जीवन में जो सबसे बड़ा भय होता है वह इहलोक का कम, उहलोक का ज्यादा होता है जिससे विरत वही रह सकता है जो समाजवादी हो, नास्तिक हो या यूं कहें कि तर्कवादी, पदार्थवादी, वास्तविक व पाखंड विरोधी हो। मण्डल मसीहा शरद यादव जी एक समर्पित, वैचारिक एवं विशुद्ध समाजवादी थे जिन्होनें अपने जीवन में कभी भी किसी धर्मस्थल पर जीत या किसी अन्य प्रयोजन के लिए माथा नहीं टेका, शीश नहीं झुकाया।
चौ. लौटनराम निषाद
समाजवादी आन्दोलन की उपज शरद यादव का व्यक्तित्व-कृतित्व बिल्कुल खुला था। उनकी कथनी-करनी में कोई अंतर नहीं दिखाई दिया।वे शुरू से ही चौका और चौकी की राजनीति में एक लय बनाकर खुले ऐलान की राजनीति करते रहे। वे जो बात राजनीतिक मंचों पर करते थे उसके सामाजिक व राजनीतिक मूल्य में बिल्कुल अंतर नहीं दिखता था। उनका सामाजिक न्याय व पाखंड विरोधी व्यक्तित्व खुली किताब की तरह साफतौर पर दिखाई देता था। वे सामाजिक न्याय के प्रबल समर्थक, कट्टर पहरुआ व धार्मिल पाखंड, अंधविश्वास के कट्टर विरोधी थे।
शरद यादव का संपूर्ण राजनीतिक जीवन देखें तो उनका ज्यादातर वक्त अपनी पक्की जमीन तलाशने में ही बीता। हालांकि इतिहास शरद यादव को इसलिए तो याद रखेगा ही कि उन्होंने उस सामाजिक न्याय की बुनियाद रखी, जिसका देश की राजनीति को अर्से से इंतजार था।
शरद यादव को भारत के राजनीतिक सामाजिक इतिहास, मुख्यत: समाजवाद की उस धारा को निर्णायक मोड़ देने के लिए याद किया जाएगा।
मण्डल कमीशन की सिफारिश लागू कराने में रही सबसे अहम भूमिका
शरद यादव को भारत के राजनीतिक सामाजिक इतिहास में मुख्यत: समाजवाद की उस धारा को निर्णायक मोड़ देने के लिए याद किया जाएगा, जिसमें सामाजिक न्याय का मुद्दा आर्थिक समता से कहीं ज्यादा अहम था। समाजवादी चिंतक डाॅ. राममनोहर लोहिया कहा करते थे, कि भारत में वर्ग संघर्ष वास्तव में जाति संघर्ष के रूप में है। यानी जब तक जातिवाद नहीं मिटेगा, तब तक देश में आर्थिक समानता केवल सपना है। डॉ. लोहिया का नारा हुआ करता था-‘सोशलिस्टों ने बाँधी गाँठ, पिछड़े पावें सौ में साठ’, सामाजिक न्याय की इस विचारधारा के सबसे बड़ा समर्थक व पैरोकार कोई नेता भारतीय राजनीति में हुआ तो वह नाम शरद यादव का है। मण्डल कमीशन की सिफारिश को लागू कराने में सबसे बड़ी भूमिका शरद यादव की रही। राजर्षि वीपी सिंह चुनाव घोषणा पत्र में किये गए वादे के अनुसार पिछड़ी जातियों को सरकारी सेवाओं में 27 प्रतिशत आरक्षण कोटा देने के लिए प्रतिबद्ध थे, पर उनके अंदर कुछ कशमकश की स्थिति स्पष्ट निर्णय लेने पर संशय पैदा कर दे रही थी, ऐसे में शरद यादव ने साफतौर पर कह दिया कि परिणाम चाहे कुछ भी हो, मण्डल आयोग की सिफारिश को लागू करना ही पड़ेगा। वे सामाजिक-राजनीतिक मूल्यों की रक्षा के लिए प्रेशर ग्रुप की भी राजनीति करने से नहीं चूकते थे।
कट्टर हिन्दुत्व के प्रबल विरोधी
