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उपनिषदों में अश्लीलता नहीं विशुद्ध सत्यता

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डॉ. विकास मानव

  _कतिपय धूर्त/विकृत लोगों ने सोशल मीडिया के ज़रिए कुछ उपनिषदों के मंत्रों को बीच-बीच मे से दिखाके बिना उनका पूरा प्रकरण दिए उनमें अश्लीलता सिद्ध करने की कोशिश की है। उपनिषदों की महिमा बड़े बड़े नोबेल पुरस्कार विजेता स्क्रॉडिंजर, बोहर, प्लैंक आदि गा चुके हैं. ह्यूम शॉपेनहावर जैसे विदेशी दार्शनिकों सहित औरंगजेब के बड़े भाई दारा शिकोह का उपनिषद् प्रेम जग जाहिर था।_
  उपनिषद् भारतीय ज्ञान के स्वर्ण मुकुट हैं और वेदों के भी। दुष्टों द्वारा कुछेक मंत्रांश का अनर्गल किया जा रहा है बाकि 99% आत्मज्ञान के मंत्रों से इन्हें कोई लेना देना नहीं इन्हें तो बस यह 1% ही दिखाई देता है और उसे भी सही से नहीं बताते.

आईये देखते हैं औपनिषदिक सत्यता
मुख्य उपनिषद् 11 हैं :
ऐतरेय,
तैत्तिरीय,
कठ,
प्रश्न,
ईशावास्य,
बृहदारण्यक,
श्वेताश्वतर,
छांदोग्य,
केन,
मांडूक्य
और मुंडक।

उपमन्त्रयते स हिंकारो ज्ञपयते स प्रस्तावः स्त्रिया सह शेते स उद्गीथः प्रति स्त्रीं सह शेते स प्रतिहारः कालं गच्छति तन्निधनं पारं गच्छति तन्निधनमेतद्वामदेव्यं मिथुने प्रोतम् ॥१॥ (छान्दोग्य).
अर्थ : पुरुष जो संकेत करता है वह हिंकार है, जो तोष देता है वह प्रस्ताव है, स्त्री के साथ जो सोता है वह वह उद्गीथ है, अपनी अनेक पत्नियों में से प्रत्येक के साथ जो शयन करता है वह प्रतिहार है, मिथुन द्वारा जो समय बिताता है वह निधन है, मैथुन आदि क्रिया की जो समाप्ति करता है वह भी निधन ही है, यह वामदेव्यसाम मिथुन में ओतप्रोत है.

स य एवमेतद्वामदेव्यं मिथुने प्रोतं वेद मिथुनी भवति मिथुनान्मिथुनात्प्रजायते सर्वमायुरेति ज्योग्जीवति महान्प्रजया पशुभिर्भवति महान्कीर्त्या न कांचन परिहरेत्तद्व्रतम् ॥२॥ (छान्दोग्य).
अर्थ : जो पुरुष इस प्रकार इस वामदेव्यसाम को मिथुन में ओतप्रोत जानता है, वह मिथुनवान होता है, प्रत्येक मैथुन से सन्तान को जन्म देता है। सारी आयु का उपभोग करता है, उज्ज्वल जीवन बिताता है । प्रजा और पशुओं के के कारण महान् होता है तथा कीर्ति के कारण भी महान् होता है। जिस उपासक के अनेक पत्नियाँ हों वह उनमें से किसी का भी परित्याग न करे, यह व्रत है।

छांदोग्य तथा बृहदारण्यक उपनिषदों में कई प्रकार के साधन बतलाए गए हैं उपासना के, हर क्रिया में ब्रह्म का दर्शन करने के लिए, चाहे वो संसार कि कोई भी क्रिया क्यों न हो।
हर क्रिया में ब्रह्म का दर्शन करने के लिए हर क्रिया को एक यज्ञ कि भांति देखो।
यही बात भगवद् गीता 3:9 में भी कही गई है :
यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर॥९॥

