अग्नि आलोक

इन्हें गांधी को मिटाने के लिए गांधी का ही सहारा लेना पड़ता है

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पहले थोड़ी झिझक थी मगर अब बिल्कुल नही है । एक फ़िल्म आई है ” गांधी-फलाने और एक युद्ध” जिसे विचारों का युद्ध कहकर बाज़ार में उतारा गया और बहुत बड़े नामों ने इसमें अपना योगदान दिया । मैं एक वाक्य में यह कहते नही हिचकता हूँ कि यह पूरी की पूरी एक प्रोपेगैंडा फ़िल्म है ।

पहली बार इतनी भौंडे तरीके से गांधी के ऊपर उनके हत्यारे के विचारों का चश्मा चढ़ाया गया है । उनके हत्यारे को पूरी फिल्म में महान वैचारिक व्यक्ति साबित किया गया है । उसके हर तर्क,प्रश्न के सामने गांधी को मौन करके खड़ा कर दिया गया है । गांधी को प्रेम का दुश्मन बनाकर बा को सामने करके ज़लील किया गया है और अंत में गांधी को अपने हत्यारे के रास्ते पर चलते हुए दिखाकर एक पूरा प्रोपगैंडा सेट कर दिया गया ।

सोचिए गांधी के सपने में बा आती हैं और कहती हैं कि कभी दूसरे के चश्मे से भी दुनिया देखा करो और गांधी वह दूसरा चश्मा अपने हत्यारे की नज़र से देखने लगते हैं । जेल से निकलकर वह और उनका हत्यारा बराबर से महानता की दहलीज़ पर खड़े कर दिए जाते हैं ।

इस फ़िल्म में विचार के नामपर गांधी-नेहरू के खिलाफ मीठा ज़हर भरा गया है । पूरी फिल्म में नेहरू और कॉंग्रेस विलेन की तरह है । नेहरू से अलग गांधी को दिखाया गया है, बल्कि उनके हत्यारे को ज़्यादा विचारवान और देशभक्त बनाया गया है । 

यह तरीका होता है कि आपके कंधे पर हाथ रखकर आपके खिलाफ ज़मीन बनाई जाए । राजकुमार संतोषी की यह फ़िल्म गांधी विचारों को मज़ाक और फ़िज़ूल बनाते हुए,उनके हत्यारे को महान बनाने की साजिश है । सोचिए इसमे गांधी को बकरी के साथ ही बांधकर उनके विचारों को कुंद किया गया है और उनके हत्यारे को किताबों के साथ खड़ा किया गया है ।

यह लिखने के बाद मेरी आलोचना होगी,मेरे अपने मेरी टांग खीचेंगे मगर मैं गांधी की इस हत्या को नही देख सकता । यह एक बड़ी साजिश है,एक हत्यारे को देश के सभी लीडर्स से बड़ा करके गांधी के बराबर लाकर खड़ा कर दिया । गांधी की प्राथना सभा के साथ जो बर्ताव फ़िल्म में हुआ है, वह तो कभी नही किया गया ।

बुद्ध की मूर्ति रखकर प्रार्थना दिखाई गई है, जो नही होती थी ,ऊपर से प्रार्थना करने वालों के मन को भटकता हुआ दिखाया है और गांधी को रूढ़िवादी । क्या ही तमाशा तैयार किया गया है और ताज्जुब है इसपर कोई हलचल नही है।

मैं तो उनके हत्यारे का नाम भी नही लिखता क्योंकि वह इतना बड़ा भी नही की उसका ज़िक्र किया जाए । वह एक हत्यारा भर था मगर इस फ़िल्म में तो वह महान बना दिया गया और गांधी उसके सामने हाथ जोड़कर खड़े हैं । अंत में जब वह गांधी की जान बचाता है, तो गांधी को कृतज्ञ भाव से हाथ जोड़े हुए देखकर तबियत अंदर तक दुःख गई । यह पाप है ।

हम फिल्मों का बायकॉट तो नही करते और न ही अलोचक को रोकने के समर्थक हैं मगर सच बोलकर सामने आओ और कहो कि यह फ़िल्म गांधी के विचारों की हत्या है । गांधी के पीछे छिपकर गांधी और उनके साथियों की वैचारिक हत्या क्यों कररहे है । 

जो भी इस फिल्म का समर्थक हैं, एक बात तो पक्की है कि वह गांधी को न मानता है और न जानता है । यह शुद्ध प्रोपेगैंडा फ़िल्म है गांधी और कॉंग्रेस के विरुद्ध,जो हमारी तरफ खड़े होकर इसके हिस्सा बने हैं, उनकी प्रतिबद्धता पर मेरा सीधा प्रश्न है…

मन दुःखी हो गया कि आज भी इन्हें गांधी को मिटाने के लिए गांधी का ही सहारा लेना पड़ता है…

#hashtag #हैशटैग हाफिज किदवई

हिंसा के जिक्र के साथ अहिंसा का याद आना नितांत स्वाभाविक है और अहिंसा के साथ याद आती है महात्मा गांधी की. यह एकदम उपयुक्‍त है कि हम युद्ध और टकराव की राजनीति को समझने के लिए गांधी के नजरिये का इस्तेमाल करें.