हालांकि इस विचार में भी कई खामियां हैं, लेकिन भारतीय समाज व्यवस्था को लेकर यह एक बुनियादी अवलोकन है। शरद यादव कट्टर समाजवादी थे, जिनमें कुछ हद तक सुविधावाद भी शामिल था। लेकिन सुविधावाद के लिए उन्होंने समाजवादी व सामाजिक न्याय की विचारधारा से अपने को कभी अलग नहीं किया। जब भाजपा ने 2013 में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित किया तो बिना देर किए राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के संयोजक पद से इस्तीफा दे दिए, क्योंकि वे शुरू से ही कट्टर हिन्दुत्व के विरोधी रहे हैं।
राजनीतिक जीवन में आता रहा उतार-चढ़ाव
शरद यादव का पूरा राजनीतिक जीवन उतार-चढ़ाव से भरा रहा है। मसलन उनका जन्म मध्यप्रदेश की धरती पर होशंगाबाद जिले के उस बाबई गांव में हुआ, जिसे दादा माखनलाल चतुर्वेदी का गांव कहा जाता है। शिक्षा उन्होंने जबलपुर इंजीनियरिंग काॅलेज में प्राप्त की। लोहिया के बाद वह समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण के अनुयायी हुए और संपूर्ण क्रांति आंदोलन में खुलकर भाग लिया। इस वजह से जेल भी गए।
उस वक्त देश की सबसे ताकतवर राजनीतिक दल कांग्रेस तथा उसकी नेता इंदिरा गांधी की अधिनायकवादी कार्यशैली के खिलाफ शरद यादव पुरजोर तरीके से उठ खड़े हुए थे। विपक्षी एकता की पहली इबारत जबलपुर में 1974 के लोकसभा उपचुनाव में तब लिखी गई थी, जब जेपी ने विपक्ष के संयुक्त उम्मीदवार के रूप में शरद यादव को चुनाव में उतारा। जबकि कांग्रेस ने पार्टी के दिग्गज नेता और जबलपुर की एक बड़ी हस्ती सेठ गोविंददास के निधन के बाद उनके पुत्र रवि मोहन दास को टिकट दिया था। उस चुनाव में युवाओं ने शरद यादव के पक्ष में जबरदस्त प्रचार किया। इसे धनबल के मुकाबले जनबल की जीत बताया गया। शरद की जीत, देश में राजनीतिक बदलाव का शंखनाद माना गया। हालांकि बाद में शरद यादव ने उसूलों की खातिर लोकसभा से इस्तीफा दे दिया। उसके पीछे कारण तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा इमरजेंसी के दौरान लोकसभा चुनाव कराने की जगह उसका कार्यकाल एक साल (5 वर्ष से 6 वर्ष करना) बढ़ा देना था।
आपातकाल हटने और उसके बाद हुए आम चुनावों में विरोधाभासों से भरी जनता पार्टी के दिल्ली में सत्तासीन होने के बाद शरद यादव राष्ट्रीय राजनीति में चमकने लगे। लेकिन सीधी सत्ता से दूर ही रहे। इसी दौरान पिछड़े वर्गों को राजनीति में समुचित प्रतिनिधित्व और अगड़ी जातियों के वर्चस्व को चुनौती देने की शुरुआत हो चुकी थी। क्योंकि पिछड़ी जातियों की महत्वाकांक्षा आर्थिक समानता से ज्यादा सामाजिक समानता हासिल करने में ज्यादा रही है।
पिछड़े वर्गों के लिए लड़ी लड़ाई
जैसा कि डर था, जनता पार्टी की सरकार बड़े नेताओं की महत्वाकांक्षाओं की शिकार होकर जल्द ही गिर गई। इस बीच शरद यादव राजनीति में पिछड़ों के समान अधिकार को लेकर काम करते रहे। उन्होंने अपनी राजनीतिक जमीन मध्यप्रदेश से बदलकर उत्तरप्रदेश व बिहार में तलाशनी शुरू कर दी। इसका कारण शायद यह था कि मप्र में अभी भी जातिवादी राजनीति वह आकार नहीं ले पाई है, जो यूपी बिहार में संभव हुआ। क्योंकि मप्र की जनसांख्यिकी मिश्रित है। इसलिए किसी एक जाति के समर्थन के भरोसे न तो सत्ता हासिल की जा सकती थी और न ही निरंतर सत्ता में रहा जा सकता था। शरद जिस राजनीति की दिशा में आगे बढ़ना चाहते थे, उसके लिए मप्र मुफीद नहीं था।
