आसाराम को जेल की सलाखों के पीछे पहुंचाने वाले साहसी वकील पी.सी.सोलंकी के इस आत्मकथन को पढ़ा जाना चाहिए। आसाराम की भक्त मंडली में एक समय प्रधान मंत्री मोदी भी शामिल थे। हजारों करोड़ की सम्पति के मालिक आसाराम को कौन पाल-पोस रहा है। क्या यह ऐसा वक्त नहीं है, जब ऐसे तमाम मठ- मंदिर-मस्जिद की सम्पति का राष्ट्रीयकरण कर लिया जाए ? लेकिन अभी तो सोलंकी साहब को सलाम करना चाहूंगा । क्या भारत रत्न जैसे खिताब केवल राजनेताओं केलिए ही होंगे ? सोलंकी जैसे साहस के पुतलों को यह खिताब मिलना चाहिए।
15 मिनट में जज ने अपना फैसला सुना दिया था। वो 15 मिनट मेरी जिंदगी के सबसे भारी 15 मिनट थे। एक-एक पल जैसे पहाड़ की तरह बीत रहा था। पूरे समय मेरी आंखों के सामने पीड़िता और उसके पिता का चेहरा घूमता रहा।जज जब फैसला सुनाकर उठे तो लोग मुझे बधाइयां देने लगे। मेरा गला रुंध गया था। मुंह से आवाज नहीं निकल रही थी। मैं वकील हूं, मुकदमे लड़ना, कोर्ट में पेश होना मेरा पेशा है। लेकिन जिंदगी में आखिर कितने ऐसे मौके आते हैं, जब आपको लगे कि आपके होने का कोई अर्थ है। उस क्षण मुझे लगा था कि मेरे होने का कुछ अर्थ है। मेरा जीवन सार्थक हो गया। मेरा जन्म राजस्थान के एक साधारण परिवार में हुआ था। घर में तीन बहनें थीं और आर्थिक तंगी। पिता रेलवे में मैकेनिक थे। मैंने भी बचपन से सिलाई का काम किया है। मां एक दिन में 30-40 शर्ट सिलती थीं। पिता बेहद साधारण थे और मां अनपढ़। लेकिन दोनों की एक ही जिद थी कि बच्चों को पढ़ाना है और सिर्फ लड़के को नहीं, लड़कियों को भी। मेरी तीनों बहनों ने आज से 30 साल पहले पोस्ट ग्रेजुएशन किया और नौकरी की। मेरी एक बहन नर्स और एक टीचर है। जब मैंने इस पेशे में आने का फैसला किया तो मेरे गुरु ने कहा था कि वकालत बहुत जिम्मेदारी का काम है। इस पेशे की छवि समाज में बहुत अच्छी नहीं, लेकिन अपनी छवि हम खुद बनाते हैं और अपनी राह खुद चुनते हैं। हमेशा ऐसे काम करना कि सिर उठाकर चल सको और किसी से डरना न पड़े।
जब मैंने आसाराम के खिलाफ पीडि़ता की तरफ से यह मुकदमा लड़ने का फैसला किया तो बहुत धमकियां मिलीं। पैसों का लालच दिया गया। तमाम कोशिशें हुईं कि किसी भी तरह मैं ये मुकदमा छोड़ दूं।लेकिन हर बार मुझे वह दिन याद आता, जब पीड़िता के पिता पहली बार मुझसे मिलने कोर्ट आए थे। साथ में वो लड़की थी। बेहद शांत, सौम्य और बुद्धिमान। उसकी आंखें गंभीर थीं और चेहरे पर बहुत दर्द। पिता बेहद निरीह थे, लेकिन इस दृढ़ निश्चय से भरे हुए कि उन्हें यह लड़ाई लड़नी ही है। मैं यह लड़ाई इसलिए लड़ पाया क्योंकि पीड़िता और उसका परिवार एक क्षण के लिए अपने फैसले से डिगा नहीं। लड़की ने बहुत बहादुरी से कोर्ट में खड़े होकर बयान दिया। 94 पन्नों में उसका बयान दर्ज है। तकलीफ बहुत थी, लेकिन वो पर्वत की तरह अटल रही। लड़की की मां 19 दिनों तक कोर्ट में खड़ी रही और 80 पन्नों में उनका बयान दर्ज हुआ। पिता रोते रहे और बोलते रहे। 56 पन्नों में उनका बयान दर्ज हुआ। जब एक बेहद साधारण- सा परिवार इतने ताकतवर आदमी के खिलाफ इस तरह अटल खड़ा था तो मैं कैसे हार मान सकता था। 2014 में जिस दिन वकालतनामे पर साइन किया, उस दिन के बाद से यह मुकदमा ही मेरी जिंदगी हो गया।साढ़े चार साल ट्रायल चला। इन साढ़े चार सालों में मैं रोज कोर्ट गया। 8 बार सुप्रीम कोर्ट में पेशी हुई। 1000 बार से ज्यादा ट्रायल कोर्ट में पेश हुआ। जितना मामूली पीड़िता का परिवार था, उतना ही मामूली वकील था मैं। इस तरफ मैं था और दूसरी तरफ थे देश की राजधानी में बैठे कद्दावर वकील। सबसे पहले आसाराम को जमानत दिलवाने के लिए आए राम जेठमलानी। जमानत याचिका रद्द हो गई। फिर आए केटीएस तुलसी, लेकिन आसाराम को कोई राहत नहीं मिली। फिर आए सुब्रमण्यम स्वामी। न्यायालय में 40 मिनट तक इंतजार किया, लेकिन फैसला हमारे पक्ष में आया। फिर आए राजू रामचंद्रन लेकिन जमानत याचिका फिर खारिज हो गई। सिद्धार्थ लूथरा ने अभियुक्त की तरफ से कोर्ट में पैरवी की। इस केस में आसाराम की तरफ से देश का तकरीबन हर बड़ा वकील पेश हुआ। पूर्व अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने आसाराम की पैरवी की। सुप्रीम कोर्ट के जज यूयू ललित आए। सलमान खुर्शीद, सोली सोराबजी, विकास सिंह, एसके जैन, सबने एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया। तीन बार सुप्रीम कोर्ट से आसाराम की जमानत याचिका खारिज हुई। कुल छह बार अभियुक्त ने जमानत की कोशिश की और हर बार फैसला हमारे पक्ष में आया।लोग कहते हैं, तुम्हें डर नहीं लगता। मैं कहता हूं, मेरी 80 साल की मां और 85 साल के पिता को भी डर नहीं लगता। जब आप सच के साथ होते हैं तो मन, शरीर सब एक रहस्यमय ऊर्जा से भर जाता है। सत्य में बड़ा बल है। आत्मा की शक्ति से बड़ी कोई शक्ति नहीं। उनके पास धन, वैभव, सियासत का बल था, मैं अपनी आत्मा के बल पर खड़ा रहा। मेरा परिवार मेरे साथ था। मेरी मां पढ़ी-लिखी नहीं हैं। वे बस इतना समझती हैं कि एक आदमी ने गलत किया। बच्ची को न्याय मिले। मुझे सच की लड़ाई लड़ता देख मेरे पिता की बूढ़ी आंखों में गर्व की चमक दिखाई देती है। वे मुझसे भी ज्यादा निडर हैं। 85 साल की उम्र में भी बिलकुल स्वस्थ। तीन मंजिला मकान की अकेले सफाई करते हैं। पत्नी खुश है कि मैं एक लड़की के हक के लिए लड़ा।
(यह लेख पी.सी. सोलंकी के साथ बातचीत पर आधारित है और इसे रवि जी के वाल से साभार लिया गया है।)