सचिन कुमार जैन

पने कभी सोचा है कि हमारे आसपास हिंसा को स्वीकार्यता कब और कैसे मिलती है? इसकी शुरुआत तब होती है जब एक व्यक्ति दूसरे से, एक परिवार दूसरे परिवार से और एक समुदाय दूसरे समुदाय से दूरी बना लेता है. जब हम अपने आसपास के लोगों को महसूस करना बंद कर देते हैं. हिंसा के जिक्र के साथ अहिंसा का याद आना नितांत स्वाभाविक है और अहिंसा के साथ याद आती है महात्मा गांधी की.

अमेरिका के मेसकीट शहर के स्टीफन पैडॉक ने लास वेगास में अंधाधुंध गोलीबारी करके 59 लोगों को मार डाला. इसके पश्चात उसने खुद को भी खत्म कर लिया. उसके कमरे में 10 और घर की तलाशी में 19 हथियार मिले. कहा गया कि वह आतंकवादी नहीं बल्कि मनोरोगी था. अमेरिका में जहां वालमार्ट के स्टोर पर भी बन्दूक खरीदी जा सकती है. पुरानी बन्दूक तो किसी भी सामान्य गिरवी की दुकान पर मिल सकती है. वहां ऐसे अपराध घटित हों तो क्या आश्चर्य?

मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में अनुषा नामक महिला ने पड़ोस की डेढ़ साल की बच्ची की पानी में डुबोकर हत्या कर दी. क्योंकि बच्ची की मां अनुषा के घर लोगों के वक्त-बेवक्त आने पर आपत्ति करती थी. हमारे देश में बच्चे लगातार अपराधों के शिकार हो रहे हैं. ऐसे में उनके अपहरण की अफवाह भर उड़ जाने पर भीड़ किसी निर्दोष की हत्या कर देती है और एक राजनीतिक विचारधारा उसे संरक्षण देती है. उस बर्बर विचारधारा को भारत का वृहद समाज संरक्षण और समर्थन देता है. क्या बतौर समाज हम अहिंसा के मूल्य को पूरी तरह खारिज करने लगे हैं?

हथियारों के उत्पादन को बहुत बड़ा योगदान समझने वाला समाज मानवीय मूल्यों के विनाश में ही सहायक होता है. यह जरूरी है कि हम युद्धों और सामरिक टकरावों को तथ्यों और मूल्यों के नज़रिए से देखें. ऐसे में हम महात्मा गांधी के मानवीय-राजनीतिक मूल्यों का संदर्भ ले सकते हैं. महात्मा गांधी का सन्दर्भ इसलिए क्योंकि दोनों विश्व युद्ध उनके जीवनकाल में ही हुए और वह हिटलर के सर्वाधिक सक्रिय कालखंड के भी साक्षी रहे. हमें युद्धों और टकरावों की राजनीति को महात्मा गांधी के नज़रिए से समझने की जरूरत है. ऐसा करके ही हम युद्धों और हिंसा के लगातार चल रहे तूफानों से बाहर निकलने की राह तलाश सकते हैं.

गांधी-कमला देवी संवाद

स्वतंत्रता सेनानी तथा समाज सुधारक कमला देवी चट्टोपाध्याय और महात्मा गांधी के बीच दूसरे विश्व युद्ध के शुरुआत में हुआ संवाद इस मामले हमें प्रेरक जानकारी देता है.

