देह नहीं हैं. उससे संगति बिठानी है.  ज्ञानी के लिये सतसंग के कारण यह शरीर सुखालय है। अज्ञानी के लिये कुसंग के कारण यह शरीर दुःखालय है।

रम्येयं देहनगरी राम, सर्वगुणान्विता।
अज्ञस्वेयमनन्तानां दुःखानां कोशमालिका।
ज्ञस्यत्वियमनन्तानां सुखानां कोशमालिका।
~योग वासिष्ठोपनिषद्.

मनुष्यतन का महत्व बताते हुए गोस्वामी तुलसी कहते हैं :
नरतन सम नहिं कवनिउ देही।
जीव चराचर जाचत तेही॥
नरक सरग अपवर्ग निसेनी।
ज्ञान विराग भगति सुभ देनी॥”
(रामचरित मानस, उत्तर काण्ड।)

शिव शिवा से कहते हैं :
गिरिजा संत समागम सम न लाभ कुछ आन।
बिनु हरि कृपा न होइ सो, गावहिं बेद पुरान॥

(रा.च.मा. उत्तरकाण्ड )

संत को साक्षात् परमात्मा कहा गया है. संत यानी सत्य के बोध में स्थित. लुटेरे, भगोड़े या कथा प्रवचन करने वाले व्यापारी संत नहीं हैं. संत मतलब जिसके लिए संसार का अंत हो चुका.
संत का संग मोक्ष देता है.

वेद कहता है, २८ नक्षत्र हैं। जब कि यह ९ हैं। यहाँ और नक्षत्रों में बिना संबंध जोड़े ज्योतिष की गाड़ी आगे नहीं बढ़ सकती। इस लिये २८ की संख्या को २७ में परिवर्तित किया गया। अर्थात् २८ = २७। यह कैसे ? २८ की संख्या पूर्ण है। २+८ = १० = १ [१ + ० १] १ ब्रह्म है। ब्रह्म पूर्ण है। इसलिये २८ की संख्या पूर्ण वा ब्रह्मवाचक है। २७ की संख्या भी पूर्ण है। २ + ७ = ९ । ९ की संख्या को ब्रह्म के सन्दर्भ में प्रनव प्रणव[ प्र ९] कहते हैं। प्रणव तो ब्रह्म वाचक है ही। एक और प्रणव में साम्य होने से २८ = २७ एक प्रणव अन्य प्रकार से.
पूर्णद् पूर्णमुदच्यते पूर्णमेवावशिष्यते।
पूर्ण में से पूर्ण निकाल लिया जाय तो पूर्ण ही शेष रहता है। इसका अर्थ है- यदि पूर्ण शेष रहता है तो जिस से निकाला गया है तथा जो निकाला गया है, ये दोनों पूर्ण है।
इस प्रकार २८-२७ = १ । १ की संख्या पूर्ण है। इसलिये २८ एवं २७ की संख्याएँ भी पूर्ण हुई। पूर्ण होने से दोनों समान हुई।
इसलिये २८ = २७ ।
२७ नक्षत्र ÷९ ग्रह =३ नक्षत्र ।
प्रत्येक ग्रह ३ नक्षत्रों का पति है।
इस प्रक्रिया में अभिजित् नक्षत्र, जिसमें कि ३ तारे हैं और ब्रह्मा जिसका देवता है, को नक्षत्र को उपाधि से हीन करके मुहर्त की उपाधि से भूषित किया गया है। अभिजिद् ब्रह्म दैवत्यं त्रीणिताराणि कारयेत्’ बृहस्पति] अब, अभिजित् तारा न हो कर मुहूर्त है। मध्याह्नकाल का उत्कर्ष बिन्दु अभिजित है।
ताराओं के समूह का नाम है, नक्षत्र ।नक्षत्र= न+क्ष+त्र =न क्षयति क्षिणोति त्रसति-त्रस्यति वा = अविनश्वर एवं अटल।
आकाश में ताराओं के कुल ६० समूह अषियों ने बताये हैं। ये दक्ष प्रजापति द्वारा अविर्भूत हुए हैं। इसलिये इन्हें दक्ष की कन्याएँ कहा गया है। इनमें से केवल २७ कन्याओं (नक्षत्रों) को दक्ष प्रजापति ने चन्द्रमा को दिया। चन्द्रमा इन २७ कन्याओं का भोग करता है। इसलिये इन्हें चन्द्रमा की पत्नी (भोग्या कहते हैं। चन्द्रमा मन मन को संरचना में इन २७ नक्षत्रों का योगदान है।
इनके नाम ये हैं :
१. अश्विनी । २. भरणी । ३. कृत्तिका । ४. रोहिणी । ५. मृगशिरा ६. आर्द्रा ७. पुनर्वसु । ८. पुष्य। ९. आश्लेषा । १०. मघा । ११. पुर्वाफाल्गुनी। १२. उत्तराफाल्गुनी । १३. हस्त । १४. चित्रा । १५. स्वाती । १६. विशाखा । १७. अनुराधा । १८. ज्येष्ठा । १९. मूल। २०. पूर्वाषाढ २१. उत्तराषाढ २२. श्रवण । २३. धनिष्ठा । २४. शतभिषा २५. पूर्वाभाद्रपद २६. उत्तराभाद्रपद २७. रेवती।

