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 वे जाल फेंकते हैं और आप उत्तेजित होकर भूल करते हैं….गुंडे इतिहास तय कर रहे हैं

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बाबरी मस्जिद के नीचे राम मंदिर है, कहकर बाबरी मस्जिद को ढ़ाह दिया गया और भाजपा सत्ता में आ गई. ज्ञानवापी मस्जिद के नीचे शिवलिंग निकल गया, अब इसे ढ़ाहने की तैयारी की जायेगी. इसी तरह कुतुबमीनार के नीचे विष्णु और ताजमहल के नीचे शिवलिंग आ जायेगा. मथुरा में कृष्ण निकल आयेगा. देश का सारा तंत्र न्यायपालिका, पुलिसिया तंत्र इस राम, कृष्ण, विष्णु, शंकर को खोजने में लगकर देश की जनता की बुनियादी समस्याओं – शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, मंहगाई, हत्या, बलात्कार – को दफन कर दिया है.

हालात यह हो गये हैं कि गुंडे इतिहास तय कर रहे हैं. गुंडे ही जज बनकर न्याय को परिभाषित कर रहे हैं. दिलचस्प है जज बने यह गुंडे इतिहास विशेषज्ञ नहीं हैं पर इतिहास के मसलों पर ऐसे आदेश दे रहे हैं गोया इतिहास उनकी क्रीडा स्थली हो. यह भारत में ही यह संभव है. अब गुंडे बता रहे हैं इतिहास क्या है ? पत्रकार जिनका इतिहास का कोई गंभीर ज्ञान नहीं, वे बता रहे हैं इतिहास क्या है ? विषय की विशेषज्ञता के भारत में दिन लद गए !

कलकत्ता विश्वविद्यालय, कोलकाता के हिन्दी विभाग के पूर्व अध्यक्ष और प्रोफेसर जगदीश्वर चतुर्वेदी अपने सोशल मीडिया पेज पर लिखते हैं संघी जब भी कोई मसला उठाते हैं, आप सोचते हैं वे मंदिर-मसजिद का मुकदमा लड़ रहे हैं, या मसले पर सोशल मीडिया में संवाद कर रहे हैं. जी नहीं, वे जाल फेंकते हैं और आप उत्तेजित होकर भूल करते हैं या फिर वे असत्य मामला बनाते हैं और उसकी आड़ में विभिन्न बहानों से निर्दोष लोगों की खासकर बुद्धिजीवियों की गिरफ्तारी या एफआईआर या साइबर हमले संगठित करते हैं. उनके इस संगठित हमले का ताजा शिकार हैं प्रो. रतन लाल. हम उनकी गिरफ्तारी की निंदा करते हैं.

इसके पहले ने लखनऊ विश्वविद्यालय के एक शिक्षक पर गुंडों से हमला करा चुके हैं, अविनाश दास के खिलाफ एफआईआर करा चुके हैं. इन सब पुलिसिया हरकतों का एक ही मकसद है चुप रहो. असत्य के खिलाफ बोलो मत, डरो लेकिन पुलिस के पास सत्य बोलने से रोकने का कोई कानून नहीं है. इस तरह की पुलिसिया हरकतें अवैध हैं. वे कानून का दुरुपयोग हैं. हिन्दुत्व माने कानून का दुरुपयोग भी है.

आरएसएस ने विगत आठ सालों में दो बड़े मर्दानगी के प्रतीकों के इर्दगिर्द आम जनता और मीडिया को गोलबंद किया है – पहला, नरेन्द्र मोदी और दूसरा है सेना. सवाल यह है क्या मर्दानगी के आधार पर किसी देश को एकजुट रखा जा सकता है ? क्या मर्दानगी के जरिए लोकतंत्र में ऊर्जा सृजन संभव है ? हमारी मान्यता है मर्दानगी के ये दोनों प्रतीक मूलतः पुनरूत्पादन क्षमता से रहित हैं, इनके आधार पर पंगे तो खड़े किए जा सकते हैं, सामाजिक उत्पादन और पुनरूत्पादन संभव नहीं है. दिलचस्प है आरएसएस के पास कोई स्त्री प्रतीक नहीं है, सारे पुंस प्रतीक हैं. मसलन्, महाराणा प्रताप, शिवाजी, रामजी, श्रीकृष्ण आदि.