कमला देवी ने महात्मा गांधी को लिखा ‘‘आप उपनिवेशवाद और विश्व युद्ध के बारे में भारत के नहीं बल्कि पूर्व की समस्त शोषित प्रजाओं का रुख व्यक्त करें. वर्तमान संघर्ष खासकर उपनिवेशों की छीनाझपटी के बारे में है. इस प्रश्न पर दुनिया में केवल दो राय हैं, क्योंकि वह केवल दो ही मत सुनती है. एक वे लोग हैं, जो पहले जैसी स्थिति में यकीन रखते हैं, और दूसरे वे हैं जो तब्दीली चाहते हैं लेकिन उसी आधार पर. यानी वे लूट का दोबारा बंटवारा और शोषण का अधिकार चाहते हैं. ऐसा पुनर्वितरण सशस्त्र संघर्ष के बिना नहीं हो सकेगा. यह बात अलग है कि उसके बाद उपभोग के लिए कोई रहेगा या नहीं और कोई वस्तु उपभोग लायक रहेगी या नहीं, लेकिन संसार मुख्यतः इन्ही में बंटा है. अगर एक की बात ठीक मानें तो दूसरे की बात भी माननी चाहिए. क्योंकि अगर इंग्लैण्ड और फ्रांस को बड़े बड़े भू-भागों और राष्ट्रों पर शासन करने का अधिकार है तो जर्मनी और इटली को भी है. इंग्लैण्ड और फ्रांस का हिटलर को इससे रुकने के लिए कहना उतना ही कम न्यायोचित है जितना कि हिटलर का वह दावा जिसे कि वह अपना वाजिब हक़ बतलाता है.

इस सम्बन्ध में तीसरा विचार कभी-कभी ही सुनाई पड़ता है. लेकिन वह व्यक्त होना ही चाहिए. वह उन लोगों की आवाज़ है जो सारे खेल में प्यादों के मानिंद हैं. सवाल दरअसल उस सिद्धांत का है, जिस पर इस वर्तमान पश्चिमी सभ्यता का सारा दारोमदार है और वह है निर्बलों पर शासन करने और उनका शोषण करने के लिए बलवानों की लड़ाई. इसलिए यह सब उपनिवेशों के आसपास केन्द्रित है, और हिटलर तथा मुसोलिनी संसार को इसकी याद दिलाते कभी नहीं थकते. हम, यथास्थिति के खिलाफ हैं. लेकिन युद्ध हमारा विकल्प नहीं है, हम अच्छी तरह जानते हैं कि उससे समस्या हल नहीं होगी. हमारे पास दूसरा विकल्प है और वही इस भयंकर गड़बड़ी का एकमात्र हल और भविष्य की विश्व शान्ति की कुंजी है. आज वह रुदन लग सकता है, मगर अंत में वही आवाज रहेगी और जो हाथ आज इन कवचधारी भुजाओं के सामने कमज़ोर मालूम पड़ते हैं, वे ही अंत में ध्वस्त मानवता का नवनिर्माण करेंगे. उस आवाज़ को व्यक्त करने के लिए आप (महात्मा गांधी) सबसे उपयुक्त हैं.

संसार के उपनिवेशों में भारत का खास स्थान है. इसे वैसी नैतिक प्रतिष्ठा और संगठन शक्ति हासिल है जो बहुत कम उपनिवेशों में होगी. संसार को भारत लड़ाई की ऐसी ऊंची कला का प्रदर्शन करा चुका है, जिसके नैतिक मूल्य की विश्व कभी न कभी जरूर कद्र करेगा. इसलिए इस उन्मत्त संसार से भारत को यह कहना है कि यदि मानवता को ऐसे विनाशों से बचकर उत्पीड़ित संसार में शान्ति और सामंजस्य लाना है, तो उसे कदम बढ़ाना ही होगा. जिन लोगों को इस पद्धति से इतना कष्ट उठाना पड़ा है और जो वीरतापूर्वक उसे बदलने के लिए लड़ रहे हैं, वे ही पूरे विश्वास और जरूरी नैतिक आधार के साथ न केवल अपनी ओर से बल्कि संसार की समस्त शोषित और पीड़ित प्रजाओं की ओर से बोल सकते हैं”.

जवाब में महात्मा गांधी ने लिखा, ‘‘मैं आपके विश्लेषण से सहमत हूं. दोनों पक्ष अपने अस्तित्व और नीतियों को आगे बढ़ाने के लिए लड़ रहे हैं. किन्तु मित्र राष्ट्रों की घोषणाएं कितनी ही अपूर्ण और संदिग्ध क्यों न हों, संसार ने उनका अर्थ यह लगाया है कि वे लोकतंत्र की रक्षा के लिए लड़ रहे हैं, जबकि हिटलर जर्मन सीमा के विस्तार के लिए. हिटलर ने तलवार का रास्ता चुना, इसलिए मेरी सहानुभूति मित्र राष्ट्रों के प्रति है; लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि मैं तलवार के न्याय का किसी भी तरह समर्थन करता हूं. फिर चाहे वह ठीक बात के लिए ही क्यों न हो. वाजिब बात में ऐसी क्षमता होनी चाहिए कि जंगली या खूंरेजी के साधनों के बजाय ठीक साधनों से उसकी रक्षा की जा सके. मनुष्य जिसे अपना हक़ या अधिकार समझता है उसको कायम रखने के लिए उसे अपना खून बहाना चाहिए. उस अधिकार पर आपत्ति करने वाले विरोधी का खून हरगिज नहीं बहाना चाहिए”.