अर्थ : यज्ञ के निमित्त किए जाने वाले कर्मों से अतिरिक्त दूसरे कर्मों में लगा हुआ ही यह मुनष्य समुदाय कर्मों से बँधता है। इसलिए हे अर्जुन! तू आसक्ति से रहित होकर उस यज्ञ के निमित्त ही भलीभाँति कर्तव्य कर्म कर।
यह यज्ञ किस प्रकार होता है और उसका क्या फल है यह भी भगवद् गीता 4:23-24 पर कहा गया है :
गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः।
यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयतेII
ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना॥

अर्थ : जिसकी आसक्ति सर्वथा नष्ट हो गई है, जो देहाभिमान और ममता से रहित हो गया है, जिसका चित्त निरन्तर परमात्मा के ज्ञान में स्थित रहता है- ऐसा केवल यज्ञसम्पादन के लिए कर्म करने वाले मनुष्य के सम्पूर्ण कर्म भलीभाँति विलीन हो जाते हैं।
जिस यज्ञ में अर्पण अर्थात स्रुवा आदि भी ब्रह्म है और हवन किए जाने योग्य द्रव्य भी ब्रह्म है तथा ब्रह्मरूप कर्ता द्वारा ब्रह्मरूप अग्नि में आहुति देना रूप क्रिया भी ब्रह्म है- उस ब्रह्मकर्म में स्थित रहने वाले योगी द्वारा प्राप्त किए जाने योग्य फल भी ब्रह्म ही हैं।
छांदोग्य उपनिषद् के दूसरे अध्याय के 15वें और 16वें खंड में बादलों के बरसने में भी ब्रह्म का दर्शन करने का उल्लेख है और सूर्य के उदय और अस्त होने में भी ब्रह्म का दर्शन करने का उल्लेख है, 17वें खंड में तो पृथ्वी अंतरिक्ष हर स्थान पर ब्रह्म के दर्शन का उल्लेख है। (उद्गीथ का अर्थ ॐकार अर्थात् ब्रह्म होता है)।
यानी जगत् की हर क्रिया में ब्रह्म को देखो और हर क्रिया को यज्ञ की भांति जानो जिससे कि तुम उस कर्म में आसक्ति न लाओ और वह कर्म तुम्हारे बंधन का कारण न बन सके।
इसी भांति छांदोग्य उपनिषद् 2:13:1-2 में संभोग क्रिया में भी ब्रह्म के दर्शन का उल्लेख किया गया है और उसे भी यज्ञ कि भांति देखा गया है, क्योंकि संसार कि हर क्रिया में संभोग भी तो है। और यह संभोग कि क्रिया अपनी स्त्रीयों अर्थात् पत्नीयों सहित करने का उल्लेख है किसी भी पराई स्त्री के संग नहीं और यह भी कहा गया है की अपनी अनेकों पत्नियों में से किसी का भी परित्याग न करें यानी उनका सहारा बनें, उनकी देखभाल की ज़िम्मेदारी पति की है।

योषा वाव गौतमाग्निस्तस्या उपस्थ एव समिद्यदुपमन्त्रयते स धूमो योनिरर्चिर्यदन्तः करोति तेऽङ्गारा अभिनन्दा विस्फुलिङ्गाः॥१॥ (छान्दोग्य).
अर्थ : हे गौतम ! स्त्री ही अग्नि है। उसका उपस्थ(गुप्तांग) ही समिध्(यज्ञ की लकड़ी) है, पुरुष जो उपमंत्रण(आमंत्रण) करता है वह धूम(धूंआ) हैं, योनि ज्वाला है, जो भीतर की ओर करता है वह अंगार हैं और उससे जो आनन्द होता है वह विस्फुलिंग(चिंगारी) हैं।
तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवा रेतो जुह्वति तस्या आहुतेर्गर्भः संभवति॥२॥ (छान्दोग्य).

