सत्येंद्र रंजन
फ्रांस का ताजा राजनीतिक अध्याय गहराती आशंकाओं के साये में शुरू हुआ, लेकिन उसका अंत आशाएं जगाते हुए हुआ है। आशंकाएं फ्रांस के Far-Right की गिरफ्त में चले जाने की थी, लेकिन अंत लोकतंत्र की नई संभावनाओं के उदय के साथ हुआ है। यहां जब हम लोकतंत्र की चर्चा कर रहे हैं, तो उसका अर्थ उस वास्तविक लोकतंत्र से है, जिसके केंद्र में सचमुच लोक- यानी आम जन होते हैं। इसका तात्पर्य उस दिखावटी लोकतंत्र से नहीं है, जिसमें चुनाव होते हैं, सत्ता संभालने वाली पार्टियां और नेता बदलते रहते हैं, लेकिन वास्तव में कुछ नहीं बदलता।
इस संदर्भ में ऑस्ट्रेलियाई अर्थशास्त्री स्टीव कीन की यह टिप्पणी ध्यान देने योग्य है- “सत्ताधारी पार्टी नव-उदारवादी नीतियों पर चलती है। अगले चुनाव में वह अपने प्रतिद्वंद्वी (या प्रतिद्वंद्वियों) से हार जाती है। जब प्रतिद्वंद्वी पार्टी सत्ता में आती है, तो वह भी नव-उदारवादी नीतियों पर ही चलती है। उसके बाद वाले चुनाव में वह पार्टी हार जाती है और पुरानी सत्ताधारी पार्टी फिर सत्ता में आती है (या कोई नई पार्टी सत्ता में आती है)। और वह फिर उन्हीं पुरानी नीतियों पर चलती है। यह चक्र इसी रूप में चलता रहता है।” (इस कथन का उद्धरण अर्थशास्त्री माइकल हडसन ने इसी विषय पर लिखे अपने एक आलेख में दिया है- The Need for a New Political Vocabulary | Michael Hudson (michael-hudson.com))
दरअसल, होता यह है कि चूंकि मूलभूत आर्थिक नीतियों पर विभिन्न दलों के बीच कोई फर्क नहीं बचा है, तो ये पार्टियां सांस्कृतिक-सामाजिक मुद्दों पर टकराव बढ़ाते हुए अपनी सियासत को आगे बढ़ाती हैं। या फिर विदेश में कोई कथित दुश्मन ढूंढ कर उसके खिलाफ युद्धोन्माद फैलाती हैं। कुछ पार्टियां इसके बीच अपेक्षाकृत उदार रुख रखती हैं और कुछ अधिक उग्र। उपलब्ध विकल्पों के बीच बस इतना ही फर्क होता है।
पिछले चार दशक से विकसित से विकासशील देशों तक में यही कहानी दोहराई जा रही रही है। इसका नतीजा विभिन्न देशों में उन पार्टियों के उभार के रूप में सामने आया है, जो सांस्कृतिक-सामाजिक मुद्दों पर उग्र कट्टरपंथी रुख अपनाती हैं। यह उभार इसलिए हुआ है क्योंकि ऐसी पार्टियां पिछले चार दशक के नव-उदारवादी दौर में पैदा हुए व्यापक जन असंतोष को संगठित करने में सफल रही हैं। चूंकि वे नई हैं, इसलिए सत्ता में रही कथित सेंटर-लेफ्ट एवं सेंटर-राइट पार्टियों से नाराज मतदाताओं को गोलबंद करना उनके लिए आसान साबित हुआ है। फिर मतदाता इसलिए भी उनके पाले में चले गए हैं, क्योंकि उनके पास कोई अन्य विश्वसनीय विकल्प मौजूद नहीं रहा है।
फ्रांस में नया अध्याय इसीलिए लिखा जा सका है, क्योंकि वहां मतदाताओं के सामने एक वास्तविक लेफ्ट विकल्प सामने आया। और जब वह विकल्प उभरा, तो फ्रांस के मतदाताओं के एक बड़े हिस्से ने उसे गले लगाया है। इससे जाहिर हुआ है, जब मतदाताओं के सामने कोई विश्वसनीय विकल्प आता है, तो वे उसे मौका देते हैं।