चन्द्रमा जिस का भोग करे, उसे नक्षत्र कहते हैं। चन्द्रमा से अभोग्य होने के कारण अन्य तारासमूह नक्षत्र नहीं कहलाते। जब यह कहा जाता है कि अमुक व्यक्ति का जन्म अमुक नक्षत्र में हुआ है, तो इसका अर्थ है- अमुक व्यक्ति के जन्म के समय चन्द्रमा अमुक नक्षत्र में था। किन्तु चन्द्रमा अकेले ही इनका उपभोग नहीं करता। अन्यों को भी करने देता है। नक्षत्र वीथी में चन्द्रमा का संचरण होता ही है, अन्य ग्रह सूर्य मंगल बुध गुरु शुक्र शनि राहु केतु भी संचरण करते हैं। चन्द्रमा उदार है। वह बाँट कर खाता है, अकेले नहीं। वह जानता है-‘केवलादी केवलाघी भवति।’ चन्द्रमा नक्षत्रों पर अपना एकाधिकार नहीं जमाता।
यद्यपि दक्ष प्रजापति ने इन सब का स्वामित्व उसे ही सौंपा है। चन्द्रमा सब को बराबर हिस्सा देता है। इस प्रकार प्रत्येक ग्रह तीन-तीन नक्षत्रों का स्वामी बनता है। नक्षत्र एवं नक्षत्राधिपति ग्रहों के सम्बन्ध का अवबोधन कराने वाली सारणी इस प्रकार है :
सोमं नक्षत्रौषधीनाम्।
~अथर्ववेद (११ । १६ । १६)

नक्षत्रों और औषधियों का राजा चन्द्रमा है। ये नक्षत्र ओषधि रूप हैं। उष्णता को धारण करने वाले हैं। सचमुच, ये तारे अत्युष्ण प्रकाश पिण्ड हैं। जब कि चन्द्रमा शीतल प्रकाश युक्त है। उष्ण वा उम्र स्वभाव वालों पर शीत वा सौम्य प्रकृति वाले लोग शासन करते हैं, यह लोक सिद्ध है। चन्द्रमा सौम्य होने से इनका शासक/ अधिपति है।
नक्षत्राणामहंशशी।
~गीता (१० । २१)
नक्षत्र में सभी युग हैं, सभी आश्रम हैं, सभी वर्ण हैं, सभी पुरुषार्थ हैं। नक्षत्र में चार याद वा चरण हैं। चार पादों वाला पशु होता है। पशुओं का स्वामी पशुपति कहलाता है। पशुपति नाम शिव का है। चन्द्रमा शिव के ललाट पर है। चार पादों वाला होने से नक्षत्र भी पशु हुए। ये सभी आकाशरूपी चरागाह में चरते हैं। चन्द्रमा इनका स्वामी है। नक्षत्रों के चतुर्व्यूहन का बोध कराने वाली तालिका इस प्रकार है।
प्रत्येक नक्षत्र, चार युग + चार वर्ण + चार आश्रम + चार पुरुषार्थ = १६ कलावन्त है। ‘षोडशकलावन्तपुरुषोऽयं’ आप्त वचन है।

स्थूल की अपेक्षा सूक्ष्म महत्वशाली होता है। नक्षत्र की अपेक्षा उसके चरणों को ध्यान में रख कर फल कथन करना चाहिये। उदाहरणार्थ, मेराजन्म पूर्वाभाद्रपद के प्रथम चरण में हुआ है। इसलिये मेरा मन सतयुग जात हुआ, ब्राह्मण वर्णोन्मुख हुआ ब्रह्मचर्याश्रमक हुआ, तथा धर्म के पुरुषार्थ का संधारक हुआ। चरण के पश्चात् नक्षत्र स्वामी ग्रह का महत्व है। पूर्वाभाद्रपद का स्वामी बृहस्पति है। बृहस्पति जिन-जिन वस्तुओं का कारक है, उन उन वस्तुओं से मेरे मन का मैत्र संबंध रहेगा। फलादेश की यह सरलतम विधि है।
नक्षत्र का पहला चरण अन्धलोचन है, दूसरा चरण मन्द / काण लोचन है, तीसरा चरण मध्य लोचन है, चौथा चरण सुलोचन है। नक्षत्र का पहला चरण पूर्वदिशा है, दूसरा चरण दक्षिण दिशा है, तीसरा चरण पश्चिम दिशा है, चौथा चरण उत्तर दिशा है। नक्षत्र के पहले चरण में नष्ट वा खोई हुई वस्तु शीघ्र मिलती है, दूसरे चरण में ३ दिन बाद कष्ट से मिलती है, तीसरे चरण में मासोपरान्त सुनाई पड़ती है/मिलने की सम्भावना होती है, चौथे चरण में खोई वस्तु मिलती ही नहीं। यह सूक्ष्म फलादेशन का प्रकार है।

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