संविधान और कानून जिस तरह हिन्दुत्ववादियों के यहां बंधक पड़ा है और विपक्ष नपुंसक हो गया है, उसने तय कर दिया है कि भारत को अफगानिस्तान होने से कोई नहीं रोक सकता. मोदी सरकार और आरएसएस की यह महानतम उपलब्धि है. सारी वीरता कमजोरों पर दिखाना तालिबान का मंत्र है जिसे संघ ने सीख लिया है.

ज्ञानवापी सर्वे की गोपनीय रिपोर्ट का लीक होना, कानून की बंदिशों के रहते अदालतों का ज्ञानवापी-ईदगाह प्रश्न को विचार के लिए खोलना इस बात का संदेश है कि भारत अब लोकतांत्रिक देश, कानून का पालन करने वाला देश नहीं है, यही तो आरएसएस चाहता था. भारत महान देश है जिसमें कानून सिर्फ कागज पर होते हैं. यह संदेश रह-रहकर सारी दुनिया में जा रहा है. इसे कहते हैं उत्तर आधुनिक भारत, जिसकी पहचान है कानून का अंत.

प्रख्यात पत्रकार रविश कुमार लिखते हैं – टीवी पर महंगाई की चर्चा मिशन नहीं है, न ही टैगलाइन में मिशन महंगाई वापसी है लेकिन मिशन मान्यूमेंट वापसी एक नया टैगलाइन चलाया जा रहा है. ऐसे टाइटल कहां से आते हैं ? क्या ट्विटर पर चलने वाले हैशटैग के उठाकर टीवी के स्क्रीन पर चिपका दिया जाता है ? ट्विटर पर हमने देखा कि हैशटैग मान्यूमेंट वापसी को लेकर कोई 20 ट्वीट हैं, इसके बाद भी एक न्यूज़ चैनल अपनी तरफ से मिशन लगा देता है ताकि मान्यता मिले और दर्शकों को लगे कि इस मिशन को पूरा करना उनका भी काम है. आए होंगे महंगाई देखने लेकिन चैनल उन्हें मिशन का काम पकड़ा रहे हैं.

आज इस देश की हालत यह हो गई है, हालात से ज़्यादा मीडिया की रिपोर्टिंग करनी पड़ती है. जिस तरह से न्यूज़ चैनल इस तरह के मुद्दों को लेकर दिन-रात मेहनत कर रहे हैं, जल्दी ही आप देखेंगे कि हज़ारों लोग कुदाल और खंती लेकर जगह-जगह खोदने निकल पड़े हैं. उनके साथ-साथ लाखों लोग व्हाट्सऐप ग्रुप में यहां से लेकर वहां तक खोदने का सपना देख रहे हैं. ऐसे लोगों को आप ये कतई न बताएं कि करोड़ों वर्ष पहले हिमालय टेथिस सागर से निकला था, वर्ना ये लोग टेथिस सागर की वापसी के लिए हिमालय खोद डालेंगे. किसी भी दौर में मूर्खता की ऐसी समानता और बहुलता नहीं देखी गई है.

उदयपुर में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कहा कि मोदी सरकार इतिहास गढ़ने में लगी है. जवाहरलाल नेहरू जैसे राष्ट्र निर्माताओं का अपमान किया जा रहा है. उनके बारे में मनगढ़ंत बातें फैलाई जा रही हैं और उनके योगदानों पर हमला किया जा रहा है. गांधी की हत्या करने वालों का महिमामंडन किया जा रहा है. क्या यह इशारा है कि कांग्रेस नेहरू पर हुए हमले का जवाब देगी ? कई साल से व्हाट्सऐप यूनिवर्सिटी में नेहरू को लेकर मनगढ़ंत बातें फैलाई गईं, कांग्रेस ने कभी इस तरह से जवाब नहीं दिया, नतीजा यह हुआ कि सारी मनगढंत बातें जनता के बीच स्थापित होती चली गईं.