अर्थ : उस इस अग्नि में देवगण वीर्य का हवन करते हैं । उस आहुति से गर्भ उत्पन्न होता है।

बृहदारण्यक उपनिषद् 6:2:13 :
योषा वा आग्निर् गौतम । तस्या उपस्थ एव समिल् लोमानि धूमो योनिरर्चिर् यदन्तः करोति तेऽङ्गारा अभिनन्दा विस्फुलिङ्गास् तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवा रेतो जुह्वति तस्या आहुत्यै पुरुषः सम्भवति । स जीवति यावज्जीवत्य् अथ यदा म्रियते॥
अर्थ : हे गौतम ! स्त्री ही अग्नि है। उसका उपस्थ ही समिध् है, लोम धूम हैं, योनि ज्वाला है, जो भीतर की ओर करता है वह अंगार हैं और उससे जो आनन्द होता है वह विस्फुलिंग हैं। उस इस अग्नि में देवगण वीर्य का हवन करते हैं। उस आहुति से पुरुष उत्पन्न होता है । वह जीवित रहता है । जब तक कर्म शेष रहते हैं, वह जीवित रहता है और जब मरता है।

संसार कि हर क्रिया और वस्तु में ब्रह्म का दर्शन करके उसे यज्ञ की भांति देखने को कहा गया है। उसी तरह से इन मंत्रों मे संतान प्राप्ति के लिए किए जाने वाले संभोग को यज्ञ की भांति देखा गया है।
इन मंत्रों से पहले छांदोग्य उपनिषद् के 5वें अध्याय के खंड 4 से 7 तक बादलों के बरसने, पृथ्वी, पुरुष आदि संसारिक वस्तुओं और क्रियाओं को भी यज्ञ की भांति दर्शाया गया है.

5वें खंड में कहा गया है :
पर्जन्यो वाव गौतमाग्निस्तस्य वायुरेव समिदभ्रं धूमो विद्युदर्चिरशनिरङ्गाराह्रादनयो विस्फुलिङ्गाः॥१॥ तस्मिन्नेतस्मिन्नग्नौ देवाः सोमꣳ राजानं जुह्वति तस्या आहुतेर्वर्षꣳ संभवति॥२॥
अर्थ : हे गौतम ! पर्जन्य(बादल) ही अग्नि है। उसका वायु ही समिध्(यज्ञ की लकड़ी) है, बादल ही धूम(धूंआ) हैं, विद्युत ज्वाला है, वज्र(बिजली) अंगार है और गर्जन विस्फुलिंग(चिंगारी) हैं। उस इस अग्नि में देवगण राजा सोम का हवन करते हैं। उस आहुति से वर्षा होती है।

बृहदारण्यक उपनिषद् 6:2:9-12 मे बादलों के बरसने इत्यादि सांसारिक प्रक्रियाओं को यज्ञ की भांति दर्शाया गया है। उसी भांति संभोग भी तो एक सांसारिक प्रक्रिया ही है, उसे भला गंदी दृष्टि से क्यों देखा जाए?
हमारे शास्त्रों में संभोग पर भी लिखा गया है पर संभोग पर लिखना अश्लीलता कब से हो गया, जो स्कूलों में बच्चे 8वीं दसवीं कक्षाओं में विज्ञान की पुस्तक में मानव गुप्तांग और निषेचन के विषय में पढ़ते हैं क्या वो भी अश्लीलता है?
आज तो sex education को बढ़ावा दिया जा रहा है और दिया जाना भी चाहिए, इसमें भला क्या अश्लीलता? यह तो अश्लीलता को जड़ से खत्म करने का ही कारण होगा। कौन है जो संभोग को नहीं जानता? सब जानते हैं और सब इसी के कारण से जगत् मे आए है तो इस प्रक्रिया को समझने और इसे सही दृष्टि से देखने की आवश्यकता है।

