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ये हमें बतायेंगे दीपावली कैसे मनाएं ?

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 –राकेश दुबे 

दीपावली भारत में बसने वाले हर नागरिक का उत्सव है, देश इसे राष्ट्रीय त्योहार मानता भी है | सारा देश इसे वर्षों से तय परम्परा से मनाता आ रहा है, लेकिन अब मध्यप्रदेश के मंत्री ओमप्रकाश सखलेचा,भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डाकी पत्नी मल्लिका नड्डा,और भाजपा के बड़े नेता विनय सहस्त्रबुद्धे से पूछिए कि हम दीपावली कैसे मनाएं? ये सब उस सन्गठन भारतीय सामाजिक दायित्व संघ [आई एस आर एन ] के पदाधिकारी थे, शायद अभी होंगे भी, यह संघ देश की बड़ी अदालतों में दीपावली पर पटाखे चलाने का विरोधी रहा है | इस संघ की एक रिपोर्ट इंटरनेट पर उपलब्ध है जिसमें इन महान लोगों के साथ ६ और विभूति भी है, जिनके परिवार में दीपावली परम्परागत तरीके से मनाये जाने का रिवाज है |


ज्यादा पुरानी बात नहीं है |पिछले साल की ही है “PTI13 November, 2020 8:13 pm IST- Indian Social Responsibility Network,filed through Santosh Gupta, seeking action against pollution by use of firecrackers” अब इस सारे करतब को संघ अर्थात राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की कसौटी पर कस लें, तो दत्तात्रय होस्बोले जी से लेकर मोहन जी भागवत के बयान याद आते हैं | संघ लेफ्ट है या राईट आज विवेचन जरूरी है |
अब परम्परागत उत्सवों की आलोचना का दौर है, अपने को समझदार कहने / समझने वाले ऐसी बातें करें तो समझ के बाहर है | दशक पहले तक यह ‘पूजा फेस्टिवल’ होता था । पूरे भारत में पूजा की छुट्टियां साथ होती थीं। आज अपनी परम्परा की आलोचना शान हो गई है |बाजार की भाषा में इसे त्योहारी सीजन कहते हैं। श्राद्ध खत्म होते ही यह सीजन शुरू हो जाता है। नवरात्र, विजयदशमी, करवा चौथ, दीपावली, कार्तिक पूर्णिमा (गुरु नानक जयंती) से लेकर २५ दिसंबर बड़ा दिन तक यह सीजन अनवरत चलता रहेगा। लेकिन आलोचना सिर्फ दीपावली के फटाखों ही क्यों ?
जैसे-जैसे बाजार बढ़ता है, त्योहारों की विशिष्ट पहचान छीजती जाती है। त्योहार अपने वैशिष्ट्य के कारण जाने जाते थे। उनकी एक क्षेत्रीय पहचान होती थी। मगर अब वह पहचान एक सर्वकालिक पहचान बनती जा रही है। मॉल में जाकर खरीदारी कर लेना, मौज-मस्ती कर वापस आ जाना, बस यहीं तक त्योहार रह गया है। त्योहार का जो उल्लास था, वह बहुत नहीं बचा। पिछले दो वर्षों से तो कोरोना ने त्योहारों की खुशी को बंद कर रखा है। कल ही बाज़ार से लौटते समय टैक्सी ड्राइवर कह रहा था- सर, आजकल कमाई एकदम ठप है। दिन भर में कोई एक या दो सवारी मिलती है। त्योहार आ रहे हैं, कैसे खुशी मनेगी? सुनकर ऐसा लगा, जैसे ईदगाह कहानी में हामिद की दादी अमीना बोल रही है, ‘साल भर का त्योहार किस-किस से मुंह चुराऊंगी? धोबन, नाइन, मेहतरानी, चूड़ीहारिन सब तो अपना नेग मांगेगी। और क्यों न मांगें, आखिर त्योहार रोज-रोज नहीं आता है!’
अब सवाल स्वयंभू भारतीय सामाजिक दायित्व संघ से है, आपका दायित्व भारत के भाईचारे को मिटाना है या उसे बढाना? प्रगतिशीलता का कथित ढोंग देश की आत्मा में बसे उत्सवों और उनकी ऊष्मा को समाप्त नहीं कर सकता है, और इसी का नाम सामाजिक दायित्व है | भारत के सारे त्योहार, पर्व धन-धान्य से जुड़े हैं। जब फसल पकी, कटी और अनाज घर आया, तो खुशियां भी आईं और यही त्योहार का उल्लास है। मिलना-जुलना होता है। इसी के साथ खुशियां सबको बांटी जाती हैं। परिवार में ही नहीं, किसानी समाज की उस ‘परजा’ को भी, जो किसान के लिए सहायक होते हैं। इसीलिए भारतीय ग्राम्य व्यवस्था में किसान को राजा माना गया है। बाकी पेशेवर समुदाय के लोग, पुरोहित भी, परजा है। अर्थात्, जिनकी भूमिका सहायक की है और जो उत्पादन कार्यों से सीधे नहीं जुड़े हैं, वे सब परजा हैं। भारतीय सामाजिक दायित्व संघ भी |

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