क्या सोनिया गांधी ने नेहरू का ज़िक्र भर किया है या उनकी पार्टी नेहरू को लेकर अभियान चलाएगी ? प्रधानमंत्री ने लोकसभा में महंगाई को लेकर नेहरू की हंसी उड़ा दी थी, तब कांग्रेस औपचारिक रूप से जवाब देने के अलावा कुछ नहीं कर सकी. सोनिया ने यह भी कहा कि नरेंद्र मोदी की सरकार इस देश में लगातार ध्रुवीकरण का माहौल बनाए रखती है ताकि लोगों में भय और असुरक्षा का माहौल बना रहे. अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया जा रहा है जो हमारे समाज का अभिन्न अंग हैं और बराबर के नागरिक हैं. भय फैलाकर नौकरशाही और कारपोरेट और मीडिया के एक तबके को डाराया जा रहा है ताकि जो कहा जाए, वही कहें और करें.

कांग्रेस एक मुश्किल दौर में हैं. तमाम चुनावों में हार के बाद उसके नेता पार्टी छोड़ने लगे हैं. कांग्रेस के सामने संगठन को खड़ा करने की चुनौती है तो उन मुद्दों को धार देने की भी, जिनके कारण वह जनता का विश्वास हासिल नहीं कर पा रही है. मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों की आलोचना तो है मगर कांग्रेस की अपनी अलग आर्थिक नीतियां क्यों होंगी, क्या कुछ नए प्रस्ताव देखने को मिलेंगे ?

इलेक्टोरल बान्ड को ही लीजिए, जिसके ज़रिए चुनावी चंदे का गुप्त खेल खेला जा रहा है, कांग्रेस कभी इसे बड़ा मुद्दा नहीं बना सकी, नतीजा यह है कि आज चंदों की थैली एक पार्टी के पक्ष में झुकी हुई है. दूसरे तमाम दलों की आर्थिक हालत चरमरा गई है. उदयपुर का शिवर देश के इस प्रमुख विपक्षी दल के लिए काफी अहम है. सोनिया गांधी बार-बार सामूहिक विशाल प्रयास का ज़िक्र कर रही हैं, ज़ाहिर है संकट को वह भी समझ रही हैं और जानती हैं कि कांग्रेस बचेगी तो कांग्रेस के सभी कार्यकर्ताओं के प्रयास से, बशर्ते वे कांग्रेस में बचे रहें.

महंगाई को ही लीजिए, आठ साल में सबसे अधिक है, यह सही है कि गोदी मीडिया ने महंगाई पर विपक्ष के प्रदर्शनों और बयानों को कम दिखाया लेकिन यह भी सही है कि जिस मुद्दे से जनता इतनी परेशान है, उसके बाद भी कांग्रेस उसके बीच जगह नहीं बना पा रही है. जनता अपनी परेशानी विपक्षी दलों के सहारे नहीं कहना चाहती. महंगाई को लेकर विपक्ष के प्रदर्शनों से जनता अपनी दूरी बनाए रखती है. उधर गोदी मीडिया महंगाई के मुद्दे को जनता से दूर रखने के लिए मान्यूमेंट वापसी जैसे बोगस अभियानों को खड़ा करता रहता है.

दक्षिण दिल्ली के एक ठेले पर नींबू 250 रुपये किलो, बीन्स और मटर 120 रुपये किलो, परवल और कटहल 80 रुपये किलो और बैंगन 50 रुपये किलो है, भिंडी, शिमला मिर्च और तोरी 60 रुपये किलो है. क्या आम आदमी 50-60 से लेकर 120 और 250 रुपये वाली सब्ज़ी खरीद पाता होगा, या वह 25-30 रुपये किलो आलू और प्याज से ही अपना काम चला रहा है. सब्ज़ियों के साथ-साथ मसाला से लेकर खाद्य तेलों के दाम भी आसमान छूने लगे हैं.