फ्रांस में यूरोपीय संसद के चुनाव के दौरान धुर-दक्षिणपंथी नेशनल रैली की बड़ी जीत के बाद फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने संसद को भंग कर मध्यावधि चुनाव कराने का दांव खेला। उनका दांव संभवतः यह था कि पिछले मौकों की तरह इस बार भी धुर-दक्षिणपंथ को रोकने के लिए सभी ताकतें उनकी पार्टी के पक्ष में लामबंद हो जाएंगी। लेकिन इस बार कुछ अलग हुआ। नौ जून को नए चुनाव की घोषणा के बाद अप्रत्याशित रूप से सभी वामपंथी समूह एकजुट हो गए। उन्होंने अपना मोर्चा- न्यू पॉपुलर फ्रंट (एनपीएफ) बना कर मतदाताओं के सामने एक रैडिकल एजेंडा पेश कर दिया।
इस मोर्चे में ला फ्रांस इसोमाइज, सोशलिस्ट पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी और ग्रीन पार्टी शामिल हुए। मोर्चे की धुरी ला फ्रांस इसोमाइज के नेता ज्यां-लुक मेलेन्शॉ (Jean-Luc Mélenchon – Wikipedia) हैं। 73 वर्षीय मेलेन्शॉ ने अपना राजनीतिक करियर फ्रांस की कम्युनिस्ट पार्टी से शुरू किया और बाद में वे सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हुए। उस दौर में सोशलिस्ट पार्टी मार्क्सवादी विचारधारा से प्रेरित थी। यह उस दौर की बात है, जब रैडिकल एजेंडे के साथ इस पार्टी के नेता फ्रांक्वां मित्तरां राष्ट्रपति चुने गए थे। मेलेन्शा सोशलिस्ट प्रधानमंत्री लियोनेल जोस्पां के कार्यकाल में मंत्री भी रहे। लेकिन इस सदी में जब सोशलिस्ट पार्टी नव-उदारवादी सेंटर-लेफ्ट पार्टी बन गई, तब उन्होंने उसे अलविदा कह कर अपनी पार्टी बनाई। पिछले राष्ट्रपति चुनाव में उन्हें लगभग 20 फीसदी वोट मिले थे। पिछली संसद में उनकी पार्टी तीसरी सबसे बड़ी पार्टी थी।
Far-Right के खतरे को देखते हुए इस बार उन्होंने तीन अन्य दलों के साथ मोर्चा बनाया। मोर्चा बनाने के लिए उन्होंने अपनी विदेश नीति संबंधी एजेंडे के कुछ बिंदुओं की कुर्बानी दी। मसलन, न्यू पॉपुलर फ्रंट ने नाटो के विरोध, यूक्रेन युद्ध से फ्रांस को अलग करने और गज़ा में इजराइली नरसंहार विरोधी मेलेन्शॉ के रुख को स्वीकार नहीं किया। लेकिन मेलेन्शॉ के रैडिकल आर्थिक कार्यक्रम को इस समूह ने अपनाया। इसके तहत फ्रंट ने जो वादे किए, उनमें शामिल हैं-
जरूरी खाद्य पदार्थों, बिजली, गैस और पेट्रोल की मूल्य सीमा लागू करना।
न्यूनतम वेतन में वृद्धि।
शिक्षा एवं स्वास्थ्य के बजट में भारी बढ़ोतरी।
ग्रीन एनर्जी में बड़ा निवेश।
रिटायरमेंट की उम्र घटाना, जिसे बढ़ा कर मैक्रों सरकार ने 64 वर्ष कर दिया है।
ऐसे वादे करने वाले दल या नेता से अक्सर यह पूछा जाता है कि इसके लिए संसाधन कहां से आएंगे। तो एनपीएफ ने इसका जवाब पहले से तैयार किया। उसने उतना राजस्व जुटाने की व्यावहारिक योजना लोगों के सामने रखी, जिससे ये वादे पूरे किए जाएंगे। इस योजना में शामिल है-
धनी लोगों पर आय कर में वृद्धि।
वेल्थ टैक्स की वापसी (जिसे मैक्रों सरकार ने रद्द कर दिया था)
ऊंची दर के साथ उत्तराधिकार कर लागू करना, आदि (The NPF Programme Goes Beyond Neo-Liberalism | Peoples Democracy)
पूंजीगत लाभ कर में वृद्धि।
इस एजेंडे ने मतदाताओं में उत्साह जगाया है। यह बात चुनाव नतीजों से जाहिर है। फ्रांस में संसदीय चुनाव दो चरण में होता है। जिन चुनाव क्षेत्रों में पहले चरण में किसी भी उम्मीदवार को 50 फीसदी से अधिक वोट नहीं मिलते, वहां दूसरे चरण का मतदान होता है। पहले दौर के मतदान में नेशनल रैली ही पहले स्थान पर रही, मगर दूसरा स्थान एनपीएफ ने हासिल कर लिया। बाद पहले चरण में तीसरे नंबर रहे मैक्रों के नेतृत्व वाला मोर्चा लेफ्ट के साथ तालमेल करने पर मजबूर हो गया। इसका ठोस नतीजा निकला।