उपनिषदों में इसे संसार कि अन्य प्रक्रियाओं के साथ ही शामिल किया गया है और इसमें भी ब्रह्म का दर्शन करके यज्ञ की भांति इसका उल्लेख है। संभोग कोई घृणा योग्य प्रक्रिया नहीं है और जिस किसी कर्म से घृणा की जाति है और जिस किसी कर्म से आसक्ति रखी जाती है अंत में वह कर्म बंधन का हा कारण होता है इसलिए राग द्वेष(आसक्ति घृणा) से परे होके यज्ञ की भांति यौनकर्म करो, यही भगवद् गीता मे भी बताया गया है।
इसी भांति संभोग प्रक्रिया को भी एक यज्ञ के समान ही बताया गया है जिसमें स्त्री अग्नि है, उसका गुप्तांग यज्ञ की लकड़ी है, पुरुष जो संभोग का आमंत्रण करता है वह धूंआ है, बृहदारण्यक उपनिषद् में गुप्तांग के बालों को धूंआ कहा गया है, गुप्तांग का भीतरी हिस्सा यानी योनि ज्वाला है, और उसमे भीतर की ओर जो पुरुष अपने गुप्तांग से क्रिया करता है वह अंगार है, और इस संभोग क्रिया में जो आनंद आता वह यज्ञ में उठने वाली चिंगारी समान है।