हमारी राजनीति ने लोगों के मन में यह भाव डाल दिया है कि फिलिस्तीन, सीरिया, लेबनान, श्रीलंका, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, कांगो, युगांडा आदि ऐसी जगह हैं जहां इंसान नहीं आतंकवादी रहते हैं. इसलिए वहां युद्ध छेड़ देने या हथियारों का प्रयोग कर देने से गुरेज़ नहीं करना चाहिए. इन जगहों पर बमबारी से मरने वाले बच्चे, बच्चे नहीं होते हैं, महिलायें महिलायें नहीं होती है. विकसित देश दुनिया भर को अपनी उच्च तकनीकों से यह सन्देश देते हैं कि इन जगहों पर इंसान नहीं, अमानव मारे जा रहे हैं. अमेरिका या रूस या चीन में विध्वंसक हथियारों का निर्माण करने वालों को यह अहसास नहीं होने दिया जाता है कि उनसे मानवता का विनाश किया जाने वाला है.

आचार्य विनोबा भावे के अनुसार “गांधी जी का जोर इस बात पर था कि अहिंसा केवल व्यक्तिगत नहीं है, सार्वजनिक जीवन में भी उसका स्थान है. क्या अहिंसा की बातें धर्मों ने कम कही हैं? जैन-धर्म व्यक्तिगत जीवन में अहिंसा का कितना बारीक विचार करता है? प्राणी मात्र को कष्ट न हो, इसका भी ख्याल रखता है. जैनी जंतुओं का नाश होना भी सहन नहीं कर सकते, जबकि दूसरी ओर वे ही सेना का बचाव करते हैं. उन्होंने मांसाहार का भी निषेध किया है, लेकिन सेना चाहिए.”

अभिशाप हैं युद्ध और हिंसा

महात्मा गांधी कहते हैं, “अन्याय के दमन या झगड़ों के निपटारे के लिए अहिंसा का दूसरा नाम ही विवेक है. विवेक का अर्थ मध्यस्थ का किया हुआ किसी झगड़े का बाध्यकारी निर्णय अथवा युद्ध नहीं है. मैं अपने विश्वास पर जोर देकर यही कर सकता हूं कि यदि मेरे देश को हिंसा के जरिये स्वतंत्रता मिलना संभव हो, तो भी मैं उसे हिंसा से प्राप्त न करूंगा. तलवार से जो मिलता है, वह तलवार से हर भी लिया जाता है”.

गांधी ने 13 जुलाई 1940 को हरिजन सेवक में लिखा, “मेरी हर अंग्रेज से यह प्रार्थना है कि वह राष्ट्रों के आपसी ताल्लुकात और दूसरे मामलों के फैसलों के लिए युद्ध का मार्ग छोड़कर अहिंसा का मार्ग स्वीकार करे. आपके राजनेताओं ने कह दिया है कि यह युद्ध प्रजातंत्र की रक्षा के लिए लड़ा जा रहा है. युद्ध को न्यायोचित सिद्ध करने के लिए और भी बहुत से कारण दिए गये हैं. मेरा कहना है कि युद्ध समाप्त होने पर जीत किसी भी पक्ष की हो, प्रजातंत्र का कहीं नामोनिशान भी नहीं मिलेगा. यह युद्ध मनुष्य जाति के लिए अभिशाप और चेतावनी है. यह युद्ध शाप है, क्योंकि आज तक कभी इंसान इंसानियत को इस तरह नहीं भूला था, जितना इस युद्ध के असर में भूल रहा है… यह युद्ध एक चेतावनी भी है. अगर लोग कुदरत की इस चेतवानी से न जागे, तो इंसान हैवान बन जाएगा.”

इस समय दुनिया में 70 लाख से ज्यादा बच्चे हिंसा के माहौल में रह रहे हैं. वहीं दुनिया के सभी देशों ने मिलकर वर्ष 2015 में सतत विकास लक्ष्य तय किये. इन लक्ष्यों के तहत हम गरीबी मिटाना चाहते हैं, शिशु मृत्यु दर-मातृत्व मृत्यु दर कम करना चाहते हैं, हर व्यक्ति को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा उपलब्ध करवाना चाहते हैं. इन्हीं लक्ष्यों में 16वां लक्ष्य है– शांतिपूर्ण और समावेशी समाज की स्थापना, सभी को न्याय दिलाना और हर स्तर पर जवाबदेह-समावेशी संस्थागत व्यवस्था का ढांचा तैयार करना. वर्ष 2030 तक प्रभावी स्तर तक सभी तरह की हिंसा और गैर-कानूनी हथियारों के व्यापार में कमी लाना भी इसका हिस्सा है. जब हथियारों का ‘वैध कारोबार’ ही इतना बड़ा है, तो हम शांतिपूर्ण समाज की स्थापना के लक्ष्य को कैसे हासिल करेंगे?