दूसरे चरण के मतदान में एनपीएफ 577 सदस्यों वाली नेशनल असेंबली में 182 सीटें जीत कर पहले स्थान पर आया है। लेफ्ट की बैसाखी पर मैक्रों के नेतृत्व वाले मोर्चे एनसेंबल ने 168 सीटें जीतीं, जबकि नेशनल रैली 143 सीटों पर सिमट गई।
चूंकि किसी मोर्चे को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला है, इसलिए पश्चिमी मीडिया का कहना है कि फ्रांस सियासी उथल-पुथल के दौर में प्रवेश कर गया है। मुमकिन है कि यह बात सही साबित हो। लेकिन इस चुनाव नतीजे का महत्त्व इससे अलग है। महत्त्व यह है कि इस चुनाव ने मतदाताओं में नया उत्साह पैदा किया है। इस बात का प्रमाण चार दशक का सबसे ऊंचा मतदान प्रतिशत (लगभग 67 प्रतिशत) है। यह महत्त्व है लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के उस दुश्चक्र से निकल सकने की बनी उम्मीद, जिस दुश्चक्र की वजह से ये व्यवस्थाएं उत्तरोत्तर धनिक-तंत्र (plutocracy) में तब्दील होती गई हैं। इस घटनाक्रम का परिणाम इन समाजों में चौतरफा गिरावट के रूप में सामने आया है। फ्रांस इस घटनाक्रम का एक उदाहरण (France: Macron’s gamble – Michael Roberts Blog (wordpress.com)) भर है।
फ्रांस में जो हुआ, उसका महत्त्व और बेहतर समझना हो, तो पास के देश ब्रिटेन के घटनाक्रम पर गौर करना चाहिए। वहां लोगों के पास वास्तविक लेफ्ट विकल्प नहीं था, तो धुर दक्षिणपंथी होती गई कंजरवेटिव पार्टी को दंडित करने के लिए बड़ी संख्या में मतदाताओं ने उसका साथ छोड़ा, जिसका लाभ सेंटर-लेफ्ट लेबर पार्टी को मिला। सीटों की संख्या के लिहाज से लेबर पार्टी की जीत बड़ी मालूम पड़ती है। लेकिन उसे 2019 की तुलना में सिर्फ लगभग दो प्रतिशत वोट ज्यादा मिले। सकल संख्या में तो उसे पांच साल की तुलना में पांच लाख कम वोट प्राप्त हुए।
गौरतलब है कि इस बार ब्रिटेन में कुल मतदान में सात प्रतिशत की गिरावट आई। पिछली बार 64 प्रतिशत मतदान हुआ था। इस बार सिर्फ 57 फीसदी मतदाता वोट डालने आए। जो मतदान हुआ, उसमें कंजरवेटिव पार्टी के वोटों में 18 प्रतिशत से ज्यादा की गिरावट आई। मगर ये मतदाता लेबर की तरफ नहीं गए। उनमें से ज्यादातर ने कंजरवेटिव से भी ज्यादा धुर दक्षिणपंथी रिफॉर्म पार्टी को अपनाया, जिसके नेता निगेल फराज हैं। रिफॉर्म पार्टी को 14 प्रतिशत वोट मिले हैं। फराज वे नेता हैं, जिन्हें ब्रेग्जिट का अभियान शुरू करने का श्रेय दिया जाता है। तब उनकी पार्टी का नाम यूनाइटेड किंगडम इंडिपेंडेन्स पार्टी था।
तो कुल कहानी यह है कि ब्रिटेन की राजनीति धुर दक्षिणपंथ के दुश्चक्र से नहीं निकली है। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि नव-उदारवादी सेंटर-लेफ्ट लेबर पार्टी कोई नया एजेंडा देने में विफल रही। फ्रांस में मेलेन्शॉं के नेतृत्व में एनपीएफ ने ऐसा किया। इसीलिए वहां का ताजा चुनाव एक मील का पत्थर बन गया है। वहां से सारी दुनिया को Far-Right का मुकाबला करने और उसे परास्त करने का एक फॉर्मूला मिला है।(