बृहदारण्यक उपनिषद् के छठे अध्याय के चौथे सूत्र में कहा गया है :
स ह प्रजापतिरीक्षांचक्रे हन्तास्मै प्रतिष्ठां कल्पयानीति स स्त्रिय ससृजे । ता सृष्ट्वाऽध उपास्त तस्मात्स्त्रियमध उपासीत स एतं प्राञ्चं ग्रावाणमात्मन एव समुदपारयत् तेनैनामभ्यसृजत्
अर्थ : सुप्रसिद्ध प्रजापति ने विचार किया कि मैं इस वीर्य की स्थापना के लिए योग्य प्रतिष्ठा का निर्माण करूँ, अतः उन्होंने स्त्री की सृष्टि की । उसकी सृष्टि करके उन्होंने उसके अधोभाग(गुप्तांग) की उपासना की(मैथूनकर्म का विधान किया), अतः स्त्री के अधोभाग की उपासना करे (मैथूनकर्म करें)।
प्रजापति ने इस उत्कृष्ट गतिशील प्रस्तरखण्ड-सदृश शिश्नेन्द्रीय (उत्पन्न करके उसे) स्त्री की (योनी की) ओर प्रेरित किया, इससे उस स्त्री का संसर्ग किया।
प्रजापति यानी सृष्टिकर्ता ईश्वर। उसी ने पुरुष के वीर्य की स्थापना के लिए स्त्री की सृष्टि की है और स्त्री की सृष्टि करके उन्होंने उसके अधोभाग(गुप्तांग) की उपासना की यानी मैथूनकर्म का विधान बनाया (ईश्वर संभोग क्रिया आदि से रहित होते हैं इसलिए उपासना का अर्थ यहाँ मैथूनकर्म का विधान बनाने से है), इसलिए स्त्री के अधोभाग की उपासना करें यानी पुरुषों को यह कहा जा रहा है कि संभोग को भी एक प्रकार की उपासना की ही भांति समझें और संतान प्राप्ति के लिए इसे यज्ञ की भांति करें।
आगे संभोग की प्रक्रिया को ही समझाया गया है कि पुरुषों की शिश्न इन्द्री को ईश्वर ने उत्पन्न करके उसे कामवश योनि कि ओर प्रेरित किया और संभोग प्रक्रिया को आरंभ किया।
तस्या वेदिरुपस्थो लोमानि बर्हिश् चर्माधिषवणे समिद्धो मध्यतस्तौ मुष्कौ। स यावान्ह वै वाजपेयेन यजमानस्य लोको भवति तावानस्य लोको भवति य एवं विद्वानधोपहासं चरत्य् आसा स्त्रीणा सुकृतं वृङ्क्ते ऽथ य इदमविद्वानधोपहासं चरत्य् आऽस्य स्त्रियः सुकृतं वृञ्जते॥ ३ ॥
अर्थ : स्त्री की उपस्थेन्द्रिय वेदी है, वहाँ के रोएँ कुशा हैं, योनि का मध्यभाग प्रज्वलित अग्नि है, योनि के पार्श्वभाग में जो दो कठोर मांसखण्ड हैं उनको मुष्क कहते हैं, वे दोनों मुष्क ही ‘अधिषवण’ नाम से प्रसिद्ध चर्ममय सोमफलक हैं।
वाजपेय यज्ञ करने से यजमान को जितना पुण्यलोक प्राप्त होता है, उतना ही उसे भी प्राप्त होता है। जो कि इस प्रकार जानकर मैथुन का आचरण करता है, वह इन स्त्रियों के पुण्य को अवरुद्ध कर लेता है और जो इसे नहीं जानता है, तो स्त्रियाँ ही उसके पुण्य को अवरुद्ध कर लेती हैं।
इसमें भी संभोग क्रिया को यज्ञ कि भांति दर्शाया गया है, और जो इसे यज्ञ की भांति ही करता है वही पुण्य पाता है, यानी इससे घृणा न करो, यह घृणा योग्य कर्म नहीं है। जिस किसी कर्म से घृणा की जाति है और जिस किसी कर्म से आसक्ति रखी जाती है अंत में वह कर्म बंधन का हा कारण होता है इसलिए राग द्वेष(आसक्ति घृणा) से परे होके यज्ञ की भांति कर्म करो।
एतद्ध स्म वै तद्विद्वानुद्दालक आरुणिराहैतद्ध स्म वै तद्विद्वान्नाको मौद्गल्य आहैतद्ध स्म वै तद्विद्वान् कुमारहारित आह बहवो मर्या ब्राह्मणायना निरिन्द्रिया विसुकृतोऽस्माल्लोकात्प्रयन्ति य इदमविद्वासोऽधोपहासं चरन्तीति । बहु वा इद सुप्तस्य वा जाग्रतो वा रेतः स्कन्दति॥ ४ ॥
अर्थ : निश्चय ही इस मैथुनकर्म को वाजपेय सम्पन्न जानने वाले अरुणनन्दन उद्दालक कहते हैं. इसे इस रूप में जानने वाले कुमारहारित मुनि भी कहते हैं : ‘बहुत से ऐसे मरणधर्मा नाममात्र के ब्राह्मण हैं, जो निरिन्द्रिय, सुकृतहीन और मैथुन-विज्ञान से अपरिचित होकर भी मैथुन कर्म में आसक्तिपूर्वक प्रवृत्त होते हैं, वे परलोक से भ्रष्ट हो जाते हैं। यदि राग की प्रबलता के कारण उसका वीर्य अधिक या कम, सोते समय या जागते समय गिर जाता है तो।
इस मंत्र में कहा गया है की वास्तविक ब्राह्मण तो वही है जो संतान प्राप्ति के लिए संभोग क्रिया को भी यज्ञ की भांति करे।
पर कुछ मरणधर्मा नाममात्र के ब्राह्मण इसे इस रूप में नहीं जानते और मैथून विज्ञान (sex education) से रहित हैं और इसे घृणा की और रूढ़िवादी भद्दी दृष्टि से देखते हैं, और आसक्ति पूर्वक इसमें प्रवृत्त होते हैं, ऐसे ब्राह्मण परलोक से भ्रष्ट हो चुके हैं.
आगे इन्हीं मरणधर्मा नाममात्र के ब्राह्मणों के लक्षण और इनके आचरणों का उल्लेख है की “यदि राग की प्रबलता के कारण उसका वीर्य अधिक या कम, सोते समय या जागते समय गिर जाता है तो -” यह उल्लेख यहाँ से लेकर इस पूरे चौथे ब्राह्मण के अंत तक है।
चौथे ब्राह्मण के 5 से ले के 28वें मंत्र तक इन्हीं मरणधर्मा नाममात्र के ब्राह्मणों के आचरण का विवरण दिया गया है. यानी इस पूरे चौथे ब्राह्मण में 5 से ले के 28 तक इन नकली ब्राह्मणों के गलत आचरण का खंडन किया गया है न की समर्थन, क्योंकी उपनिषद् संतान प्राप्ति के लिए किए जाने वाले संभोग को पवित्रता की दृष्टि से देखता है उसे यज्ञ की दृष्टि से देखता है।👁️

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