मध्य प्रदेश की पिछड़ा राजनीति को धार नहीं दे पाये शरद जी
जातिगत सामाजिक समीकरण की दृष्टि से मध्यप्रदेश में पिछड़ों आबादी 51-52 प्रतिशत है।जिसमें लोधी, कुर्मी, निषाद, यादव, कोयरी प्रभावी जातियाँ हैं, पर वहाँ सामाजिक न्याय की पृष्ठभूमि की राजनीति को धार नहीं दिया गया। शुरू से ही देखा जाय तो वहाँ कांग्रेस व भाजपा में आमने-सामने की लड़ाई रहती है। यह सच है कि मध्यप्रदेश की राजनीति का आधार पिछड़ा ही है, पर सामाजिक न्याय आधारित कोई दल वहाँ उभर नहीं पाया। शरद यादव वहाँ सामाजिक न्याय को मजबूत आधार दे सकते थे, पर बाहरी राजनीति में सक्रियता के कारण वहाँ उत्तर प्रदेश व बिहार की तरह राजनीतिक मंच नहीं बन पाया। समाजवादी पार्टी मध्यप्रदेश में दो दलीय राजनीति को तीन दलीय बना सकती थी, पर उसने भी अपने को उत्तर प्रदेश तक ही सीमित रखा। कांग्रेस ने सुभाष यादव को उपमुख्यमंत्री तक सीमित रखा, वहीं भाजपा को पिछड़ों की ताकत का अहसास हुआ तो उसने पिछड़ों को मुख्यमंत्री के तौर पर आगे किया, लेकिन वे वर्गीय हित पर कोई निर्णय लेने में अपने को सक्षम नहीं बना पाये। लोधी बिरादरी की उमा भारती के बाद यादव बिरादरी के बाबूलाल गौर व किरार जाति के शिवराज सिंह चौहान को आगे किया। मध्यप्रदेश में किरार पिछड़ी जाति में आती है, इसे धाकड़ भी कहते हैं। उत्तर प्रदेश में किरार सामान्य वर्ग में है जो अपने को क्षत्रिय से जोड़ते हैं।
मध्यप्रदेश की जबलपुर लोकसभा से 1974 व 1977 में सांसद बनने के बाद शरद यादव को यूपी की राजनीति रास आई। 1981 में अमेठी से राजीव गाँधी के सामने चुनाव लड़े और 1985 में बदायूँ से उम्मीदवारी दाखिल की लेकिन कांग्रेस प्रत्याशी से हार गए। 1989 में जनता दल के टिकट पर बदायूँ से चुनाव जीतकर संसद में कदम रखा और वीपी सिंह सरकार में कपड़ा मंत्री बने। बाद में शरद यूपी छोड़कर बिहार चले गए, जहां अपने सजातीयों का नेता बनना उनके लिए ज्यादा आसान था। उन्होंने अपने लोकसभा चुनाव क्षेत्र में उन्होंने मधेपुरा को चुना, जहां यादव बहुसंख्यक हैं। वहां यह नारा मशहूर रहा है- ‘रोम है पोप का, मधेपुरा है गोप का।’ यहाँ से बीपी मण्डल जी भी सांसद रह चुके हैं।
शरद यादव को भारत के राजनीतिक सामाजिक इतिहास में मुख्यत: समाजवाद की उस धारा को निर्णायण मोड़ देने के लिए याद किया जाएगा,जिसमें सामाजिक न्याय की पृष्ठभूमि कुलाचे मारती थी। उनका संपूर्ण राजनीतिक जीवन देखें तो उनका ज्यादातर वक्त अपनी पक्की जमीन तलाशने में ही बीत गयी।
मंडल आयोग की रिपोर्ट का राजनीति पर असर