दुनिया भर में 34 युद्ध और बड़े हिंसक टकराव चल रहे हैं. क्या ये टाले नहीं जा सकते हैं? इन युद्धों से कौन से लक्ष्य हासिल किये जा रहे हैं? हकीकत में युद्ध प्राकृतिक संसाधनों और तेल पर नियंत्रण के लिए शुरू किये जाते हैं. खासतौर पर अमेरिका और रूस युद्ध की भूमिका रचते हैं. जब युद्ध होते हैं, तो हथियारों का बाज़ार भी सजता है. हथियार, बाजार अर्थव्यवस्था का बड़ा हिस्सा बन चुके हैं. यही कारण है कि सरकारें और नीति निर्माता युद्ध बंद करने के बारे में सोचते भी नहीं हैं.

युद्ध हमारी नसों में घुस रहा है

खाद्य और कृषि आर्गनाईजेशन की 2019 पर आधारित रिपोर्ट कहती है कि दुनिया भर में 82.16 करोड़ लोग अल्प पोषित हैं. 11.3 करोड़ लोग गंभीर कुपोषण के शिकार हैं. दूसरी ओर स्टॉकहोम पीस रिसर्च इंस्टीट्यूट की रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2017 में दुनिया की 100 बड़ी हथियार कंपनियों ने 41,274 करोड़ डॉलर (लगभग 28.87 लाख करोड़ रूपये) के हथियार बेचे.

वर्ष 1955 में भारत अपनी सैन्य शक्ति और हथियारों पर 2.24 अरब रुपये खर्च करता था. 63 सालों में यह खर्च 1821 गुना बढ़कर वर्ष 2018 में 46.32 खरब रुपये हो गया. अमेरिका वर्ष 1955 में 40.37 अरब डॉलर हथियारों पर खर्च कर रहा था. यह व्यय 63 साल में यानी वर्ष 2018 तक बढ़ कर 64.88 खरब डॉलर हो गया. यानी 15.6 गुना का इजाफा.

किसी देश की कमजोर अर्थव्यवस्था उसकी मुद्रा पर भी बुरा असर डालती है. यही कारण है कि वर्ष 1955 में एक डॉलर का मूल्य 4.76 रुपये था, जो अब 77 रुपये तक पहुंच गया है. अमेरिका ने अपने व्यापारिक हितों (तेल, तकनीक और हथियार) का संरक्षण किया, जबकि भारत ने अपनी ग्रामीण अर्थव्यवस्था, कृषि और प्राकृतिक संसाधनों की व्यवस्था को खुद ध्वस्त कर दिया.

महात्मा गांधी लिखते हैं, “भारत ने कभी किसी राष्ट्र के खिलाफ़ युद्ध नहीं छेड़ा. आत्मरक्षा के लिए उसने आक्रमणकारियों के खिलाफ़ कभी-कभी विरोध अथवा असफल या अधूरा संगठन अवश्य किया है. शान्ति की आकांक्षा तो उसमें विपुल मात्रा में मौजूद ही है, भले वह इस बात को जाने या न जाने. शान्ति की वृद्धि के लिए उसे शांतिमय साधनों से स्वतंत्रता हासिल करनी चाहिए. अगर वह ऐसा कर सके तो यह विश्व शांति की दिशा में किसी एक देश के द्वारा दी जा सकने वाली सबसे बड़ी मदद होगी.” लेकिन सच यह है कि भारत भी शक्ति, हथियार, भय और युद्ध की नीति के जरिये विश्व का नेतृत्व हासिल करना चाहता है. इस क्रम में उसने हिंसा में निवेश किया और खुद को खोखला करना शुरू कर दिया.

जब दुनिया भर में लोग भूख, बीमारियों और पर्यावरणीय आपदाओं के कारण संकट में हैं, बच्चों को शिक्षा का हक नहीं मिल रहा है, बेरोज़गारी ने लूट और अपराध को व्यवसाय में बदल दिया है, तब हमारे संसाधन युद्ध और हथियार में लगने चाहिए या शिक्षा-स्वास्थ्य-रोजगार के विकास में? इस पर विचार करना जरूरी है.

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