केवल पेट्रोल और खाद्य तेल के दाम नहीं बढ़ते हैं, आप उन चीज़ों के भी अधिक दाम दे रहे जो सरकार की सूची में नहीं हैं. कई लोग कह रहे हैं कि महंगाई की वास्तविक दर 7.79 प्रतिशत की जगह 14-15 प्रतिशत से भी अधिक हो सकती है. जब मार्च का डेटा आया था तब भी इन्हीं लोगों ने कहा था कि अप्रैल में महंगाई की दर 7-8 प्रतिशत होगी,और जब अप्रैल का डेटा आया तो 7.79 प्रतिशत दर हो चुकी थी. आम लोगों पर महंगाई का क्या असर पड़ता है इसे लेकर रिज़र्व बैंक और वित्त मंत्रालय की राय विचित्र रूप से अलग है.

4 मई को भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास कहते हैं कि लगातार अधिक महंगाई दर से देश के ग़रीब तबके पर बुरा असर पड़ रहा है. उनकी क्रयशक्ति हवा होती जा रही है. 12 मई को वित्त मंत्रालय का बयान छपता है कि लोग किस तरह से उपभोग कर रहे हैं, इसके प्रमाण बताते हैं कि भारत में अमीर तबके की तुलना में कम आमदनी वाले तबके पर महंगाई का कम असर पड़ा है.

इस तरह की बातें छप रही हैं. क्या यह कहा जा रहा है कि महंगाई से अमीर परेशान हैं, ग़रीबों या आम लोगों पर कम असर है ? सुशील महापात्रा दिल्ली के एक ढाबे पर गए. ढाबे वाले ने कहा कि महंगाई की मार दोतरफा है. दाम बढ़ाते हैं तो ग्राहक नहीं आते, नहीं बढ़ाते हैं तो कमाई नहीं होती.

मिडिल क्लास भी परेशान है लेकिन क्या वह महंगाई को लेकर फेसबुक या ट्विटर पर लिख रहा है ? जैसा पहले लिखा करता था. सोशल मीडिया में महंगाई के खिलाफ लिखने वालों को देखकर लगता है कि ज़्यादातर बीजेपी के विरोधी दलों के समर्थक या कार्यकर्ता हैं. महंगाई को लेकर मिडिल क्लास की आवाज़ गायब है. गांवों में हाल तो और भी बुरा है. वहां महंगाई के अलावा गर्मी के कारण भी हालत खराब है. तेज़ गर्मी के कारण अनाज के दाने सूख गए हैं. उनका उत्पादन घट गया है. कोविड के बाद महंगाई और गर्मी से तप रहा यह साल किसानों को और पीछे धकेल देगा.

कृष्णा तुसामड को चोरी करने के आरोप में पीट पीट कर क्यों मारा गया? क्या इस गुस्से में कृष्णा का दलित होना भी कारण बना ? कृष्णा का पुरा परिवार सफाई और कूड़ा उठाने का काम करता है. समाज के भीतर हिंसा का आधार व्यापक होता जा रहा है. एक समाज अल्पसंख्यक से लेकर दलितों के भीतर हिंसा की इतनी परतों को उठाकर जब ढोता चलता होगा तब उसके भीतर क्या कभी ख़ुशियां दस्तक देती होंगी ? या हर समय वह किसी को देखकर दांत ही किटकिटाता रहता होगा, खिसायाता रहता होगा ? इस नज़र से देखेंगे तो इसके बाद देखने लायक कुछ बचेगा नहीं.

वहीं वर्क्स युनिटी वेबसाइट ने खबर दी है कि दिल्ली में एक साल से ऊपर चले किसान आंदोलन की तर्ज पर माओवाद प्रभावित बस्तर इलाके में आदिवासी एक साल से दिन रात धरने पर बैठे हुए हैं. सुकमा ज़िले के सिलंगेर (सिलगेर) गांव में सीआरपीएफ़ द्वारा बनाए जा रहे हाईवे पर आदिवासी बीते एक साल से दिन रात धरना लगाए हुए हैं.

17 मई 2021 को सीआरपीएफ कैंप के ख़िलाफ़ प्रदर्शन के दौरान गोली बारी में पांच आदिवासियों की मौत हो गई थी. इस घटना के एक साल पूरा होने पर यहां दसियों हज़ार की संख्या में आदिवासी इकट्ठा होकर शहीदों को श्रद्धांजलि दी और पांच सूत्रीय मांगों को लेकर सीआरपीएफ़ कैंप के सामने नारेबाज़ी की.

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