शरद यादव के राजनीतिक जीवन का चरम बिंदु 1989 में तत्कालीन वीपी सिंह सरकार में मंत्री रहते हुए पिछड़ों को नौकरी व शिक्षा में आरक्षण की सिफारिश करने वाली ‘मंडल आयोग’ की रिपोर्ट लागू करवाना था। कहते हैं कि वीपी सिंह इस रिपोर्ट से होने वाली सामाजिक उथल-पुथल की संभावना के मद्देनजर इसे लागू करने के पक्ष में आग-पिछ सोच रहे थे। लेकिन उनके मंत्रिमंडल के दो युवा सहयोगियों शरद यादव और राम विलास पासवान ने इसे उन पर दबाव डालकर लागू करवाया, यह मानकर कि इससे कांग्रेस कमजोर हो सकती है। इस रिपोर्ट के लागू होने की घोषणा के बाद ही देश की राजनीति में भूचाल आ गया। मंडल आयोग की रिपोर्ट के बाद हिंदू समाज के और विभाजित होने की आशंका के बीच भाजपा और संघ ने राममंदिर आंदोलन को खड़ा किया। समूची सियासत मंडल बनाम कमंडल में सिमट गई। इसका आगे चलकर परिणाम यह हुआ कि पिछड़ी जातियों को नौकरियों और शिक्षा में बहुप्रतीक्षित आरक्षण तो मिला, लेकिन यह लक्ष्य काफी हद तक पूरा होने के बाद अधिकांश पिछड़ी जातियां भगवा रंग में रंग गईं।
उधर शरद यादव के दूसरे समाजवादी साथियों लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह और नीतीश कुमार ने क्षेत्रीय राजनीति को साधते हुए जातिवादी राजनीति में ही अपना लाभ देखा और बाद में उन्हीं शरद यादव को लगभग हाशिए पर ढकेल दिया, जिनको वे समाजवादी आंदोलन में अपना बड़ा भाई मानते थे। यह भी विडम्बना ही है कि मंडल राजनीति का खूंटा गाड़ने के बाद शरद उसी अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में मंत्री रहे, जिसके सत्ता में आने के पीछे अटलजी के व्यक्तित्व के साथ-साथ कमंडल का भी बड़ा करिश्मा था।
उम्र भर जमीन तलाशते रहे शरद यादव
शरद यादव का संपूर्ण राजनीतिक जीवन देखें तो उनका ज्यादातर वक्त अपनी पक्की जमीन तलाशने में ही बीता। कोई भी सीट ऐसी नहीं थी, जिसे वह दावे के साथ अपना कह सकते थे। राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा के चलते वह क्षेत्रीय नेता भी नहीं बन सकते थे, जैसा कि लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव या नीतीश कुमार ने किया। क्योंकि इन सबके लिए समाजवाद जाति-धर्म में लिपटा सत्तावाद ही था। दूसरी तरफ देश में कमंडल राजनीति का दूसरा चरण शरद यादव जैसे नेताओं के राजनीतिक गुमनामी में जाने का कारण बना। आर्थिक उदारीकरण के बाद देश में एक उपभोगवादी और धार्मिक आग्रहों में लिपटा तबका आकार ले रहा था। यूपीए-2 सरकार के जाते-जाते कमंडल राजनीति की जमीन पुख्ता हो चुकी थी। हिंदू समाज में जातीय विभाजन धार्मिक विभाजन के आगे कमजोर पड़ चुका था ( यह बात अलग है कि कुछ क्षेत्रीय नेता अब हिंदुत्व के खिलाफ फिर उसी जाति राजनीति को हवा देने में लगे हैं, इसके नतीजे क्या होंगे, यह आगे पता चलेगा)।
संघ द्वारा 2013 में नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का दावेदार घोषित करने के बाद शरद यादव ने एनडीए संयोजक पद से इस्तीफा दे दिया तो उधर बिहार में सत्तारूढ़ जदयू ने भाजपा गठबंधन को तोड़ दिया। तमाम विपक्षी नेताओं के पूर्वानुमानों को तगड़ा झटका देते हुए लोकसभा चुनावों में भाजपा ने मोदी के नेतृत्व में अपने दम पर ही बहुमत हासिल कर लिया, हालांकि सरकार उसने सहयोगी दलों को साथ लेकर एनडीए की बनाई।
मोदी युग में कमजोर पड़ गई थी राजनीति
मोदी युग में कट्टर हिंदुत्व की राजनीति में शरद यादव जैसे नेताओं की खास जगह नहीं बची। दरसअल मोदी के प्रधानमंत्री बनने के साथ देश में ओबीसी के राजनीतिक वर्चस्व की आकांक्षा का वह चक्र पूरा हो गया था, जिसे शरद यादव ने मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू करवा कर शुरू किया था। 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी ने खुलकर बताया कि वह पिछड़े वर्ग से हैं। मोदी के पीएम बनने और फिर 2019 के लोकसभा चुनाव में और ज्यादा ताकत के साथ सत्ता में लौटने का अर्थ यही था कि शरद अपने ही खेल में मात खा गए थे। कमंडल ने मंडल को अपने भीतर समेट लिया था। यह बात निर्विवाद है कि मोदी के पीछे आज देश की बहुसंख्यक पिछड़ी जातियों का समर्थन है और आगे भी इसमें खास फर्क पड़ने वाला नहीं है। कहते हैं कि शरद यादव अपनी अस्वस्थता के बावजूद कोशिश में थे कि मोदी के हिंदुत्व के खिलाफ वह विपक्षी दलों को एक करें। लेकिन यह काम उतना आसान नहीं है। क्योंकि 21वीं सदी में राजनीति के आयाम बदल गए हैं।
बहरहाल इतिहास शरद यादव को इसलिए तो याद रखेगा ही कि उन्होंने उस सामाजिक न्याय की बुनियाद रखी, जिसका देश की राजनीति को अर्से से इंतजार था।
धार्मिक पाखंड के कट्टर विरोधी थे शरद
जीवन में जो सबसे बड़ा भय होता है वह इहलोक का कम, उहलोक का ज्यादा होता है जिससे विरत वही रह सकता है जो समाजवादी हो, नास्तिक हो या यूं कहें कि तर्कवादी, पदार्थवादी, वास्तविक व पाखंड विरोधी हो। मण्डल मसीहा श्रद्धेय शरद यादव जी एक समर्पित, वैचारिक एवं विशुद्ध समाजवादी थे जिन्होनें अपने जीवन में कभी भी किसी धर्मस्थल पर जीत या किसी अन्य प्रयोजन के लिए माथा नहीं टेका, शीश नहीं झुकाया। उनका शीश जनता के समक्ष झुका, पर किसी देवी-देवता, स्वयंभू ईश्वर, कालों के काल को उन्होने कभी भी अपना आराध्य नहीं माना। वे कहते थे कि हम चुनाव जीते या हारें, हम किसी देवी-देवता के सामने नहीं झुकेंगे और न मन्दिर-मस्ज़िद की परिक्रमा करेंगे।
मधेपुरा के उपचुनाव में उन्होने देश की लाचारी व गरीबी पर बोलते हुए कहा था कि एक हिन्दू पर दो-दो देवता हैं फिर भी हम गरीब, लाचार, बीमार, बेकार हैं। जबकि अमेरिका में कोई देवता नहीं है तो भी वह विकसित राष्ट्र है।
उन्होने इसी संदर्भ में बताया था कि मेरे गांव में एक गरीब किसान के खेत में कुछ धार्मिक धंधेबाज लोगों ने एक मूर्ति रख कीर्तन गाना शुरू कर दिया था, जहां उनकी प्लांनिग थी कि यह प्रचार कर कि इसके खेत में मूर्ति चमत्कारिक रूप से निकल आई है, मंदिर हेतु उसे कब्जिया लिया जाय। वह गरीब आदमी शरद यादव के पास गया जिसके बाद शरद जी घर के कुछ लोगों को लट्ठ के साथ लेकर वहां पहुंचे। शरद जी को लट्ठ के साथ देख कीर्तन गाने वाले पलायित होकर भाग गए। शरद जी ने बताया था कि उन्होंने मूर्ति को गोद में उठाया और सड़क पर लाकर यह कहते हुए पटक दिया कि कुछ दिनों के लिए तुम लोग अमेरिका चले जाओ ताकि हमलोग निश्चिंत हो बिना देवी-देवता वाले अमेरिका की तरह सम्पन्न हो सकें।
सामाजिक व लैंगिक विषमता की करते थे चिंता
शरद यादव जी लैंगिक विषमता, जाति व्यवस्था, धार्मिक आडंबरों एवं स्वर्ग-नरक आदि के अतार्किक विचारधारा को नकारने वाले महापुरुष थे। लिहाजा उनके निर्वाणोपरांत उन्हें उनकी इच्छा पर उनके बेटे शांतनु व बेटी सुभाषिनी द्वारा संयुक्त रूप से उनके पैतृक गांव आंखमऊं , बाबई (माखननगर), होशंगाबाद (नर्मदापुरम), मध्यप्रदेश में अग्नि को समर्पित किया गया। वे बेटा-बेटी के अंतर को नकारने वाले महापुरुष थे लिहाजा अपनी अंत्येष्टि का अधिकार बेटे के साथ बेटी को भी देने का निर्देश दे रखा था।
मृत्युपरांत व्यक्ति की अस्थियों को चुनकर इलाहाबाद संगम या हरिद्वार आदि स्थानों पर गंगा में विसर्जित करने की परंपरा है, जिसे गंगा को प्रदूषित करने वाला प्रकृतिद्रोही कदम मानते हुए शरद यादव जी ने अपनी अस्थियों को अपनी जन्मभूमि आंखमऊं-बाबई में तथा कर्मभूमि मधेपुरा की मिट्टी में दबा देने की बात कही थी, तदनुसार उनके अस्थिकलश को बाबई में मिट्टी में समर्पित कर मधेपुरा की मिट्टी में समर्पित करने हेतु दूसरा अस्थिकलश रख लिया गया है।
शरद यादव से लेकर लोहिया जी तक की स्पष्ट अवधारणा रही है कि मृत्युभोज नहीं होना चाहिए, लिहाजा स्मृतिशेष शरद यादव के परिजनों ने प्रेस विज्ञप्ति जारी कर स्पष्ट कर दिया है कि शरद यादव जी की स्मृति में उनकी इच्छानुसार कोई भोज न कर श्रद्धांजलि सभा ही की जाएगी। श्रद्धेय शरद यादव जी नीति-नियंता थे। वे सामाजिक परिवर्तन के वाहक थे जो उन्होंने जीते-जी भी अपने व्यक्तिगत जीवन में कठोरता से अपनाए रखा तथा मृत्यु के उपरान्त भी सारे आडम्बरों से अपने परिजनों से विरत रहने का निर्देश देकर गए, जिसका अनुपालन करते हुये उनकी सम्माननीया पत्नी डॉ. रेखा यादव, सुपुत्र शांतनु व सुपुत्री सुभाषिनी समाज को शरद यादव जी द्वारा बताए गए रास्ते पर चलते हुये सारे आडम्बरों को त्यागने पर अडिग हैं।
शरद यादव से जब भी उनके दिल्ली आवास पर या किसी सम्मेलन में मुलाकात होती थी तो सदैव वे सामाजिक न्याय की बात करते हुए इसे विस्तारित रूप देने की सलाह देंते थे। वे कहते थे कि देवी-देवता पिछड़ों, वंचितों को जाहिल-जपाट व मूर्ख बनाकर लूटने के साधन हैं।तथाकथित भगवान व देवी-देवता कभी आपका उद्धार नहीं कर सकते। पाखण्डवाद ने ही पिछड़ों, वंचितों को मुख्यधारा से भटकाकर मानसिक गुलाम व आर्थिक दोहन का शिकार बनाकर कमजोर कर दिया है। गंगा स्नान से यदि मोक्ष मिलता तो मोक्ष के असली हकदार तो निषाद हैं, फिर जिल्लत,अपमान, तिरस्कार, अशिक्षा, गरीबी की मार क्यों झेल रहे? वे यह भी कहते थे कि प्रतिकूल-अनुकूल परिस्थितियां आती जाती रहती हैं, पर जो भी सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ रहे हैं, उन्हें अपनी विचारधारा पर अडिग रहना चाहिए। जो नेता एक हाथ में मण्डल कमीशन व दूसरे हाथ में मनुस्मृति या एक हाथ में संविधान व दूसरे हाथ में परशुराम का फावड़ा उठाता है, वह अपनी कौम को धोखा दे रहा है।
चौ. लौटनराम निषाद सामाजिक न्याय चिन्तक व भारतीय ओबीसी महासभा के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं।